दोपहर 1:30 पर गिरी थी बाबरी की पहली दीवार
दोपहर 2:45 पर भरभरा कर गिरा था पहला गुम्बद
दोपहर 4:30 तक दूसरा गुम्बद भी जमीन पर था
शाम 5 बजे तक मिट चुका था बाबर के काले कारनामों का नामो निशान
5 दिसम्बर शाम तक अयोध्या में लगभग चार लाख कारसेवक पहुंच चुके थे। समिति के सामने समस्या थी कि इतनी बड़ी संख्या में उपस्थित कारसेवकों को क्या समझाया जाय। फिर भी कारसेवकों को सम्बोधित करते हुए नेताओं ने ‘जोश में होश न खोने’, ‘संयम बरतने’, ‘अनुशासन में रहने’, ‘मर्यादा न भंग होने’, ‘साधु-संतों के निर्देश का पालन करने’ आदि के निर्देश दिये। कारसेवा का स्वरूप पंक्तिबद्ध रूप से दोनों मुठ्ठियों में सरयू की रेत लाकर निर्माणस्थल पर डालने तक सीमित कर दिया।
6 दिसम्बर गीता जयंती
ठंडी सुबह कारसेवक सरयू में स्नान कर निर्धारित समय पर रामकथा कुंज में जुटने लगे। लगभग 10 बजे औपचारिक कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। संतों तथा आंदोलन के नेताओं ने कारसेवकों को संबोधित करना शुरू किया। इसी मध्य कुछ कारसेवक अधिग्रहीत भूमि, जिस पर कारसेवा प्रस्तावित थी, की ओर बढ़ गये। मंच संचालक ने कारसेवकों से प्रस्तावित कारसेवास्थल तुरंत खाली कर देने की अपील की। साथ ही व्यवस्था में लगे कार्यकर्ताओं को निर्देश दिया कि जो कारसेवक परिसर खाली न कर रहे हों उन्हें उठा कर बाहर कर दिया जाय।
धैर्य टूट गया कारसेवकों से बलपूर्वक कारसेवास्थल खाली कराने का प्रयास जैसे ही शुरू हुआ, उनके धैर्य का बांध टूट गया। स्वयंसेवकों को परे धकेल कर बैरीकेटिंग को लांघते हुए कारसेवकों का समूह अंदर घुस गया।
यह देख कर अन्य कारसेवक भी उस ओर दौड़ पडे और सारे वातावरण में जयश्रीराम के नारे गूंजने लगे। उनमें से कुछ कारसेवक विवादित ढ़ांचे तक भी जा पहुंचे थे। मंच पर उपस्थित नेताओं ने पहले मंच से ही स्थिति को नियंत्रित करने का प्रयास किया जिसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। ढांचे की ओर बढ़ने वाले अधिकांश कारसेवक दक्षिण भारतीय हैं, यह देख सबसे पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह (महासचिव) श्री हो वे शेषाद्रि ने कन्नड़, तमिल, तेलुगू और मलयालम में कारसेवकों से वापस आने की अपील की। इसका कोई असर न देख कर भाजपा अध्यक्ष श्री लालकृष्ण आडवाणी और सुश्री उमा भारती ने इसका प्रयास किया। यह प्रयास भी बेकार गया।
अपने प्रयास निष्फल होते देख अनेक नेता मंच से उतर कर स्वयं ढ़ांचे तक गये और कारसेवकों को निकालने का प्रयास करने लगे। इनमें श्री अशोक सिंहल और श्री आडवाणी भी थे। यद्यपि वे लोग कुछ मात्रा में कारसेवकों को बाहर भेजने में सफल हुए किन्तु उससे अधिक संख्या में लोग निरंतर ढ़ांचे की ओर बढ़ रहे थे। उस अफरा-तफरी में कोई किसी को नहीं पहचान रहा था। स्थित नियंत्रण से परे हो चुकी थी। आंदोलन के नेता ही नहीं, सुरक्षा बल भी कुछ कर सकने की स्थिति में नहीं थे।
विवादित ढ़ांचा ध्वस्त
कारसेवकों में उत्साह तो अपरिमित था किन्तु अपना मनोरथ पूरा करने के लिये उनके पास कोई औजार नहीं था। प्रारंभ में तो वे ढ़ांचे को केवल हाथों से ही पीट रहे थे और धक्का दे रहे थे। किन्तु शीघ्र ही कुछ नौजवानों ने सुरक्षा के लिये लगाये गये बैरीकेटिंग के पाइपों को निकाल लिया और उससे ढ़ांचे पर प्रहार करने लगे। दोपहर 01.30 बजे ढ़ांचे की एक दीवार को कारसेवकों ने ढ़हा दिया।
इससे उनमें नया जोश भर गया और वे और अधिक तीव्रता से प्रहार करने लगे। कारसेवकों का सैलाब वहां हर पल बढ़ रहा था।बड़ी संख्या में कारसेवक गुम्बदों पर भी चढ़ गये थे। 2.45 बजे वे पहला गुम्बद गिराने में सफल हो गये। इसने उनके जोश को दोगुना कर दिया। गुम्बद के साथ ही उस पर चढ़े बीसियों कारसेवक भी नीचे गिरे। जो कारसेवक उस गुम्बद को नीचे से गिराने की कोशिश कर रहे थे वे उसके नीचे ही दब गये।
वातावरण में गूंज रहे जोशीले नारों में आहों और कराहों के स्वर भी जुड़ गये। 4.30 बजे दूसरा गुम्बद भी धराशायी हो गया।लगभग 4.45 बजे अचानक तीव्र आवाज के साथ धूल का एक बादल उठा और आसमान में छा गया। कुछ पल के लिये लगा मानो सब कुछ ठहर गया। धूल का गुबार कम होने पर देखा कि ढ़ांचे का तीसरा गुम्बद भी नीचे आ चुका था। विवादित ढ़ांचे का नामो-निशान भी न बचा था।
इतिहास का चक्र 464 वर्षों बाद अपनी परिक्रमा पूरी कर वहीं लौट आया था।
अस्थायी मंदिर का निर्माणकारसेवकों ने विवादित स्थल को समतल करने का काम प्रारंभ कर दिया। अब यह असली कारसेवा हो रही थी जिसके लिये कारसेवक आये थे।
समतलीकरण का काम 6 दिसम्बर की सारी रात और 7 दिसम्बर के पूरे दिन चलता रहा। समतल भूमि पर ईंट, मिट्टी और गारे से एक चबूतरे का निर्माण कर उस पर रामलला को स्थापित कर दिया गया और पूजा-अर्चन प्रारंभ हो गया। 8 दिसम्बर की भोर में केन्द्र सरकार के निर्देश पर वहां सुरक्षा बलों ने पहुंच कर सब कुछ अपने नियंत्रण में ले लिया। रामलला के नवनिर्मित मंदिर की पूजा-अर्चना नियमित रूप से चलती रही।
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