अचानक एक मित्र से बातें करते करते महंगाई का जिक्र होने लगा और जैसा कि भारत की समकालीन सत्ता के निंदक आमतौर पर बोलते हैं डीजल पेट्रोल और रसोई गैस के दाम और दैनंदिन उपयोग की वस्तुओं की बढ़ती कीमतें चर्चा का मुद्दा बनीं।
मैंने एक सवाल पूछा कि अगर मनमोहन सरकार के समय पेट्रोल डीजल की कीमत ८० या ६० रुपए प्रति लीटर लोगों ने चुकाया होगा और आज १२० लीटर चुका रहे हैं तो कंप्यूटर के एक सॉफ्टवेयर एक्स एल के एक फंक्शन एफ वी से क्या उस समय ६० रु का ८० रु का वर्तमान मूल्य पता किया जा सकता है?
थोड़े मौन के बाद जवाब आया कि आपको बढ़ती हुई आमदनी को भी कंसीडर करना पड़ेगा।

अब मैं अपने उस मित्र के उत्तर के बाद अब वामपंथियों के द्वारा महंगाई के मुद्दे पर उठाए गए तूफान की चर्चा करना चाहूंगा।

एक गजब का डबल स्टैंडर्ड है कि मेरी आमदनी तो बढ़े पर मेरे खर्चे उसी दर पर हो जिस पर मेरे दादाजी खर्च करते थे।
मेरा पूरा विश्वास है कि मनमोहन सरकार के समय में जमा ₹ ६० आज ₹ १२० हो चुके होंगे। उस समय की आमदनी से आज सबकी सैलरी ( अगर कमा रहे हैं तो दुगुनी या तिगुनी तो हो ही चुकी है) । हां रोज कुआं खोदकर पानी पीने वालों के लिए उस वक्त भी हालात इतने हीं जालिम थे और आज भी उतने ही जालिम हैँ।

पर गरीबों की सोचता कौन है? कोई उन्हें ₹२ प्रति किलो चावल उपलब्ध कराकर वोट ले लेता है तो कोई लैपटॉप और टेबलेट देने का वादा करके। अनौपचारिक रूप से दारू पिला कर भी वोट ले लिए जाते हैं परंतु आखिर में वह गरीब गरीब ही रहता है बल्कि गरीब से गरीबतर और गरीबतम हो जाता है।

आज तक जिन को अंबानी अडानी के हाथों देश के एयरपोर्ट रेलवे स्टेशन और बंदरगाह बिकने की शिकायतें थीं उन सबको टाटा के एयर इंडिया खरीदने से कोई शिकायत नहीं है।

अब इसे बुद्धिजीवियों का डबल स्टैंडर्ड कहूं या दोगलापन?

गरीबी गरीबी में अंतर है। बिक्री बिक्री में अंतर है। भाव भाव में फर्क है। यह कैसी दोगली सोच है।

सरकार को कीमतों पर नियंत्रण करना चाहिए परंतु इसके लिए जनता को भी अपनी वेतन वृद्धि को रोकना पड़ेगा। जो मध्यवर्ग या उच्च वर्ग अपनी सालाना आमदनी में वृद्धि को नकार देगा वहीं महंगाई का विरोध करने के योग्य होना चाहिए।

सारे राजनीतिक दल दोगले हैं। अपने अपने मंत्रियों और विपक्ष के नेताओं की सैलरी और भक्तों की वृद्धि को भी बेआवाज संसद में पास करवा लेते हैं पर गरीबों के बुझते चूल्हे, खाली थाली और धँसे हुए पेट की तस्वीर का परचम बनाकर उसी संसद के दरवाजे के आगे बैठ कर धरना देते हैं।
भ्रष्टाचार, मँहगाई और बेरोजगारी पर लगाम कसना किसी भी सरकार के लिए दूर की कौड़ी है परंतु हर राजनीतिक दल इन्हीं तीन मुद्दों को हथियार बना कर सत्ता का पासिंग द पार्सल गेम खेलती रहती हैं और जनता सोचती रहती है कि हमने सरकार पलट दी है अपने मतों के द्वारा।

शायद इसी गलतफहमी को प्रजातंत्र कहते हैं ।

DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text.