सर्वप्रथम आप सभी पाठकों को राष्ट्रऋषि स्वामी विवेकानंद जी की जन्मजयंती एवं राष्ट्रीय युवा दिवस की शुभकामनाएं।
स्वामी विवेकानंद जी के जीवन को शब्दों में नही बांधा जा सकता, उनके बारे में कुछ भी लिखना सूर्य को दीपक दिखाने जैसा है, लेकिन आज उनकी जन्मजयंती के अवसर पर ये छोटा सा दीपक समर्पित कर रहा हूँ।

वीरेश्वर, नरेन्द्रनाथ दत्त या स्वामी विवेकानंद ये सब उन्हीं महान व्यक्तित्व के नाम है जिन्होंने इस राष्ट्र की सुषुप्त हो चुकी शिराओं में नवप्राण ऊर्जायुक्त रक्त का संचार किया था और वो रक्त इतने वर्षों के पश्चात भी अबाध रूप से इस राष्ट्र की शिराओं में बह रहा है।
जब देश में सांस्कृतिक पुनर्जागरण की लहर चल रही थी, स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष किए जा रहे थे, गुलामी का दर्द असहनीय हो रहा था, भारतीयों की योग्यता का उपहास किया जा रहा था तब स्वामी विवेकानंद जी ने महसूस किया इस राष्ट्र की शक्ति को, महसूस किया इस राष्ट्र की अंतर्मन चेतना को और महसूस किया इस राष्ट्र की छुपी हुई आध्यात्मिक ऊर्जा को।
इन सब बातों को महसूस करके जब स्वामी विवेकानंद जी 1892 में भारत भ्रमण पर थे तब उन्होंने देखा कि ब्रिटिश शासन की शोषक नीतियों से इस देश की स्थिति दयनीय हो चुकी थी और इस दयनीयता से मुक्त होने का एक ही तरीका था – भारत को स्वयं की आध्यात्मिक ऊर्जा को पुनः प्राप्त करना।
यही कारण था कि जब स्वामी विवेकानंद जी 1893 के शिकागो धर्म सम्मेलन से वापिस स्वदेश लौटे तो उन्होंने भारत का आह्वान करते हुए कहा, “भारत जागो! विश्व जगाओ!!”

महान क्रांतिकारी हेमचन्द्र घोष ने स्वामी पूर्णात्मानंद को बताया कि “भगिनी निवेदिता हमें बताया करतीं थीं: “भारत के प्रति स्वामीजी के मन में सर्वाधिक उत्कंठा थी। मानो भारत का ही विचार करने की एक धुन उन पर सवार थी। उनके हृदय में भारत ही धड़कता था। भारत उनकी रगों में दौड़ता था। …इतना ही नहीं। वे स्वयं भी भारत से एकाकार हो गए थे। वे मनुष्य के रूप में भारत का ही अवतार थे। वे भारत ही थे। वे भारत थे – उसकी आध्यात्मिकता, उसकी पवित्रता, उसकी बुद्धि, उसकी शक्ति, उसकी दृष्टि और उसके भाग्य के प्रतीक।”

स्वतंत्रता संग्राम में शामिल विभिन्न क्षेत्रों के नेता स्वामी विवेकानंद जी से अत्यधिक प्रभावित थे। स्वामीजी का प्रभाव इतना अधिक था कि उन नेताओं को भारत के लिए जीने और मरने की प्रेरणा प्राप्त हुई।
1897 में स्वामी विवेकानंद जी ने कहाः “अगले 50 वर्षों के लिए हमारा एक ही ध्येय होना चाहिए – हमारी महान भारत माता।”और ठीक पचास वर्ष बाद भारत को स्वतंत्रता मिल गई।

सिर्फ स्वतंत्रता संग्राम में ही नही अपितु जीवन के हर एक क्षेत्र में स्वामीजी ने आध्यात्मिक ऊर्जा को ही व्यक्ति की मुख्य शक्ति माना है। स्वामीजी के अनुसार भारत का राष्ट्रवाद ‘आध्यात्मिकता और सनातन धर्म’ ही है, जहाँ मनुष्य को संभावित दिव्य स्वरूप से युक्त माना जाता है।
स्वामीजी मानते थे कि कोई भी देश सिर्फ समृद्धता के आधार पर विकसित नही कहलाता अपितु यदि उसमें आध्यात्मिकता का अभाव है तो वह बिखरकर नष्ट हो जाएगा। मानवता के कल्याण के लिए वे एक शक्तिशाली और जागृत भारत का निर्माण करना चाहते थे।

सभी समकालीन स्रोतों से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत में राष्ट्रीय बोध जागृत करने में स्वामी विवेकानंद का प्रभाव सबसे शक्तिशाली था। प्राचीन इतिहास यह दर्शाता है कि, भारत में धार्मिक आन्दोलनों ने सदैव राष्ट्रीय पुनर्जागरण का नेतृत्व किया है। भारत में हिंदुत्व के पुनरुद्धार के बिना कोई राष्ट्रीय आंदोलन संभव नहीं था। स्वामी विवेकानंद ने ठीक यही किया, उन्होंने हिंदुत्व का पुनरुद्धार किया।

उन्होंने कहा,
“प्रत्येक राष्ट्र के जीवन की एक मुख्य-धारा होती है; भारत में धर्म ही वह धारा है। इसे शक्तिशाली बनाइए और दोनों ओर का जल स्वतः ही इसके साथ प्रवाहित होने लगेगा।” (खंड IV 372)

स्वामी विवेकानंद जी ने इस राष्ट्र के नागरिकों की सुषुप्त आध्यात्मिक ऊर्जा को ललकारते हुए भारत माता एवं उसके महान आदर्शों का व्यापक दृष्टिकोण सबके सामने रखा।

स्वयं स्वामी विवेकानंद जी के शब्दों में,
“हे भारत!
मत भूल कि तेरे स्त्रीत्व का आदर्श सीता, सावित्री, दमयंती हैं;
मत भूल कि तू जिस ईश्वर को पूजता है, वह तपस्वियों में सबसे महान तपस्वी, उमानाथ, परमत्यागी भगवान शिव हैं; मत भूल कि तेरा विवाह, तेरा धन, तेरा जीवन इन्द्रिय-सुख के लिए नहीं है, तेरे व्यक्तिगत आनंद के लिए नहीं है;
मत भूल कि तेरा जन्म माता की वेदी पर बलिदान होने के लिए हुआ है;
मत भूल कि तेरी समाज-व्यवस्था अनंत असीमित मातृत्व का ही प्रतिबिंब है;
मत भूल कि निम्न वर्ग के लोग, अज्ञानी, दरिद्र, अशिक्षित, मोची, भंगी, तेरे ही मांस और रक्त हैं, तेरे ही भाई हैं।
हे वीर! निडर बन, साहसी बन, गर्व कर कि तू भारतीय है और गर्व से यह घोषणा कर कि “मैं एक भारतीय हूँ, सभी भारतीय मेरे भाई हैं”।
कह कि “अज्ञानी भारतीय, दरिद्र और अभावग्रस्त भारतीय, ब्राह्मण भारतीय, परित्यक्त भारतीय, मेरे भाई है।” कमर पर चिथड़ा लपेटने वाले, तू भी अपने उच्चतम स्वर में गर्व से यह घोषणा कर कि,“प्रत्येक भारतीय मेरा भाई है, प्रत्येक भारतवासी मेरा जीवन है, भारत के देवता और देवियाँ मेरे ईश्वर हैं। भारतीय समाज मेरे शैशव का पालना है, मेरी युवावस्था का आनंद-उद्यान है, मेरी वृद्धावस्था का पवित्र स्वर्ग, काशी, है।
बोलो भाई, “भारत की मिट्टी मेरा सर्वोच्च स्वर्ग है, भारत का उत्कर्ष ही मेरा उत्कर्ष है” और दिन-रात यह दोहराओ और प्रार्थना करो, “हे गौरीनाथ, हे जगन्माता, मुझे साहस प्रदान करो! हे शक्ति की देवी, मेरी दुर्बलता दूर करो, मेरी कायरता दूर करो और मुझे मनुष्य बना दो!” (खंड IV 479)

स्वामी विवेकानंद जी ने शारीरिक रूप से मात्र 39 वर्ष की आयु प्राप्त की थी, लेकिन इतनी कम आयु में ही उन्होंने भारत राष्ट्र को जिस प्रकार जागृत किया उस जागरण का सकारात्मक परिणाम उनकी मृत्यु के 120 वर्षों के पश्चात भी भारत राष्ट्र को प्राप्त हो रहा है।
स्वयं स्वामी विवेकानंद जी ने जीवन के संध्याकाल में शिलांग में अपने शिष्यों से कहा था कि,
“खैर, छोड़े, अगर मृत्यु हो तो भी क्या फर्क पड़ता है। जो देकर जा रहा हूँ, वह डेढ़ हजार वर्षों की खुराक है।”

वर्तमान में श्री एकनाथ जी द्वारा स्थापित विवेकानंद शिला स्मारक एवं विवेकानंद केंद्र कन्याकुमारी के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व में विवेकानंद जी के विचारों को मूर्त रूप प्रदान करने का अथक प्रयास किया जा रहा है।
स्वामी विवेकानंद जी के विचारों को प्रत्येक व्यक्ति तक हम सार्थक रूप में पहुँचा सके, ये ही हमारी तरफ से स्वामीजी की जन्मजयंती पर उनको एक सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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