महाराष्ट्र की सियासत में मचे घमासान के बीच तीन पहियों वाली MVA सरकार अपने अंतिम दिन गिन रही है। अपने ही शिवसेना विधायकों की बगावत की वजह उद्धव ठाकरे की कुर्सी संकट में है। महाराष्ट्र की सियासत में यह भूचाल शिवसेना के बेहद पुराने और वरिष्ठ नेता एकनाथ शिंदे और उनके समर्थकों की बगावत से आया है।

इस सियासी संकट के बीच सिर्फ उद्धव ठाकरे के हाथों से CM की कुर्सी ही नहीं बल्कि शिवेसना के टूटने की भी आशंका बढ़ गयी है. शिवसेना के सियासी इतिहास को देखें तो पता चलता है कि ये पहली बार नहीं है जब शिवसेना को अपने ही नेताओं की बगावत का सामना करना पड़ रहा हो। 56 सालों के इतिहास में शिवसेना में कई बार बगावत हुई है. खुद बाला साहेब ठाकरे के सामने तीन बार पार्टी के नेता बगावत कर चुके हैं. साल 1991 में छगन भुजबल, 2005 में नारायण राणे और 2006 में राज ठाकरे के शिवसेना छोड़ने से पार्टी में फूट पड़ चुकी है। लेकिन एकनाथ शिंदे के बगावती तेवर से शिवसेना को पहली बार इतने बड़े सियासी संकट का सामना करना पड़ रहा है।

लेकिन इस बार जिस तरह से शिवसेना के विद्रोही विधायक गुवाहाटी के होटल में डेरा डाले हुए हैं उससे लग नहीं रहा कि शिवसेना के दिन फिरेंगे. यही कारण है कि साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाने के बाद भी जब हालात ठीक नहीं हुए तो उद्धव ठाकरे ने इमोशनल कार्ड खेल दिया . सत्ता हाथों से निकलता देख उद्धव ठाकरे सरकारी आवास ‘वर्षा’ छोड़ कर मातोश्री पहुंच गये. यही नहीं उन्होंने कहा कि “शिवसैनिक नहीं चाहते कि मैं मुख्यमंत्री के रूप में बना रहूं तो मैं इस्तीफा देने के लिए तैयार हूं। मैं शिवसेना अध्यक्ष का पद छोड़ने के लिए भी तैयार हूं। मुझे बहुत खुशी होगी अगर कोई और शिवसैनिक मुख्यमंत्री बनता है।”

देखा जाए तो जिस तरह के हालात शिवसेना के सामने हैं उसके बाद उद्धव ठाकरे के पास और कोई दूसरा रास्ता बचा भी नहीं है . शिवसेना के 55 विधायक हैं और एकनाथ शिंदे का दावा है कि करीब 40 विधायक उनके साथ हैं, साथ में कुछ निर्दलीय विधायकों के सपोर्ट होने का भी एकनाथ शिंदे ने दावा किया है. मतलब शिंदे का पलड़ा इस समय भारी है .

इन सबके बीच बाला साहेब ठाकरे ने जिस शिवसेना का निर्माण हिंदुत्व और राष्ट्रधर्म को केंद्र में रखकर किया था उसे उद्धव ठाकरे ने बदल दिया. जिन बाला साहेब की पहचान जीवन भर एक कट्टर हिंदुवादी राजनेता के तौर पर होती थी। उसे मुख्यमंत्री पद की लालच में उद्धव ठाकरे ने हिंदुत्व के सिद्धांतों से समझौता कर कांग्रेस और एनसीपी जैसी पार्टियों से हाथ मिलाकर शिवसेना की छवि ही बदल दी. ऐसे में अगर उद्धव ठाकरे अब ये कहते हैं कि ‘शिवसेना और हिंदुत्व एक दूसरे से जुड़े शब्द हैं… शिवसेना हिंदुत्व से दूर नहीं हो सकती , क्योंकि हमे मंत्र मिला है कि हिंदुत्व हमारी सांस है.’ लेकिन उद्धव ठाकरे की ये बात बेमानी लगती है. क्योंकि हिंदुत्व वाली छवि को उद्धव ठाकरे ने पहले ही भुला दिया है. जिसका नतीजा आज उद्धव ठाकरे के सामने है .

इसलिए उद्धव ठाकरे को बगावती विधायकों को मनाने से भी बड़ी चुनौती है शिवसेना को टूटने से बचाना. जिसके लिए उन्हें बाला साहेब ठाकरे के सिद्धातों को सचमुच में आत्मसात करना होगा तभी शिवसेना की गाड़ी आगे बढ़ सकती है.

 

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