लेखक – बलबीर पुंज
इंग्लैंड-वेल्स इन दिनों भीषण विरोधाभास से जूझ रहा है। शताब्दियों से इस यूरोपीय देश की शासकीय व्यवस्था के केंद्र में ईसाई मत है, परंतु उनकी नवीनतम जनगणना में ईसाई अनुयायी ही अल्पमत में आ गए है। यह स्थिति तब है, जब ‘चर्च ऑफ इंग्लैंड’, जिसका संरक्षक ब्रिटिश राजघराना है— उसके कुल 42 में से 26 बिशप-आर्कबिशपों का स्थान ब्रितानी संसद के उच्च सदन ‘हाउस ऑफ लार्ड्स’ में आरक्षित है। चर्च के प्रधान पादरी ‘कैंटरबरी के आर्कबिशप’ वरिष्ठता-क्रम में ब्रितानी प्रधानमंत्री से ऊपर हैं। अब एक ऐसा शासन, जिसमें ब्रिटेन की नीति निर्धारण में चर्च की भूमिका है और राजकीय वित्तपोषण से चर्च प्रेरित शिक्षण संस्थानों में दस लाख बच्चे पढ़ते है— वहां ईसाई अल्पसंख्यक कैसे हो गए?
वर्ष 2021 में हुई ब्रितानी जनगणना की रिपोर्ट गत दिनों सार्वजनिक हुई। इसमें अपने मजहब की जानकारी देना स्वैच्छिक था, लगभग छह करोड़ में से 94 प्रतिशत लोगों ने उत्तर दिया। ‘ऑफिस फॉर नेशनल स्टैटिस्टिक्स’ के अनुसार, इंग्लैंड-वेल्स की कुल जनसंख्या में पहली बार आधी से भी कम आबादी— 46.2 प्रतिशत ने स्वयं को ईसाई बताया है, जो वर्ष 2011 की तुलना में 13 प्रतिशत कम है। यदि वर्ष 2001 को आधार बनाए, तो इंग्लैंड-वेल्स में ईसाई 26 प्रतिशत तक घट गए है। सर्वेक्षण के अनुसार, यहां कोई ‘मजहब नहीं मानने वालों’ (नास्तिक) की संख्या में एकाएक बढ़ोतरी हुई है, जो अब यहां का दूसरा बड़ा समूह बन गया है। इनकी वर्तमान संख्या 37.2 प्रतिशत है, जो 2011 के जनगणना में 25.2 प्रतिशत थी। वेल्स में ईसाइयों की संख्या सर्वाधिक— 14 प्रतिशत घटी है, तो लगभग उतनी ही संख्या नास्तिकों की बढ़ी है। इसके अतिरिक्त, यहां लगभग 10 लाख लोगों ने स्वयं को हिंदू बताया है, जो पिछली जनगणना की तुलना में पौने दो लाख अधिक है। वही 39 लाख ने स्वयं को मुस्लिम बताया है, जो 2011 की तुलना में 12 लाख अधिक है— अर्थात् 44 प्रतिशत की वद्धि।
यूरोप— मजहबी क्रूसयुद्ध (1095-1291) के दौर से ईसाई बाहुल्य रहा है। ऐसा नहीं है कि अकेले इंग्लैंड-वेल्स में ईसाइयों की जनसंख्या घट रही है। 1961 में आयरलैंड में ईसाइयों की आबादी 94 प्रतिशत थी, जो 2016 में घटकर 78 प्रतिशत हो गई। फ्रांस में ईसाइयों की संख्या 1986 में 81 प्रतिशत थी, जो 2020 में घटकर 50 प्रतिशत से नीचे हो गई। इसी तरह अमेरिका में ईसाई 1970 के दशक में 90 प्रतिशत से अधिक थे, जो 2020 में घटकर 64 प्रतिशत पर पहुंच गए। कनाडा में 2001 से अबतक 24 प्रतिशत ईसाई कम हो गए। यह संकट कितना गहरा है, इसका अनुमान कनाडाई प्रांत क्यूबेक से लगाया जा सकता है, जहां चर्च में प्रार्थना करने वालों की ईसाइयों की संख्या कुछ दशकों में 95 प्रतिशत से घटकर 5 प्रतिशत हो गई, जिस कारण लगभग 500 चर्च या तो बंद हो गए है या फिर उन्हें किसी गैर-मजहबी उपयोग हेतु भवन में परिवर्तित कर दिया गया है। क्यूबेक वही क्षेत्र है, जहां जुलाई 2022 में वेटिकन सिटी प्रमुख और रोमन कैथोलिक चर्च के सर्वोच्च बिशप पोप फ्रांसिस ने पहुंचकर चर्च के दुराचारों के लिए माफी मांगी थी।
आखिर चर्च में बढ़ते अविश्वास का कारण क्या है? क्यों यीशु में आस्था रखने वाले या तो नास्तिक बन रहे है या फिर अन्य मजहबी को अंगीकार कर रहे है? चर्च के प्रति ईसाइयों की निष्ठा घटने के कई कारण है। शिक्षा के प्रचार के कारण, विशेषकर इंटरनेट और अब सोशल मीडिया के दौर में प्रामाणिक जानकारी और सूचनाएं आमजन तक सहज रूप से उपलब्ध है। इससे लोगों में तर्काधार सोचने की प्रवृति बढ़ी है। वही आधुनिकता के नाम पर अंधाधुंध उपभोक्तावाद-भौतिकवाद भी यूरोप में आध्यात्म की गुंजाइश को क्षीण कर रहा है।
यह चर्च पर दोहरी मार पड़ने जैसा है। एक ओर, साधारण अनुयायी जब पवित्रग्रंथ बाइबल और चर्च द्वारा बताए गए दिशानिर्देश को तार्किक कसौटी पर कसते है, तो उन्हें निराशा ही हाथ लगती है— उसके विश्वास का ह्रास होता है। दूसरी तरफ, पिछले कुछ वर्षों में श्रद्धालुओं के मन में चर्च के प्रति वितृष्णा उन कुकर्मों के कारण बढ़ गई है, जिसमें मजहब की आड़ में उसने अमानवीय शोषण का घिनौना व्यापार किया था। दशकों तक पर्दे में रहे इन पापों की जानकारी, सूचना क्रांति के कारण अब जनमानस को उपलब्ध है। कथनी-करनी में अंतर और चर्च के काले अतीत से भी ईसाइयों का चर्च से मोहभंग हो रहा है। अक्टूबर 2021 में फ्रांसीसी चर्चों में दो तिहाई पादरियों द्वारा 3,30,000 बच्चों के यौन शोषण का खुलासा हुआ था, जिसे पोप फ्रांसिस ने ‘शर्मनाक’ बताया। इस प्रकार के असंख्य मामले ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, अमेरिका आयरलैंड आदि ईसाई बहुल देशों में सामने आ चुके है।
बात केवल यही तक भी सीमित नहीं है। ईसाइयत के प्रचार-प्रसार हेतु मध्यकाल में गोवा, स्पेन, पुर्तगाल, मैक्सिको और पेरू में ‘इंक्विजीशन’ करने, असंख्य महिलाओं को ‘चुड़ैल’ बताकर जीवित जलाने और यहूदियों आदि गैर-ईसाइयों की हत्याओं आदि को लेकर चर्च का कलंकित इतिहास है। 18-19वीं शताब्दी में मतांतरण हेतु कनाडा में चर्च ने ‘इंडिजेनस रेजिडेंशियल स्कूल’ (1876-1996) की स्थापना की, जिसमें स्थानीय बच्चे में ‘इंडियन को मारना’ अर्थात्— उन्हें उनकी मूल संस्कृति से काटकर ईसाई बनाया गया। इस प्रक्रिया में असंख्य मासूमों ने दम तक तोड़ दिया। वर्ष 2021 के मई-जून में दो पूर्व आईआरएस में खुदाई के दौरान एक हजार से अधिक नरकंकाल निकले थे, जो चर्च की हृदय-विदारक यातनाओं का प्रमाण है। इस प्रकार का मजहबी दमन ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और बोलिविया भी झेल हो चुके है।
वास्तव में, आनंद-संतुष्टि की अनुभूति प्रत्येक व्यक्ति के सुखी जीवन का आधार है। इसमें ईश्वरीय अवधारणा निर्णायक भूमिका निभाता है। ईश्वर को हम मजहबों के संकीर्ण दर्शन और रुढ़िवाद से नहीं बांध सकते। किसी भी आध्यात्मिक व्यवस्था में व्यक्ति को अपने चिंतन और बौद्धिकता के अनुरूप, ईश्वर तक पहुंचने और उसकी स्वैच्छिक उपासना करने का अधिकार होना चाहिए। जो मजहब इस सत्य को नहीं पहचानेंगे, वह स्वाभाविक रूप से बदलते समय में आप्रासंगिक और कालातीत हो जाएंगे। यूरोप में ईसाइयत के साथ यही हो रहा है।
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।
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