कुछ अतिउत्सही लोग संघ के कार्य की गति को लेकर असन्तुष्ट रहते हैं।
वे जब तब, इस बात को लेकर चिंताएं प्रकट करते हैं कि संघ ने ये नहीं किया, वो नहीं किया, जबकि यह प्रश्न उनके मन में आता ही नहीं यदि वे स्वयं कार्य कर रहे होते तो क्या करते और कैसे करते?


इस देश में राम हुए, कृष्ण हुए, तो भी बाद में अव्यवस्था और बुरे दिन लौटकर आये न? क्यो आये ?
देवासुर द्वंद्व एक सच्चाई है और यदि असुर न हो तो देवता निष्क्रिय होकर स्वयं मर जाएं।
अतः देवत्व के दिव्यत्व के संचरण की निरंतरता भी आवश्यक है।
अन्यथा अव्यवस्थाएं और दुर्गति होती रहेगी।
दुर्गति का कारण निरन्तरता का अभाव है।
वही संघ कर रहा है।


उसके कार्यकर्ताओं की निरंतरता और सक्रियता ही उसे महान बनाती है।
संघ पर प्रश्न खड़े करने वाले निष्क्रिय निठल्ले और परिस्थितियों से विवश, नकारात्मक लोग हैं, भले ही वे #सक्रियजैसे दिखते हैं।
हजारों वर्षों के राष्ट्र जीवन में इनकी औकात ही क्या है? वेद, उपनिषद और गीता के सामने तुम्हारी एक किताब का अस्तित्व ही क्या है?
सोशल मीडिया पर एक पोस्ट लिखकर कि ये होना चाहिए, वो होना चाहिए और फिर मुँह कुप्पा करके एक कोने में यह रोते रहना कि मेरी तो कोई सुनता ही नहीं!!
किसी बड़े घर में अचानक आयी नई नवेली बहू कई बार समझती है कि अरे इन ससुराल वालों को तो कोई जानकारी ही नहीं, अब मैं इन्हें ठीक करूंगी, और फुनक फुनक कर ऑर्डर बजाने लगती है, ये ऐसे करो, वो वैसे करो…. और उसका मन रखने के लिए सयाने जन अपनी हँसी मन ही मन दबाकर उसका तब तक इंतजार करते हैं जब तक कि वह यथार्थ का बोध नहीं करती, और शीघ्र सुधारवादी बनने का उसका भूत उतर नहीं जाता।
हजारों वर्षों के राष्ट्र जीवन में दिव्यत्व की निरंतरता चाहिए।
निरन्तरता, सक्रियता, दिव्यत्व के प्रति निष्ठा, धर्म तत्व की खोज और संस्कारों का पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरण, यही तो संघ का वैशिष्ट्य है।
व्यवहारिक रूप से संघ में इसके लिए तीन मूलभूत गतिविधियां निरन्तर होती है।
1.शाखा- इसमें प्रतिदिन जाना होता है।
2.बैठक- यह साधारणतः साप्ताहिक होती है।
3.अभ्यास वर्ग- ये मासिक होते हैं।
यही वह सतत प्रवाह है जिसका नैरन्तर्य ही उसे विशिष्ट बनाता है।
जिनको इनमें निरन्तर जाने का अवसर नहीं है, उनकी सलाह बकरी के गले मे लटके हुए स्तनों की तरह निरर्थक होती है।
संघ उन्हें सीरियसली नहीं लेता।

मनुमहाराज

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