जाओ संदिग्ध गुलाब ! प्रेत से संध्या में झूमते मेरी नेत्रों में तुम्हारा वर्तुल गाढ़ा होता जा रहा है मेरे होंठों से तुम्हारे होंठ धब्बा बन कर कहें और केवल यह देह ओस के अन्धकार में खिलती रहे कह देना उससे जो सुनती है और वाकपटु होकर यह काँटों-भरा आचरण और तीखे शब्द अब उत्कृष्ट हो गए हैं गुलदस्ते को दृढ़ता से पकड़ पेश करने की बजाय जिन अँगुलियों ने कभी उन्हें खून से सींचा था उन्होंने हाथ खींच लेना सीख लिया है जो भी रात के झाड़ सा और चिपकता जाता था उन छितरे आगोशों ने अपने आपको भींच लेना सीख लिया है हवा भी जो सहमी-सहमी सी उनके भीतर से गुज़र न पाती थी अब उस झीनी सी चुभन में छिन्न-भिन्न नहीं हो जाती है और कानों के गुलाब जो हृदय बन अंगों से मज्जा से और आँखों से सुनने लगे हैं और रात्रि और नीरव का शुद्ध श्रवण बन गए हैं वो अपनी ही वाणी को सुन रहे हैं और उस पात्र में ही विलुप्त हो जाना सच्चा है जिसकी अदेखी गिरती पंखुड़ियों के भंवर के नृत्य में घूमता जाता हूँ मैं...