आज बटुकेश्वर दत के जन्मदिवस के अवसर पर आइये हम उन्हें याद करते है उन्हें श्रधांजली अर्पित करते है ?
बटुकेश्वर दत्त को इसलिए भुला दिया गया क्योंकि वे भी सावरकर की तरह आज़ादी मिलने के बाद ज़िंदा बचे रहे थे ।
राष्ट्रवादी बटुकेश्वर दत्त का जन्म बंगाल में हुआ था,उनके पिता कानपुर में रेलवे बिभाग में कार्यरत थे वहीं उनकी पढ़ाई हुई,वे कानपुर में ही “हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी” से जुड़े और भगतसिंह, राजगुरु, चन्द्रशेखर आजाद के सम्पर्क में रहे, सांडर्स हत्याकांड और असेम्बली बमकांड में वो भगत सिंह के साथ थे ।
भगतसिंह उन्हें सर्वाधिक प्रेम करते थे .. जब भगतसिंह को फाँसी दी जा रही थी तब उन्होंने अपनी माँ से कहाँ था कि ” मां मैं बटुकेश्वर दत्त के रूप में जीवित रहूंगा अब तुम बटुकेश्वर को उतना ही प्यार करना जितना मुझे करती हो “
बटुकेश्वर दत्त ने 1929 में अपने साथी भगत सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजी एसेम्बली में बम फेका, वह भगत सिंह के साथ गिरफ्तार हुए और भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव के साथ सांडर्स हत्याकांड और लाहौर षड्यंत्र में दोषी ठहराया गया ।
तकनीकी कारणों से अंग्रेज उन्हें फांसी की सजा नही दे सके तो उन्हें कालापानी में आजीवन कारावास के लिए भेज दिया गया,
सेल्यूलर जेल से 1937 में बांकीपुर केन्द्रीय कारागार पटना में लाए गए और 1938 में रिहा कर दिए गए, काला पानी से गंभीर बीमारी लेकर लौटे दत्त फिर गिरफ्तार कर लिए गए और वे वहाँ से तब छूटे जब 1947 में देश आजाद हो गया था.!
जेल से छुटने के बाद अंजलि दत से विवाह करने के बाद वे पटना में ही रहने लगे,
उन्हें ज़िंदगी की गाड़ी खींचने के लिए कभी एक सिगरेट कंपनी का एजेंट बनकर पटना की गुटखा-तंबाकू की दुकानों के इर्द-गिर्द भटकना पड़ा तो कभी बिस्कुट और डबलरोटी बनाने का काम करना पड़ा।
जिस आदमी के ऐतिहासिक क़िस्से भारत के बच्चे-बच्चे की ज़बान पर होने चाहिए थे, उसे आजाद भारत मे टूरिस्ट गाइड बनकर गुज़र-बसर करने के लिये जद्दोजहद करना पड़ता है।
पटना में अपनी बस शुरू करने के विचार से जब वे बस का परमिट लेने की ख़ातिर पटना के कमिश्नर से मिलते हैं तो कमिश्नर उनसे उनके बटुकेश्वर दत्त होने का प्रमाण मांगता है,
बटुकेश्वर दत्त इससे बड़े आहत होते हुए,तथा उसके बाद कभी किसी अधिकारी से नही मिले ।
जब यह बात देश के राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद को पता चला तो उन्होंने व्यक्तिगत रूप से इस पर खेद जताया, बटुकेश्वर दत्त को राजेंद्र प्रसाद जी के आग्रह पर बिहार विधानपरिषद के लिए चुना गया लेकिन वहां भी वे ज्यादा दिन नही रह सके क्योंकि कांग्रेस पार्टी लगातार उनका बिरोध करती रही।
भला हो उनकी पत्नी की नौकरी का जिसकी वजह से गाड़ी का कम से कम एक पहिया तो घूमता रहा, 1964 में बटुकेश्वर दत्त के बीमार होने पर उन्हें पटना के सरकारी अस्पताल ले जाया जाता है जहां उन्हें बिस्तर तक नहीं नसीब होता है, इस पर उनके मित्र और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चमनलाल आज़ाद एक अख़बार के लिए गुस्से भरा लेख लिखते हैं कि हिंदुस्तान इस क़ाबिल ही नहीं है कि यहां कोई क्रांतिकारी जन्म ले, परमात्मा ने बटुकेश्वर दत्त जैसे वीर को भारत में पैदा करके बड़ी भूल की है, जिस आज़ाद भारत के लिए उसने अपनी पूरी ज़िंदगी लगा दी, उसी आज़ाद भारत में उसे ज़िंदा रहने के लिए इतनी जद्दोजहद करनी पड़ रही है ।
अंतत: हालत बिगड़ने पर 22 नवंबर, 1964 को उन्हें दिल्ली सफदरजंग हॉस्पिटल लाया गया, यहां दत्त ने पत्रकारों से कहा कि मैंने सपने में ही नहीं सोचा था कि जिस दिल्ली में मैंने बम फेंक कर इंक़लाब ज़िंदाबाद की हुंकार भरी थी वहीं मैं अपाहिज की तरह लाया जाऊंगा ।
जब यह बात भगतसिंह की माता जी को पता चली तो वे पंजाब से भागी हुई आई और उन्हें अपने साथ ले गई व उनके लिए पाई पाई चंदा इकठ्ठा किया क्योंकि उनके पास भी धन नही था … भगत सिंह की माता ने बटुकेश्वर दत्त की बहुत सेवा की वे जब तक जिए तब तक वो उनके बिस्तर के पास बैठी रही।
जब बटुकेश्वर दत्त की मृत्यु हो गई तो उन्हें उनके मित्र भगत सिंह, राजगुरु ,सुखदेव के पास ही उन्हें भी दफनाया गया, क्योंकि यही उनकी इच्छा थी कि वे अपने मित्रों से मिल जाए … बाद के दिनों में भगतसिंह की माता ने उनकी बेटी की शादी करवाई ।
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