स्टूडियो में , चेहरे पर भारी रंग रोगन पोत कर , टाई सूट पहन कर और तरह तरह के फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता की भाँति रंग रूप बना कर , कभी तेज़ , कभी फूहड़ और कभी बेहद उत्तेजित होकर , रोज़ाना घटती घटनाओं , खबरों को मिर्च मसाला लगा कर , झूठ और भ्रम से उसे और अधिक सनसनीखेज़ बना कर 24 घंटे उसे बोलते दिखाते रहने वाले पुरुष और महिला प्रस्तुतकर्ताओं और इनके साथ जुड़ी टीम को जनता कितनी गंभीरता से लेती है , इस बात का उदाहरण हाल ही में तब देखने को मिला जब , एक विख्यात समाचार प्रस्तुतकर्ता चित्रा त्रिपाठी को सार्वजनिक रूप से धक्का मुक्की और अपमानजनक व्यवहार का सामना करना पड़ा। बड़ी मुश्किल से वे खुद को भीड़ से बचा सकीं।
असल में इनके साथ , आम लोगों का ऐसा व्यवहार यकायक ही नहीं हो गया है बल्कि इधर कुछ वर्षों में कुकुरमुत्ते की तरह उग आए सैकड़ों टीवी समाचार चैनलों ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की हालत मछली बाजार सी कर दी है। हर तरफ एक चीख पुकार , खींच तान , भागमभाग , छीना झपटी चल रही है। अलग अलग किस्म की दुकानें और दुकानदार अलग अलग सजावट के साथ , दुःख , ख़ुशी , घटना दुर्घटना , साजिश और मौत तक को बेच रहे हैं। और इन सबके बीच ये लोग , इस मछली बाजार के ऊपर मँडराते गिद्ध की तरह हो गए है जो हर वक्त बस खबर की छीना झपटी में लगे रहते हैं उलझे रहते हैं।
गिद्धों का ये झुण्ड उस समय अपनी सक्रियता के चरम पर होता है जब किसी की मृत्यु हो जाती है। यदि मृतक को नामचीन , कोई प्रसिद्ध , कोई लोकप्रिय है तो फिर तो ये गिद्ध भोज में बदल जाता है। मृतक व्यक्ति की देह , दाह संस्कार , परिवार , उनके आँसू , दुःख दर्द सब तरह के फ्लेवर और स्टाइल वाली खबरें परोसी जाने लगती हैं। ये गिद्ध भोज जो कई बार कई कई दिनों और सप्ताह महीनों तक चलता में ये गिद्ध , मृतक या उसके परिवार ,बंधू बान्धव , समाज , के अलावा उससे जुड़ी सारी सच्ची झूठी बातों , उसके प्रेम लड़ाई जीवन सब कुछ परोस परोस कर दुनिया के सामने “मृत्यु नाच ” करते हैं , और ये इतना वीभत्स होता है कि या तो तरस आता है या घिन्न और उबकाई।
गिद्धों की बस्ती बन चुकी ,टीवी मीडिया के इस स्तर और हालातों में दिनों दिन इतना अधिक पत्तन होता जा रहा है कि , मुख्यधारा मीडिया में आज यदि सबसे अविश्वनीय कोई होकर रह गया है तो वो यही हैं , ओबी वैन , कैमरा , माइक लेकर शहर , सडकों और कस्बों में मँडराते ये गिद्ध छाप लोग (पत्रकार , खबरनवीस इन्हें किसी भी तरह से ये नहीं कहा जा सकता ) ,जो सिर्फ इस ताक में घूमते , सूँघते रहते हैं कि कब कोई सुशांत या कब कोई सिद्धार्थ उनके लिए वो सब छोड़ कर जाए जिससे अगले कुछ दिन , महीने उनकी दुकान चल सके।
सिद्धार्थ शुक्ला की मौत के बाद भी यही तमाशा , यही गिद्ध भोज चलता रहा और इसके बावजूद चलता रहा कि सिद्धार्थ के अपने बार बार हाथ जोड़ कर कहते रहे कि , उनकी निजता का , उनके दुःख का सम्मान न कर सकें तो न सही कम से कम उनका तमाशा न बनाया जाए ???
लेकिन गिद्धों में इतनी समझ ही होती तो फिर कहना ही क्या था ??
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