दाऊद इब्राहिम के पैसे पर चल रहे बॉलीवुड में अक्सर सनातन धर्म के नैरेटिव को नीचा करके दिखाया जाता है। हिंदू धर्म के अलावा उर्दूवुड को किसी और धर्म में कमी दिखाई नहीं देती है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा द्वारा निर्देशित और फरहान अख्तर के पैसे से लगी हुई फिल्म ‘तूफान’ किस तरीके से फर्जी प्रोपेगेंडा को आगे बढ़ाती है यह अपने आप में निहायत ही शर्मनाक है । ढाई घंटे से ऊपर की फिल्म कोरी बकवास है जिसमें ‘जय बजरंगबली’ कहने वाले परेश रावल को ‘सलाम’ कहने वाले अजीज़ अली के सामने मानसिक सरेंडर करना पड़ता है और गंगा जमुनी तहजीब के जुमले को सार्थक सिद्ध करना पड़ता है। 


फ़िल्म में कोच का किरदार निभाया रहे परेश रावल अपने दोस्त से कहते हैं कि अब हिन्दू लोग जागरूक हो रहे हैं, इसलिए मियां लोगों के ‘लव जिहाद’ के मसले पकड़ में आ रहे हैं। जाहिर है अब हिंदू लोग जागरूक हो रहे हैं का पर्याय है 2014 के बाद से नरेंद्र मोदी की चुनी हुई सरकार के आने के बाद आई जन चेतना एक नफरत है, परेश रावल को उसके बाद उनके दोस्त बने किरदार लम्बा भाषण देते हैं कि धर्म का क्या मतलब होता है। 

परेश रावल की हिन्दू डॉक्टर बेटी जब फरहान अख्तर बने अजीज़ अली से शादी कर लेती है तो वह अपने बाप परेश रावल को अच्छा आदमी बनने का लेक्चर देने के लिए आती है। परेश रावल बम विस्फोट में उसकी मां के निधन वाली बात को दोहराता है और कहता है कि इन्हीं मियां लोगों ने मुंबई में विस्फोट किया था जिसके चलते उसकी मां का देहांत हुआ था । बदले में बेटी अपने बाप को कहती है कि अज़ीज़ ने बम नही लगाया, अज़ीज़ से आपको माफी मांगनी होगी, लव जिहाद नहीं है ये, यानी फिर वही रटी रटाई बात कि मेरे वाला अब्दुल और मेरे वाला अज़ीज़ बाकी की तरह नहीं है।

‘लव जिहाद’ के एंगल को किस तरह से फिल्म बढ़ावा देती है इसका एक खूबसूरत उदाहरण इस बात में देखिए कि अज़ीज़ अली हिंदू लड़की से निकाह करता है और फिर उसके बाद उनकी जो बेटी पैदा होती है उसका मुस्लिम नाम रख दिया जाता है… मायरा अज़ीज़ अली..! यानी कि सौहार्द, सेक्यूलर ,सब धर्म बराबर की कितनी भी बात कर ली जाए मगर जो बच्चा पैदा होगा वह मुसलमान ही पैदा होगा। मायरा अजीज अली नाम की यह बच्ची अपने पिता फरहान अख्तर को घर में अब्बु अब्बु कहकर संबोधित करती है, पापा पापा नहीं..!


जाहिर है माथे पर तिलक और कान पर टीका लगाने वाला परेश रावल का कोच किरदार जिस तरह से अपने धर्म के प्रति समर्पण और प्रेम की बात करता है और बदले में उसकी बेटी व दोस्त उसे सेक्युलरिज्म का लेक्चर सिखाते हैं यह अपने आप में फिल्म के प्रोपेगेंडा को जाहिर कर देता है। बहुत ही सूक्ष्म तरीके से यह फिल्म हिंदुओं में आई चेतना को नसीहत देने का काम करती है तो वहीं दूसरी तरफ फरहान अख्तर जिस मुस्लिम बस्ती में रहता है उसमें तमाम जो चाचा हैं और तमाम जो दोस्त हैं उन्हें अछूता छोड़ देती है।

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