साहित्यकार कमलेश्वर का एक उपन्यास है- कितने पाकिस्तान. यह उपन्यास आजादी के बाद हुए विभाजन की त्रासदी के दर्द की अभिव्यक्ति का कथानक है. उपन्यास का शीर्षक बरबस याद आया जब पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के एक नेता शेख आलम ने बीरभूम के बासापाड़ा में कहा कि “हमारी जनसंख्या 30 फीसदी हैं और वो 70 फीसदी हैं। अगर पूरे भारत में हम 30 फीसदी लोग इकठ्ठा हो जाते है तो हम चार-चार पाकिस्तान बना सकते हैं। फिर कहां जाएंगे ये 70 फीसदी लोग?” इस बयान के बाद जब सवाल उठे तो शेख आलम ने वही किया जो ऐसे बयान देने के बाद होता है. शेख आलम ने कहा कि मेरा मतलब वो नहीं था. स्वाभाविक तौर पर उनका पहला बयान उनकी भावना का प्रकटीकरण था. स्पष्टीकरण में सिर्फ बचाव की भावना होती है.

ममता बैनर्जी की पार्टी के नेता द्वारा दिए इस इस बयान से कई निहितार्थ और कुछ सवाल उभरते हैं. बयान के मूल में है- चार-चार पाकिस्तान. की कल्पना. दरअसल यह बयान है उस सोच का जो मन ही मन कैलकुलेट करके बैठा है कि जनसंख्या के अनुपात में भारत में ‘कितने पाकिस्तान’ बन सकते है! उसके पास विभाजन का पूरा खाका है. यह सोच आजादी के पहले मुस्लिम लीग और जिन्ना की सोच से भी अधिक विभाजनकारी है. आजादी के समय बंटवारे का आधार मजहब था. इसलिए एक ख़ास समुदाय की जनसंख्या के लिए एक ख़ास मजहबी मुल्क की मांग उठी. लेकिन तृणमूल कांग्रेस के नेता शेख आलम का बयान इस नाते अधिक चिंताजनक है कि वे मजहबी विभाजन से दो कदम आगे ‘चार-चार’ हिस्सों में भारत के विभाजन की मंशा को पाल-पोष रहे हैं. यह फसल अभी बोई जा रही है. इसे काटने का मुफीद समय शायद अभी नहीं आया हो. इस बयान के पीछे छिपी सोच कितनी खतरनाक है, इसका अनुमान भी नहीं किया जा सकता. उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है कि ममता बैनर्जी ने इस विभाजनकारी सोच वाले बयान पर अपने नेता के खिलाफ कोई स्टैंड नहीं लिया है. चूँकि पश्चिम बंगाल में चुनाव चल रहे हैं तो ममता बैनर्जी को न सिर्फ बंगाल बल्कि देश के सामने इसपर स्पष्टीकरण देना चाहिए कि क्या वे ‘चार-चार पाकिस्तान’ बनाने की सोच के साथ हैं ? उनका मौन तो उनकी सहमति को ही दर्शा रहा है. इस बयान में दो सवाल भी हैं.

पहला सवाल खुद इस बयान में दर्ज है कि ‘फिर कहां जाएंगे ये 70 फीसदी लोग? वाकई ये गंभीर सवाल है. कहाँ जायेंगे ये 70 फीसदी लोग ? निश्चित ही भारत के अलावा इन 70 फीसद के लिए और कौन सी जमीन मुफीद हो सकती है ? उनके कहने का आशय साफ़ है कि उनके पास विकल्प की कमी नहीं है. पहले से एक पाकिस्तान उन्होंने बनाया ही है. इसके अलावा भी दुनिया में उनकी मजहबी भावना का संरक्षण करने वाले 56 और देश हैं. जैसा वे मानते हैं कि वे अपनी आबादी को एकजुट करके चार और पाकिस्तान बना लेंगे. लेकिन सवाल तो उन 70 फ़ीसदी के सामने है कि वे कहाँ जायेंगे ?  दुनिया के कुल क्षेत्रफल के सिर्फ 2.4 फीसद हिस्से में भारत बसा है. इसी 2.4 फीसदी क्षेत्र में ‘कथित 70 फ़ीसदी और 30 फ़ीसदी’, दोनों रहते हैं. लेकिन जब भी विभाजन की बहस होती है तो इसी 30 फ़ीसदी के खैरख्वाह होने का दावा करने वाले लोग सॉफ्ट कॉर्नर लेकर कहते हैं कि उन्होंने भारत में रहना ‘बाय च्वाइस’ चुना था. ‘बाय च्वाइस’ का नैरेटिव उनका एक ढाल भर है, जिसे वे अपने बचाव में ओढ़ लेते हैं. ‘बाय च्वाइस’ के नैरेटिव को हवा देने वाले वही लोग इसबात को छुपा जाते हैं कि जिसदिन उनकी च्वाइस बदली, वे चार नए पाकिस्तान बनने की मौन स्वीकृति भी दे देंगे. मतलब साफ़ है कि उनको भारत से नहीं बल्कि उनकी च्वाइस से लगाव है. उनकी च्वाइस में अगर भारत आड़े आता है तो वे देश बदल लेंगे.

तृणमूल कांग्रेस के नेता शेख आलम के बयान पर न सिर्फ तृणमूल बल्कि इस पूरे ‘इको-सिस्टम’ की चुप्पी उसी मौन स्वीकृति का लक्षण है. दूसरी बात, शेख आलम के इस बयान के निहितार्थ और गहराई से समझने के लिए उस बहस को खंगालना चाहिए जो नागरिकता संशोधन कानून पारित होने के बाद खड़ी हुई थी. वो पूरी बहस इसी सवाल के इर्दगिर्द है कि ये 70 फीसद कहाँ  जायेंगे.

तीन इस्लामिक देशों से प्रताड़ित होकर भारत में शरण लिए गैर-इस्लामिक लोगों के लिए भारत के अलावा भला और कौन सा विकल्प दिखता है ? पाकिस्तान में हिंदू आबादी का 23 फीसदी से घटकर 3.7 फ़ीसदी हो जाने को भी ‘बाय च्वाइस’ हुआ परिवर्तन कहेंगे क्या ? लेकिन उनको भारत में नागरिकता देने का विरोध करने वाले उसी सोच के दूत हैं, जिसमें लगभग मान लिया गया है कि ‘ये 70 फ़ीसदी जायेंगे कहाँ’.

पडोसी देशों से प्रताड़ित हिंदू, सिख, पारसी, जैन, इसाई समुदाय को भारत में नागरिकता देने का विरोध उन विचारों से आता है, जो एक तबके को तो ‘बाय च्वाइस’ कुछ भी मांगने, करने और बोलने की आजादी देता है लेकिन ’70 फीसद’ के लिए सारे दरवाजे बंद कर देने की कोशिशें करता रहता है. चूँकि यह बयान पश्चिम बंगाल से आया है इसलिए इसको चुनावी बयानबाजी मानकर अनदेखी नहीं की जानी चाहिए.

यह बयान पश्चिम बंगाल की राजनीति में आकंठ भर चुके तुष्टीकरण के जहर का एक छोटा लक्षण मात्र है. इसके परिणाम की भयावहता अकल्पनीय है. आश्चर्य है कि ऐसे बयानों के खिलाफ राजनीतिक एकजुटता नहीं दिखाई देती. तृणमूल कांग्रेस ने तुष्टीकरण की राजनीति को कम्युनिस्टों से भी अधिक हवा दी है. तुष्टीकरण की राजनीति भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता के लिए खतरा है. इससे बंगाल को संभलना होगा.

 लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो और गृहमंत्री अमित शाह की बायोग्राफी के सह-लेखक हैं.  

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