लेखक या लेखिका एक बेलगाम परिंदे जैसे होते हैं जो भावनाओं , विचारों और परिस्थितियों के आकाश में अपनी अपने ताकतवर डैनों से घटनाओं की हवाओं को चीर कर उड़ान भरते हैं और
द एनाटॉमी ऑफ़ हेट, श्रीमती रेवती लाउल के द्वारा लिखी गई एक पुस्तक है जो 2018 में लिखी गई थी । अब हुआ यूँ कि लाल रंग को सिर्फ तमस , पर्जानिया, फिराक जैसी फिल्मों की आदत है जिसमें आमतौर पर हिंदू थोड़े उग्र स्वभाव का और मुसलमान उदात्त चरित्र के दिखाए गए । वामपंथ को सनातन के इस संतोषी प्रवृत्ति से चिढ़ है क्योंकि वामपंथ का चूल्हा असंतोष के दम पर ही जलता है और सनातन से इस्लाम इसीलिए चिढ़ा क्योंकि सनातन के कुनवे में इस्लाम को रिक्रूटमेंट की पूरी छूट है जबकि ईसाइयत, यहूदी या पारसी धर्मों में उसकी पैठ वैसी नहीं बन पाती ।
अब दुश्मन का दुश्मन दोस्त, इसीलिए वामपंथी विचारधारा कम से कम भारत में इस्लाम के समर्थन में हीं दिखती है । परंतु जैसे हीं कश्मीर फाइल्स खुली कई चेहरों की कलई उखड़ गई। समस्या ये हुई कि विश्व प्रसिद्ध शांतिप्रिय समुदाय कश्मीरी हिंदुओं को पीड़ित करने में लगा हुआ दिखा।
यह बात वामपंथी विचारकों और उनके समर्थक टीवी चैनल एंकरों को पसंद नहीं आई और उन्होंने खंगालना शुरू किया । कल प्राइम टाइम में मेरे प्रिय न्यूज़ एंकर रवीश कुमार ने श्रीमती रेवती लाउल की किताब द एनाटोमी ऑफ हेट का जिक्र किया और उनके इंटरव्यू का भी जिक्र किया। श्रीमती रेवती के यूट्यूब वीडियो उपलब्ध हैं । मेरा भी ये मानना है कि अगर सामान्य जनों की हत्या होती है तो वह निंदनीय है हत्या चाहे मुस्लिम हो या हिंदू की हो, अपराधी को दंड अवश्य मिले।
परंतु वर्तमान भारतीय परिप्रेक्ष्य में हिंदुओं की हत्या तो शायद गंगा जमुनी तहजीब के पानी को साफ करने के लिए डाला गया ब्लीचिंग पाउडर है। शायद हिंदुओं की हत्या पर अघोषित मौन रखकर धर्मनिरपेक्ष धड़े को गंगा जमुनी तहजीब का जल स्तर उठाने में मजा आता है परंतु जैसे ही इस जमुनी तहजीब की केंचुल उतरने लगती है ये धर्मनिरपेक्षता तिलमिला उठती है। निश्चित रूप से गुजरात के दंगे दुर्भाग्यपूर्ण थे और इन दंगों के प्रेरक, उत्प्रेरक , समर्थक और कर्णधार दंड के भागी होने चाहिए पर गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस के डिब्बों में जलाए गए निरपराध हिंदुओं की लाशें भी तो थोड़ी सहानुभूति के पात्र हैं ।
परंतु तत्कालीन धर्मनिरपेक्षों में वीर संघवी को छोड़कर किसी ने भी इस घटना की निंदा करने की जहमत नहीं उठाई।
हिंदू लाशें तो आजकल धर्मनिरपेक्षता के यज्ञ में समिधा बन चुकी हैं। खैर श्रीमती रेवती का यह लेखन का निश्चित रूप से बेहतरीन होगा और इसमें सांप्रदायिक बर्बरता की चर्चा जोर शोर से उठी होगी। 2002 ईस्वी के दंगे का जिक्र 2018 में उठाना कोई अनुचित काम तो नहीं है परंतु कश्मीर में हिंदुओं के पलायन, हिंदू महिलाओं के साथ बलात यौन दुर्व्यवहार और आज तक उनके पुनर्वास की कोशिश ना होने को क्या किसी मीडिया हाउस ने ठीक से उठाया था?
द कश्मीर फाइल्स के दृश्यों में किसी भी एक्टर ने बहुत अच्छी एक्टिंग नहीं की है परंतु चूँकि राख की ढेर से एक चिंगारी बाहर निकल कर आई है जो जल्द ही विचारों का शोला बन गई। इसीलिए यह फिल्म उसी प्रकार भारतीय सिने प्रेमियों को अच्छी लगी जैसे कादंबिनी, नवनीत, धर्मयुग, सारिका आदि पत्रिकाओं के बीच में सिर्फ सच को इंगित करने के कारण नूतन कहानियां और मनोहर कहानियां भी चर्चित हुई थी।
मेरा काम लेखिका के वैचारिक पंख को कतरना कदापि नहीं है परंतु इस पुस्तक के मुख पृष्ठ पर अंकित चित्र पक्षपात पूर्ण दिखता है। एक हाथ में तलवार और कलाई पर बंधा हुआ रक्षा सूत्र या कलावा उस हाथ को किसी हिंदुत्ववादी का हाथ घोषित कर रहा है। सारे धर्मनिरपेक्ष विचारक यही कहते हैं कि आतंक का कोई रंग नहीं होता , आतंक का कोई मजहब नहीं होता फिर इस अनजान हाथ में यह कलावा और तलवार क्यों ?
क्या सिर्फ यह साबित करने के लिए के सारे दंगाई हिंदुत्ववादी हैं और सारे पीड़ित इस्लाम समर्थक?
इस टुच्चे विचार को आरोपित करने की कोशिश की वजह से मैं इस लेखिका का पुरजोर विरोध करता हूंँ वरना मेरा मानना अब भी यही है कि साबरमती एक्सप्रेस के डब्बे जलाने वाले भी कमीने थे और गुजरात के दंगे में घर जलाने वाले भी।
गणित की किताबों में ऐकिक नियम सिखाते समय एक सवाल बहुत ही सामान्य है कि अगर किसी काम को एक पुरुष 10 दिन में एक महिला 15 दिन में और एक बच्चा 20 दिन में पूरा कर सकता है तो यदि एक महिला एक पुरुष और एक बच्चा मिलकर उसी काम को करें तो वह काम कितने दिनों में समाप्त हो जाएगा?
जाहिर सी बात है कि इस प्रश्न में गणित का एक बहुत ही मूलभूत सिद्धांत निहित है और सामान्य दृष्टि से इसमें कोई भी बुराई नहीं दिखती है।
परंतु अगर आप ध्यान से देखें तो यह सवाल एक बात आपके दिमाग में बहुत ही शातिरपने के साथ बिठा देता है कि एक पुरुष एक महिला से ज्यादा सामर्थ्यवान होता है।
श्रीमती रेवती लाउल की किताब द एनाटॉमी ऑफ़ हेट का मुखपृष्ठ भी जाने अनजाने आपके या सामान्य पाठकों के दिल में यह बात बिठा देता है कि दंगाई तो हिंदू ही थे। यानी घृणा के इस अस्थि विन्यास में सारी हड्डियां तो हिंदुओं की ही लगी है।
और एक बात सनातन की खूबसूरती आपको दिखाएगी कि दोनों पहलू आपके सामने रखने वाले लोग सिर्फ सनातन में मिलेंगे। इस्लाम, ईसाइयत, यहूदी या पारसी संप्रदायों में ऐसे विचार उसी तरह गायब रहते हैं जैसे गधे के सिर से सींग।
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