लेखक- बलबीर पुंज
गत दिनों भारत दो सकारात्मक घटनाओं का साक्षी बना। इसमें पहला— दिल्ली स्थित ऐतिहासिक ‘राजपथ’ का नाम ‘कर्तव्यपथ’ करना, तो दूसरा— भारतीय नौसेना के देशज झंडे का अनावरण है। सच तो यह है कि इन दोनों को केवल मात्र परिवर्तन की संज्ञा से नहीं बांधा जा सकता। वास्तव में, यह उस सभ्यतागत-सांस्कृतिक संघर्ष का हिस्सा है, जिसमें बीते आठ वर्षों से मार्क्स-मैकॉले मानसबंधुओं, पराधीन मानसिकता के शिकार असंख्य लोगों और विभाजनकारी मानसिकता (जिहाद-इंजीलवाद सहित) के खिलाफ युद्ध लड़ा जा रहा है।
जब 8 सितंबर को सेंट्रल विस्टा परियोजना के अंतर्गत, एक हिस्से के नवीनीकरण के बाद ‘राजपथ’ का नाम ‘कर्तव्यपथ’ किया गया, तब समाज के एक वर्ग ने विकृत तथ्यों के आधार पर नैरेटिव (विमर्श) बनाने का प्रयास किया कि इसके माध्यम से प्रधानमंत्री मोदी, नागरिकों के प्रति सरकार को उत्तरदायित्व से मुक्त कर रहे है। क्या ऐसा है? वास्तव में, कोई भी व्यवस्था तभी सुचारू ढंग से काम कर सकती है, जब उसके सभी घटक अपने कर्तव्यों का पालन करें। लोकतंत्र में सरकार और जनता को बांटने वाली रेखा बहुत धुंधली और अस्थिर होती है। जो आज सत्तारुढ़ है, वह कल साधारणजन बन सकते है। इसमें ‘फर्श से अर्श’ और ‘अर्श से फर्श’ की यात्रा अधिक लंबी नहीं होती। व्यवस्था को ठीक से चलाने के लिए यह आवश्यक है कि सरकार में बैठे लोग और जनता अपने-अपने कर्तव्य का निर्वाहन ठीक से करें।
अनादिकालीन भारतीय परंपरा में भी कर्तव्य अर्थात् ‘धर्म’ पर अधिक बल दिया गया है, क्योंकि इसके अनुसरण में ही दूसरों के अधिकार निहित है। उदाहरणस्वरूप, यदि शिक्षक अपना ‘धर्म’ निष्ठा से निभाए, तो छात्र अधिकार सुरक्षित रहेंगे। हाल के वर्षों में मोदी सरकार ने अंतरराष्ट्रीय मानकों के साथ राजमार्गों का निर्माण किया है, तो स्वच्छता अभियान छेड़ा है। अब यदि नागरिक सड़कों पर निर्धारित दिशा के उलट वाहन चलाए और कूड़ेदानों के बजाय कचरा बाहर फेंके (जोकि अक्सर होता भी है), तो क्या उससे अन्य लोगों के अधिकार सुरक्षित रहेंगे? संक्षेप में कहे, तो कर्तव्य और अधिकार एक सिक्के के दो पहलु है।
संविधान में निहित एक नागरिक कर्तव्य के अनुसार, “स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे।” यह दुखद है कि वैचारिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत कारणों से स्वाधीनता संग्राम में शामिल कई लोगों/संगठनों को इतिहास में गौण या फिर उनका दानवीकरण कर दिया गया है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस, वीर सावरकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसका दंश सर्वाधिक झेला है। राजपथ के नए नामकरण के अवसर पर इंडिया गेट पर पांच दशकों से रिक्त कैनोपी (छत्र) में नेताजी की 28 फीट लंबी और 65 टन वजनी ग्रेनाइट प्रतिमा का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा उद्घाटन करना और कुछ माह पहले प्रधानमंत्री संग्रहालय का निर्माण— इस दिशा में भूल-सुधार का बड़ा प्रयास है।
इससे पहले कोच्चि में प्रधानमंत्री मोदी ने पहले स्वदेशी विमानवाहक पोत ‘आईएनएस विक्रांत’ के साथ भारतीय नौसेना के नए प्रतीक-चिन्ह का भी अनावरण किया था। जिस अष्टकोण रूपी नीले प्रतीक ने नौसेना के झंडे पर ब्रितानियों के पुराने मजहबी प्रतीक सेंट जॉर्ज क्रॉस का स्थान लिया है, उसका मुख्य स्रोत वीर शिरोमणि छत्रपति शिवाजी महाराज की नौसेना का प्रतीक-चिह्न है। यदि वर्तमान भारत, जहां लोकतंत्र, बहुलतावाद और पंथनिरपेक्षता अब भी अक्षुण्ण है, तो वह शिवाजी के साथ असंख्य जाट-राजपूतों, साधु-संतों, सिख गुरु परंपरा और असंख्य वीर सेनानियों— मंगल पांडे, रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, नाना साहिब, वीर सावरकर, गांधीजी, नेताजी, भगत सिंह, डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, सरदार पटेल, पं.नेहरू, रासबिहारी बोस, डॉ.अंबेडकर, डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी आदि के त्याग-समर्पण के कारण ही संभव हुआ है।
जिस प्रकार समाज का एक वर्ग अपने वास्तविक नायकों और अपनी सांस्कृतिक पहचान के प्रति हीन-भावना का शिकार है, वह स्वतंत्र भारत के उस वर्तमान नैरेटिव की देन है, जिसे ब्रितानियों ने अपने शासन को देश में शाश्वत बनाने हेतु जन्म दिया था। जब ब्रितानी भारत आए, तो यहां भारतीयों का एक वर्ग इस्लामी शासन की शारीरिक गुलामी से जकड़ा हुआ था, परंतु वे मुस्लिम आक्रांताओं को मानसिक रूप से स्वयं पर हावी नहीं होने देते थे। पराधीन रहते हुए भी उन्हें अपने स्वाभिमान और मौलिक पहचान पर गर्व था। चूंकि कुटिल आक्रमणकारी ब्रितानी अपना साम्राज्य चिरंजीवी बनाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने चर्च की ‘व्हाइट मैन बर्डन’ मानसिकता से ग्रसित होकर शारीरिक गुलामी से जकड़े भारतीयों को बौद्धिक रूप से पंगु बनाने की योजना पर काम प्रारंभ किया। इसके लिए उन्होंने झूठे ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत’ सहित कई नैरेटिव को गढ़ा।
अंग्रेजों के भारत छोड़ने के बाद इन दूषित नैरेटिव में सुधार होना चाहिए थे। किंतु ऐसा नहीं हुआ। वैचारिक कारणों से भारत-हिंदू विरोधी वामपंथियों ने इस चिंतन को अपने एजेंडे के अनुकूल मानते हुए तत्कालीन भारतीय नेतृत्व, जो सोवियत संघ के वाम-समाजवाद से प्रभावित था- उसके आशीर्वाद से आगे बढ़ाया। यह उसी नैरेटिव का ही चमत्कार है कि जिन इस्लामी आक्रांताओं और उसके मानसबंधुओं ने भारत की सनातन संस्कृति को मिटाने का असफल प्रयास किया, उन्हें खंडित भारत में ‘नायक’ का दर्जा दे दिया गया। यह स्थिति तब है, जब भारत-हिंदू विरोधी चिंतन का मूर्त रूप पाकिस्तान भी उन लोगों को अपना प्रेरणास्रोत मानता है।
उपरोक्त परिवर्तन उसी सकारात्मक परंपरा का हिस्सा है, जिसमें गत वर्षों में काशी विश्वनाथ धाम का 350 वर्ष पश्चात विस्तारीकरण-पुनरोद्धार, न्यायिक निर्णय के बाद अयोध्या में भव्य राम मंदिर का पुनर्निर्माण, धारा 370-35ए का संवैधानिक क्षरण, प्रत्येकवर्ष 26 दिसंबर को वीर बाल दिवस मनाने की घोषणा आदि शामिल है। इस सभ्यतागत-सांस्कृतिक युद्ध में देश को न केवल मार्क्स-मैकॉले मानसबंधुओं, जिहादियों, वामपंथियों से सजग रहना होगा, साथ ही उन विदेशी वित्तपोषित और चर्च प्रेरित स्वयंसेवी संगठनों (एनजीओ) से भी सचेत रहना होना होगा, जो राष्ट्रहित परियोजनाओं (सामरिक सहित) को विदेशी आकाओं से निर्देश पर बाधित करके भारत को कमजोर करके उसे फिर से तोड़ना चाहते है। हमारे कर्तव्यबोध पर ही इस युद्ध का निर्णय निर्भर है।
*लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।*
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