भारतीय राजनीति में दो-तीन लोग आंत्रप्रेन्योर की तरह माने जाएंगे जिनमें नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल प्रमुख हैं। ममता बनर्जी, नवीन पटनायक नीतीश कुमार , चंद्रबाबू नायडू, सी चंद्र शेखर राव आदि उसी श्रृंखला की कुछ नई कड़ियां है।
मोदी के कुछ कालजयी निर्णयों में नोट बंदी , कोरोना काल में लॉक डाउन और वर्तमान के दो सालों में किसान आंदोलन के प्रति उनकी विवादित तटस्थता आदि कुछ चुभने वालों निर्णय में से एक रहे हैं।
नोटबंदी का पश्चात प्रभाव बेरोजगारी का उन्नयन काल रहा।
जब भारत में बिटकॉइन जैसी अवैध मुद्रा देश की अर्थव्यवस्था को कानूनी रूप से नुकसान पहुंचा रही हो और पूरी अर्थव्यवस्था मात्र काले धन के बदौलत चल रही हो उस देश की नोटबंदी देश का कितना भला कर पाएगी , ये नोटबंदी के पुरोधा हीं बता सकेंगे। कोरोना कालखंड में किया गया लॉकडाउन के दौरान भी लाखों लोगों की नौकरियां जाती रही और लॉकडाउन के प्रणेता टेलिविजन पर घर पर निठल्ले बैठने का फायदा गिनाते रहे। आखिर में किसानों के लिए बनाए गए तीन कृषि कानून ने यह साबित कर दिया कि इस सरकार के पास दृष्टि तो दूरदर्शिता वाली है परंतु उसके कदम हमेशा अदूरदर्शिता के शिकार रहे हैं।
सरकारी मंडियों और आढ़तियों के कब्जे से किसान की फसल को अनिवार्य बिक्री से आजाद करने की मृग मरीचिका दिखने तो सुंदर रही परंतु पूँजीपतियों को इससे बहुत फायदा होने वाला है, सरकार इस तथ्य को उजागर करने से हमेशा बचती रही पर सरकार विरोधी कुनवा प्रचारित और प्रसारित करने में सफल रहा। वजह रही ये कि कृषि कानूनों का स्पष्टीकरण हमेशा कृषि मंत्री के अतिरिक्त कोई न कोई देता रहा। सरकार ने अपने फेसबुक के समर्थकों के माध्यम से कृषि कानून का बहुत बचाव किया परंतु प्रत्यक्ष में प्रधानमंत्री और उनकी सरकार का व्यवहार किसानों के लिए सौतेला ही दिखा।
ऐसी हीं बेरुखी शाहीन बाग वाली घटना में भी हुई परंतु कोरोना ने सरकार की मुश्किल आसान कर दी। और शाहीन बाग के कारण उपजा असंतोष AAP को थोड़ी और सीट दिला गया और भाजपा का कद दिल्ली विधानसभा में थोड़ा और दरक गया।
क्षेत्रीय क्षत्रपों के राह खिलाफ भाजपा शून्य साबित हुई ।
आखिरी वक्त में जब भारतीय जनमानस कृषि कानूनों के विरोध में होने वाले आंदोलनों से लगभग विरक्त हो गया था और वामपंथी चिंतक दिल्ली की सीमाओं से हटकर अपने वातानुकूलित ड्राइंग रूम में ही चिंतन मनन करने लगे थे और टिकेट की टांग दिल्ली की सीमा से हटकर up के राजनैतिक गलियारों में फैला लगे थे उस समय प्रधानमंत्री ने इन तीनों कृषि कानूनों को वापस लेकर एक ऐसा अदूरदर्शिता पूर्ण कदम उठाया है जिसका पश्चात प्रभाव रोकना उनके बस में भी नहीं है।
क्योंकि संसद में पारित कानून अगर सड़क की जमा भीड़ नेस्तनाबूद कर दे तो उस प्रजातंत्र का तो संविधान भी मालिक नहीं है।
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