झारखंड के छोटा नागपुर स्थित उलीहातु गाँव में 15 नवम्बर, 1875 को जन्में बिरसा मुंडा को जनजातीय समाज सहित संपूर्ण देश ने अपना भगवान माना है। बचपन से कुशाग्र बुद्धि के धनी बिरसा ने ईसाई षड्यंत्रों, सामाजिक कुरीतियों आदि को अपने तर्कों से पटखनी दी और जमकर प्रतिकार किया। वहीं, ब्रिटिश सरकार से अपने जंगलों को बचाने लिये वनवासियों को एकजूट किया। बिरसा को ईश्वर में अथाह विश्वास था। आज भी बिरसा के प्रति वनवासियों में श्रद्धा-भक्ति कूट-कूटकर भरा है।
बिरसा का जन्म स्थान, परिवार व प्रारंभिक शिक्षा
बिरसा मुंडा का जन्म स्थान झारखंड अपनी प्राकृतिक संपदा के लिये विख्यात है। इसका विस्तृत भू-भाग जहाँ हरे-भरे वृक्षों और वनस्पतियों से भरा हुआ है, वहीं यह धरती अपने गर्भ में कई मूल्यवान खनिज पदार्थ छिपाए हुए है। बिरसा की माता का नाम करमी हातू व पिता का नाम सुगना मुंडा था। बिरसा दो भाई और दो बहन थे। बृहस्पतिवार के दिन जन्म होने के कारण उनका नाम बिरसा पड़ा।
साल्गा गाँव में प्रारम्भिक शिक्षा के बाद बिरसा ने जर्मन ईसाई द्वारा संचालित चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढ़ाई की। स्कूली शिक्षा के दौरान से ही वे ब्रिटिश शासकों के अत्याचार को महसूस करने लगे थे और इनसे निपटने के लिये चिंतन करते थे। उनकी मौसी जॉनी ने उन्हें पढ़ाने के लिये बहुत संघर्ष किया।
पलायन
मुंडा मूलतः एक वनवासी जाति है तथा खेती-बाड़ी उनका मुख्य व्यवसाय है। उलिहातु में रहने वाले मुंडाओं को ब्रिटिशर्स व जमींदारों के अत्याचारों से दो-चार होना पड़ता था। उनकी स्त्रियों पर गिद्ध-दृष्टि रखते थे। वहीं, वनवासियों को असभ्य और जंगली कहा गया।
ब्रिटिशर्स के अत्याचार से परेशान होकर सुगना परिवार समेत उलिहातु से पलायन कर बंबा जाकर बस गये। वह ऐसे स्थान की तलाश में थे, जहाँ परिश्रम करके परिवार की सभी आवश्यकताएँ पूरी कर सकें और बच्चों को उचित शिक्षा उपलब्ध करा सकें।
ईसाइयों का षड्यंत्र : धर्मांतरण
ब्रिटिश हुकूमत अपने साथ ईसाई मिशनरियों को भी साथ लेकर आई थी। कहने को ये धर्म प्रचारक थे, लेकिन इनका मूल उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य की नींव मजबूत करना था। वहीं, वनवासियों को उनके मूल सनातन धर्म के विरुद्ध भड़काकर ईसाईकरण कर रहीं थीं।
ईसाइयों ने सुगना को उसकी निर्धनता के लिये कोसा, हिन्दू धर्म को गाली बका, नरक बताया। इसके विपरीत ईसाइयत को समानता का मार्ग बताया। सभी को उन्नति के बराबर समान अवसर दिये जाने की बात कही। वहीं, विभिन्न प्रलोभनों के कारण सुगना ईसाई धर्म अपना लिये और उनका नाम उसका नाम पड़ा मसीह दास। हालांकि जिन उददेश्यों को पूरा करने के लिय उन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार किया, वह व्यर्थ हो गया। उन्हें जो बातें कही गईं, पूरा नहीं की गईं। ईसाई बनाकर छोड़ दिया गया।
यहाँ यह ध्यान देना होगा कि तत्कालीन समय अंग्रेज अपना पैर पसार रहे थे तो सुगना जैसे लोगों की गुलामों जैसी स्थिति के लिये कौन जिम्मेदार, किसने गुलाम बनाने की कोशिश की ? सच तो यह है कि एक तरफ अंग्रेज गुलाम बना रहे थे और दूसरी तरफ हिन्दू धर्म को कोसकर उनका ईसाईकरण कर रहे थे।
बिरसा का पादरी को जवाब
मौसी जॉनी का विवाह खटांग में हुआ, जिसके बाद बिरसा भी उनके साथ खटांग आ गये। यहाँ उनकी भेंट एक पादरी से हुई। ईसाइयत का बखान करते हुए पादरी ने हिन्दू धर्म व वनवासियों के रहन-सहन का उपहास किया, जिसके उत्तर में बिरसा ने कहा कि, ‘कोई भी धर्म मनुष्य को नरक की ओर नहीं धकेलता। उसका उद्देश्य केवल ईश्वर प्राप्ति होता है। समाज में अनेक धर्म हैं और उनके अंतर्गत ईश्वर प्राप्ति के अलग अलग साधन हैं। सभी अपनी-अपनी उपयोगिता एवं स्थिति के अनुसार इन साधनों का उपयोग करते हैं। ऐसे में किसी के धार्मिक कृत्यों को अंध-विश्वास बताने वाला मनुष्य ही अज्ञानी है।’ ग्यारह साल के एक बालक के मुख से धर्म की परिभाषा सुनकर पादरी सकते में आ गया।
धर्मांतरण उपरांत मिशनरी स्कूल में मिला प्रवेश
वास्तव में ईसाई मिशनरियाँ कल्याण का काम कर रहीं थीं तो बिरसा को, धर्म बदले बिना शिक्षा मुहैया करानी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पादरियों ने बपतिस्मा संस्कार कर बिरसा का धर्मांतरण किया और वे ‘डेविड बिरसा’ हुए। धर्मांतरण के बाद ही उन्हें चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में प्रवेश मिला। उन्होंने सन 1886 से 1890 तक मिशनरी स्कूल में उच्च शिक्षा प्राप्त की। इन पाँच वर्षों में उन्होंने अंग्रेजी, के साथ ही ईसाई कार्य व प्रार्थना आदि सीखा।
बिरसा जिस मिशनरी स्कूल में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, वहाँ विद्यार्थियों को ईसाई संस्कृति से सराबोर किया जाता था। वे ईसाइत को त्याग न दें, इस डर से उन्हें वनवासी परंपराओं से दूर रखा जाता था। बिरसा ईसाइत में दीक्षित जरूर थे, किन्तु उनके हृदय में जंगल और सनातन परंपराएँ विराजमान थीं।
स्कूल से बिरसा का निष्कासन
मिशनरियों के मनमाने नियमों व धर्महीन कार्यों का अनुसरण करना बिरसा के लिये संभव नहीं था। ईसाइयत को वह लादे गये बोझ की तरह ढो रहे थे। स्कूल में पादरी मुंडाओं व हिन्दू धर्म के विरूद्ध बोलते थे, जिसका प्रतिकार करने पर बिरसा को निष्कासित कर दिया गया। निष्कासन के बाद गाँव पहुँचने पर उनका भव्य स्वागत हुआ।
चर्च के विरूद्ध वनवासियों का प्रतिकार आन्दोलन
दरअसल, ब्रिटिश व मिशनरी दोनों एक साथ वनवासियों पर अत्याचार रहे थे। उनकी भूमि दिलाने के बदले मिशनरियाँ उनसे ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार करवा रही थीं, बावजूद जमीनें आवंटित नहीं करा रही थीं। पुन: यहाँ यह समझना होगा कि जब राज अंग्रेजों का था तो जमीनें किसने हड़पी। वास्तव में चर्च और ब्रिटिश यही दोनों शोषक थे।
हालांकि, चर्च का मायाजाल अधिक दिनों तक न चल सका। इनके बातों के पीछे छिपे षड्यंत्र वनवासी समझ चुके थे और प्रलोभनों का मोह त्यागकर ईसाई धर्म अपनाने से इनकार कर दिया। मुंडा सरदार ने मिशनरियों की उपेक्षा की और प्रतिकार आन्दोलन आरंभ कर दिया।
धर्म के प्रति दृष्टिकोण
यद्यपि ईसाई धर्म में समानता, अधिकार तथा ईश्वर प्राप्ति की बात कही जाती है, तथापि इसके अंतर्गत अपनाए जाने वाले तरीके व तर्क बिरसा का मन अशांत कर देते। ईसाइयत को हिन्दू धर्म से श्रेष्ठ मानना उनके लिए असंभव था। उनका मत था कि ‘कोई भी धर्म किसी दूसरे धर्म को अपमानित करना या उससे बैर करना नहीं सिखाता। धर्मों का एकमात्र उद्देश्य है – इंसानियत, स्नेह, परोपकार, दया और सत्य मार्ग का पालन करना। इनका अनुसरण करना ही मनुष्य का सच्चा धर्म है। संसार के सभी धर्म ईश्वर रूपी वृक्ष की वे शाखाएँ हैं, जिनके अंतिम छोर से ईश्वर की प्राप्ति संभव है। अतः मनुष्य को अपने धर्म से विमुख होकर किसी दूसरे धर्म को अपनाने की कोई आवश्यकता नहीं है। उसे स्वधर्म में ही दूसरे धर्मों की विशेषताएँ ढूँढ़नी चाहिए।’
हिन्दू धर्म में बिरसा की वापसी
सन 1891 में बिरसा मुंडा की भेंट आनंद पांडे नामक एक व्यक्ति से हुई। उन्होंने वेद-पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता आदि धार्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन किया था। बिरसा ने आनंद को अपना गुरू बना लिया और ईसाइयत को त्यागकर पुन: हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार जीवन व्यतीत करने लगे।
ईसाइयत त्याग देने का आह्वान
बिरसा ने वनवासियों से ईसाइत त्याग देने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि मिशनरियों की बढ़ती शक्ति को रोकने के लिए ईसाई धर्म का बहिष्कार किया जाना चाहिए। जब बिरसा ने स्वधर्म की बात कही तो अनेक वनवासी ईसाई धर्म छोड़कर पुनः अपने धर्म में लौट आए। बिरसा ने आर्थिक, धार्मिक और सामाजिक सुधारों का सूत्रपात किया। इस प्रतिकार ने अंग्रेजों व चर्च के पादरियों को हिलाकर रख दिया। एक साधारण वनवासी उनके मिशन के सामने चट्टान की तरह अड़कर खड़ा हो जाए, यह उन्हें स्वीकार नहीं था। अत: वे इस दीवार को गिरा देना चाहते थे।
समाज-सुधार की राह
बिरसा गाँव-गाँव घूमकर वनवासियों को जागरूक करने लगे। उन्होंने समझाना शुरू किया कि मिशनरी व ब्रिटिश अलग-अलग नहीं हैं, दोनों एक हैं और हमारे शत्रु हैं। इन्हीं के शोषण के कारण हमारी स्थिति दयनीय है। बिरसा द्वारा आरंभ आंदोलन सर्वप्रथम धार्मिक था, जिसका प्रमुख उद्देश्य ईसाई मिशनरियों के विरुद्ध लोगों को एकजुट करना और हिंदू धर्म की रक्षा करना था।
बिरसा की माँगें
अधोलिखित माँगें वनवासी समुदाय की आर्थिक एवं सामाजिक दशा को स्पष्ट करती हैं। उनपर होने वाले शोषण एवं अत्याचारों का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। अपनी इन माँगों द्वारा बिरसा ने जो समाज-सुधार की नींव रखी थी, वह इतनी गहरी थीं कि स्वंतत्रता के बाद भारतीय संविधान में निम्न वर्ग के कल्याण के लिये विशेष कानून बनाये गये।
बेगारी नहीं करेंगे।
आर्थिक शोषण पर रोक लगाई जाए।
परिश्रम के अनुसार पारिश्रमिक देने की व्यवस्था की जाए।
पीड़ित वनवासियों के लिए सरकार कानून बनाए।
वनवासियों पर अत्याचार करने वाले को दंडित किया जाए।
अन्य वर्गों के समान ही वनवासियों को भी सुविधाएँ दी जाए।
क्षेत्रीय वन-संपदा, भूमि, खेती, पहाड़ एवं खनिज संपदा पर जमींदारों तथा उच्चवर्गीय समुदाय का प्रभुत्व समाप्त कर वनवासियों का उनपर समान अधिकार हो।
भूमि को लगान मुक्त घोषित किया जाए।
वनवासी महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा हेतु सरकार कानून बनाए।
वनवासी बच्चों को शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार।
मंदिर व अन्य धार्मिक स्थलों पर जाने की स्वतंत्रता।
ईसाई मिशनरियों पर प्रतिबंध लगाया जाए, ताकि वनवासियों के धर्मांतरण पर रोक लगे।
वनवासियों के साथ अछूत जैसे व्यवहार पर प्रतिबंधित।
बिरसा के विरूद्ध रिपोर्ट
बिरसा मुंडा का आन्दोलन विकाराल रूप धारण कर लिया था। ब्रिटिश अधिकारियों ने सरकार को बिरसा के विरूद्ध रिपोर्ट भेजी। रिपोर्ट में लिखा गया कि –
वनवासियों को खेती करने से मना करता है।
वनवासियों को ईसाई धर्म छोडकर हिन्दू बनने के लिए प्रेरित कर रहा है।
मांसाहार को प्रतिबंधित कर दिया है।
वह लोगो उकसाते हुए कहता है कि अंग्रेजों के अधीन जंगलों को वह अपने अधिकार में ले लेगा। जो लोग कड़ाई से अपने धर्म का पालन करेंगे, केवल उन्हें ही उन जंगलों में रहने की अनुमति मिलेगी।
ब्रिटिशर्स व वनवासियों में भिड़ंत
ब्रिटिश सरकार ने बिरसा को बंदी बनाने के लिये आदेश जारी कर दिया। डिप्टी कमिश्नर ने उसे बंदी बनाने के लिए सैनिकों की एक टुकड़ी भेजी। अंग्रेजों की टुकड़ी का सामना मुंडा सरदारों और उनकी सेना से हुआ। अंग्रेज अधिकारियों व सेना को मुँह की खानी पड़ी। वहीं स्थित ब्रिटिश दफ्तरों में आग भी लगाई गई।
गिरफ्तारी का वारंट जारी
डिप्टी सुपरिटेंडेट जी आर के मेयर्स की अध्यक्षता में जिलाधिकारियों की बैठक बुलाई गई। बिरसा के विरुद्ध सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुँचाने, सरकारी कार्य में बाधा डालने, पुलिस पर हमला करने तथा सार्वजनिक स्थल पर अशांति फैलाने से संबद्ध आपराधिक मामले दर्ज किए गये। धारा-353 तथा धारा-505 के अंतर्गत बिरसा और उनके नौ अनुयायियों को गिरफ्तार करने के लिये वारंट जारी हुआ।
बिरसा की गिरफ्तारी
ब्रिटिश सेना बिरसा को अकेले मे खोजने लगी, क्योंकि वनवासियों से लोहा लेने का हस्र देख चुके थे। एक दिन बिरसा के अधिकतर साथी हथियार इकट्ठा करने व दूर- दराज के लोगों को आंदोलन से जोड़ने के उद्देश्य से चलकद से बाहर गये हुए थे। चलकद स्थान का नाम है। बूंटी थानेदार ने यह सूचना बँदगाँव के मेयर्स तक पहुँचा दी। रात में बिरसा निश्चिंत सोये हुए थे, इसी समय ब्रिटिशर्स उन्हें घेर लिये, बिरसा ने प्रतिरोध किया, लेकिन बंदूकों से लैस सिपाहियों के सामने उनकी एक न चली। बिरसा गिरफ्तार कर लिये गये।
बिरसा मुंडारी भाषा में चीख-चीखकर अपने साथियों को आवाज देकर बुलाने लगे। उनके साथी आये और ब्रिटिशर्स पर हमला किये, किंतु बंदूक से लैस सिपाहियों के सामने उनकी भी एक न चली। सिपाही बिरसा को बँदगाँव लेकर चले गये।
रांची की जेल में
डिप्टी कमिश्नर के सामने बिरसा को पेश किया गया। वनवासी बँदगाँव पहुँचकर मेयर्स व उसकी सेना को घेर लिये। विकट स्थिति देखते हुए बिरसा को राँची जेल भेज दिया गया। बिरसा वनवासियों के ऐसे विशाल जनसमूह का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जो उनके संकेत मात्र पर मरने-मारने को तैयार थे।
बिरसा की अनुपस्थिति में सुदूर क्षेत्रों से वनवासी उनके घर में पूजा करने आते थे। लोगों के हृदयों में बिरसा के प्रति अगाध श्रद्धा देखकर ब्रिटिश सरकार भयभीत थी। जमींदार बाबू जगमोहन सिंह ब्रिटिशर्स से मिल गया। मुंडा सरदारों सहित हजारों वनवासियों को पकड़कर जेल में डाला गया।
बिरसा की गिरफ्तारी पर लेफ्टिनेंट गवर्नर का बयान
तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर ने कहा कि ‘जब तक बिरसा मुंडा कारावास में है, तब तक यह न समझें कि सबकुछ शांत है। वास्तव में बिरसा को बंदी बनाकर सरकार बारूद के ऐसे ढेर पर बैठ गई है, जिसे उसके संग्राम की एक चिनगारी पल भर में जलाकर भस्म कर देगी।’
मेयर्स रिपोर्ट
केवल दो व्यक्तियों ने ही बिरसा और उसके अनुयायियों पर आरोप लगाया। तमाड़ का प्रधान सिपाही और कोचांग का बूड़ा मुंडा। इन दोनों की गवाही के आधार पर बिरसा पर मुकदमा चलाया गया।
बिरसा आंदोलन का संबंध केवल धर्म-संबंधी क्रियाकलापों तक ही सीमित नहीं था, वे मिशनरियों के विरोध की आड़ में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध संग्राम का वातावरण तैयार कर रहे थे।
प्रधान सिपाही के साथ घटित घटना में अनेक वनवासियों ने बिरसा को सहयोग दिया था, इसलिए वे सभी उसके साथ सामान रूप से अपराधी हैं।
यदि बिरसा को छोड़ा गया तो ये लोग एकजुट होकर नये सिरे से आंदोलन आरंभ करेंगे। सरकार के लिए खतरनाक होगा।
रिपोर्ट में स्पष्ट शब्दों में कहा गया था कि बिरसा की रिहाई सन 1857 की क्रांति जैसी परिस्थितियाँ पुन: पैदा कर देंगी।
राँची जेल से खूँटी स्थानांतरण
शीघ्र ही बिरसा को खूँटी स्थानांतरित कर दिया गया। इसकें पीछे अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति काम कर रही थी। खूँटी मुडां वनवासियों का मुख्या केन्द्र था। सरकार चाहती थी कि मुकदमें को वनवासी देखें, ताकि उनमें भय व्याप्त हो जाए। वनवासियों ने अदालत को चारों ओर से घेरा लिया। जनसमूह का भयंकर कोलाहल सूनकर बिरसा प्रसन्न थे कि लोग सत्य मार्ग पर उनके साथ खड़े हैं।
बंदियों की रिहाई
कमिश्नर ने मुंडा क्षेत्रों से आये 82 गवाहों से पूछताछ की। पूछताछ के बाद स्पष्ट हो गया कि जमींदार जगमोहन डिप्टी कमिश्नर कर्नल गोर्डन को अपनी जाल में फँसाकर उसे गलत जानकारी दी थी। अदालत के बाहर खड़े लोग संग्राम करने के उद्देश्य से नहीं, बल्कि बिरसा का दर्शन करने आये थे। उनपर बिना मुकदमा चलाये रिहा कर दिया गया। अपना निर्णय सुनाते हुए डिप्टी कलेक्टर ने स्वीकार किया कि बंदियों पर लगाया गया अभियोग निराधार है। वे पूरी तरह से निर्दोष हैं।
बिरसा पर आरोप और उनके विरुद्ध सिफारिशें
डिप्टी कमिश्नर द्वारा बिरसा पर लगाये गये आरोप निम्नलिखित हैं-
बिरसा और भूमि-संबंधी आंदोलनकारियों के बीच गहरा संबंध है। ये मिल-जुलकर सरकारी नीतियों का विरोध कर रहे हैं।
बिरसा आंदोलन द्वारा सरकार के विरुद्ध घृणा, असहयोग और निष्ठाहीनता का प्रचार किया गया है।
बिरसा एवं उसके अनुयायियों द्वारा किया गया प्रचार राजद्रोह की भावना से भरा हुआ है।
बिरसा आंदोलन धर्म की आड़ में रचा गया एक ऐसा गहरा षड्यंत्र है, जिससे वनवासी बहुल क्षेत्रों में अशांति और दंगों का वातावरण तैयार हो सके।
बिरसा लोगों को लगान एवं मालगुजारी न देने के लिए प्रेरित कर रहा है।
इसके साथ-साथ कमिश्नर ने कुछ सिफारिशें भी की थीं, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया था कि वनवासी समाज में धर्म के प्रभाव को समाप्त करने के लिये उन्हें कठोर-से-कठोर दंड दिया जाए, जिससे भविष्य में कोई भी इनका अनुसरण न करे।
बिरसा को सजा
धारा-505 के अंतर्गत बिरसा और अन्य अनुयायियों को दोषी ठहराया गया। मुख्य अपराध के लिये उन्हें दो-दो वर्ष का कठोर कारावास तथा दंगा करने के आरोप में अल्पकालिक सजाएँ दी गयीं।
बिरसा पर 50 रुपये जुर्माना लगाया गया। जुर्माना न भरने की स्थिति में छह महीने की सश्रम कारावास सजा दी गई। इसी तरह अन्य साथियों पर 20 रुपये जुर्माना और जुर्माना न भरने की स्थिति में तीन महीने का कारावास दिया गया।
अदालत के इस निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की गई। इसके फलस्वरूप थोड़ा परिवर्तन करके सजा ढाई वर्ष से घटाकर दो वर्ष कर दी गई। बिरसा को राँची में स्थित हजारीबाग जेल भेज दिया गया।
बिरसा आंदोलन का दमन
बिरसा को कारावास हो जाने के बाद वनवासी समुदायों एवं क्षेत्रों के विरुद्ध अनेक कानून बनाये गये और उन्हें पूर्णतः पंगु बना दिया। करों का बोझ डाल दिया गया। सरकार की दमनकारी नीतियों से बचने के लिए वे ईसाई धर्म अपनाने लगे। इसमें नये लोगों के अतिरिक्त वे लोग भी सम्मिलित थे, जो ईसाई धर्म छोड़कर बिरसा के अनुयायी बन गये थे।
बंगाल काश्तकारी कानून
सन् 1897 में एक अधिनियम पारित हुआ, इसके अंतर्गत स्पष्ट किया गया कि आवश्यकता पड़ने पर जमींदार भूमि संबंधी स्थितियों और सेवाओं में अनिवार्यतः परिवर्तन कर सकते हैं। इसमें वनवासियों के हितों की बात कही गई थी, लेकिन वास्तव में यह सरकार द्वारा जमींदारों को दिया गया उपहार था।
जिन वनवासियों ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था, सरकार ने उन्हें लगान देने की प्रक्रिया से बाहर रखा था, अर्थात उनका पूरा लगान माफ था, लेकिन गैर-ईसाई व मुंडाओं के लिए यह अधिनियम अभिशाप के समान था। इसकी आड़ में सरकार ने अपने वनवासियों को आर्थिक रूप से पंगु बनाने का षड्यंत्र रचा था।
जेल से रिहाई और पुन: आन्दोलन की तैयारी
30 नवंबर, 1897 को बिरसा दो वर्ष की करावास सजा काट कर रिहा हुए। एक बार फिर आन्दोलन की तैयारियाँ आरंभ होने लगीं। इस बार धर्म की आड़ में राजनीतिक आंदोलन करने का निर्णय लिया गया था। आंदोलनकारियों को तीन श्रेणियों में बाँटा गया – प्रचारक या गुरू, पुरानक या पूराने तथा ननक।
प्रचारक या गुरु श्रेणी में उन लोगों को सम्मिलित किया गया था, जो बिरसा के अत्यंत विश्वासपात्र थे। इनके पवित्र घरों में बिरसा-समर्थकों की गुप्त मंत्रणाएँ होती थीं। ये मंत्रणाएँ बृहस्पतिवार तथा रविवार को रात के समय होती थीं। पुरानक या पुराने श्रेणी में वे लोग सम्मिलित थे, जो खुल्लमखुल्ला संग्राम करने में विश्वास रखते थे। इस श्रेणी के लिये लोगों का चयन बहुत सोच-विचार कर किया जाता था। ननक श्रेणी में लोगों की संख्या अधिक थी। इन्हें महत्त्वपूर्ण मंत्रणाओं में सम्मिलित नहीं किया जाता था, केवल प्रस्तावों के विषय में जानकारी देकर आवश्यक कार्य सौंप दिये जाते थे।
चुटिया-यात्रा
बिरसा ने सर्वप्रथम चुटिया क्षेत्र की यात्रा की। यात्रा का आरंभ 28 जनवरी, 1898 को हुआ। ब्रिटिश सरकार को भ्रमित करने के लिये बिरसा ने यात्रा-दल को तीन भागों में बाँटा। पहले दल का नेतृत्व बिरसा, दूसरे दल का नेतृत्वकर्ता उनके बड़े भाई कोमता व तीसरे दल का नेतृत्त्व बाना पीड़ी के डोकन मुंडा के हाथ में था।
इस यात्रा के दौरान बिरसा ने प्रतिज्ञा की थी कि मुंडा वनवासी तुलसी की पूजा करेंगे। तभी से तुलसी का पौधा मुंडाओं के लिये पवित्र और पूजनीय बन गया।
पुरी-यात्रा
मुंडा वनवासी उड़ीसा में स्थित जगन्नाथपुरी को अपना पैतृक मंदिर मानते थे। उनके अनुसार मुंडा-पूर्वज विभिन्न भेंटें लेकर यहाँ आते और ईश्वर की पूजा करते थे। बाद में अंग्रेजों की फूट डालो राज करो की नीति ने भारतियों मे भेद पैदा कर दिया, जिसके बाद वनवासियों के जाने पर रोक लगा दी गई, इसके विरुद्ध समर्थकों सहित बिरसा जगन्नाथ पुरी की ओर प्रस्थान किये। पुरी के मंदिर में 15 दिन तक अन्न-जल का पूर्णतः त्याग कर कठोर तपस्या की। बिरसा ने प्रतिज्ञा की कि समाज में व्याप्त सभी कुरीतियों के विरुद्ध लोगों को जागरूक करेंगे।
डोंबरी-सभा
फरवरी, 1898 में डोंबरी क्षेत्र के जगरी मुंडा के घर मुंडाओं की प्रथम सभा का आयोजन किया गया। बैठक के दौरान उन्होंने धर्म-पथ पर चलते हुए शांतिपूर्ण तरीके से अपने अधिकार और खोई हुई भूमि प्राप्त करने पर जोर दिया, परंतु वे सशस्त्र क्रांति पर अड़े रहे। अंततः बिरसा को झुकना पड़ा। लेकिन फिर भी उन्होंने इसका निर्णय अगली सभा में करने का निश्चय किया।
सिंबुआ सभा
डोंबरी क्षेत्र के निकट सिंबुआ पहाड़ी पर मार्च, 1898 में होली के दिन बैठक बुलाई गई। इस बैठक में लगभग तीन सौ सशस्त्र अनुयायियों ने भाग लिया। बैठक का आरंभ होलिका दहन करके किया गया। इस अवसर पर ब्रिटिश शासन का पुतला दहन हुआ।
संग्राम को दबाने का प्रयास
बिरसा मुंडा के आह्वान मात्र पर वनवासी अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार थे। अंग्रेज अफसर हाफमैन ने क्रांतिकारियों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई का समर्थन किया। ब्रिटिश सरकार द्वारा उठाये गये कदम-
बिरसा-आंदोलन से जुड़े लोगों की चल-अचल संपत्ति जब्त कर ली जाए।
उनकी स्त्रियों के गाँव छोड़कर अन्यत्र जाने पर कठोरता से पाबंदी लगाई जाए।
जब तक सशस्त्र क्रांति पूरी तरह से विफल न हो जाए, तब तक बिरसा के लिए जासूसी करने वाले स्थानीय लोगों को बंदी बना लिया जाए।
आंदोलन से जुड़े सरदारों को लंबे समय के लिये जेलों में बंद कर दिया जाए।
सरकार के प्रलोभन
क्रांतिकारियों को पकड़ने से पूर्व सभी सरकारी कार्यालयों, थानों तथा मिशनरी संस्थानों में पर्याप्त मात्रा में पुलिस नियुक्त कर दी गई। बिरसा को पकड़वाने पर 500 रुपये के इनाम की घोषणा हुई। 10 जनवरी, 1900 को बिरसा के समर्थकों के विरुद्ध कार्रवाई आरंभ हुई। सरकार ने घोषणा की कि ‘जो बिरसा को गिरफ्तार करवाएगा या उसके बारे में सही सूचना देगा, उसे जीवन भर के लिये लगान-मुक्त पट्टा दिया जाएगा।’
दोबारा गिरफ्तार हुए बिरसा
एक दिन भोजन करने के बाद बिरसा और उनकी पत्नियाँ गहरी नींद में सोये हुए थे। यहीं वे बंदी बना लिये गये। कमिश्नर ने उन्हें राँची ले जाने भेज देने के लिये आदेश दे दिया। उनपर आरोप लगाया गया कि वह लूटपाट, आगजनी और हत्या आदि में लिप्त हैं। इसके अंतर्गत 15 आरोपों की सूची तैयार की गई, जिसमें उन्हें मुख्य अभियुक्त के रूप में चिह्नित किया गया।
नम आँखों से बिरसा की बिदाई
मार्ग में जगह-जगह लोगों की भीड़ उनके दर्शन के लिये उमड़ी। वे अपने भगवान को बेड़ियों में देखकर अत्यंत दु:खी थे, लेकिन बिरसा के होंठों पर मुस्कराहट थी। उन्हें इस बात का संतोष था कि वह अपने प्रयासों द्वारा मृतप्राय लोगों को अन्याय के विरुद्ध जागरूक करने में सफल हो गये। उन्हें खुशी थी कि सीधे-सादे वनवासी अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीख चुके हैं। अब वह जीवित रहें या न रहें, लेकिन उन्होंने वनवासियों को उन्नति और कल्याण का एक मंत्र दे दिया है।
रहस्यमयी मृत्यु
30 मई, 1900 को बिरसा को हैजा होने की खबर सामने आई। 09 जून की सुबह खून की उल्टियाँ करने लगे। अत्यधिक कमजोरी के कारण वे बेहोश हो गये और सुबह 09 बजे वनवासियों के भगवान बिरसा मुंडा संसार से सदा-सदा के लिये विदा हो गये।
वर्तमान लालपुर स्थित कोकर जाने वाले मार्ग में राँची डिस्टीलरी के निकट सुवर्ण रेखा नदी के घाट पर जेल-कर्मचारियों द्वारा बिरसा का शव गुपचुप तरीके से जला दिया गया। यद्यपि जेल के अधिकारियों के अनुसार, बिरसा की मृत्यु हैजा से हुई थी, लेकिन बिरसा-समर्थकों ने इस बात को नकार दिया और जहर देकर मारने की बात पर जोर दिया।
बिरसैत आन्दोलन
अंध विश्वास, अपना धर्म छोड़कर ईसाई धर्म मानने की चलन आदि को दूर करने में बिरसा जुटे रहे। उनका सुधारवादी आन्दोलन दयानन्द सरस्वती, विवेकानन्द और चैतन्य महाप्रभु के आन्दोलन की तरह प्रगतिशील एवं उदारवादी सिद्धांतों पर आधारित था। उनके उपदेश एवं आन्दोलनों के मुख्य बिन्दु थे –
👉सोखा, ओझा आदि द्वारा फैलाये गये भ्रम से दूर रहना।
👉बलि देना अर्थहीन और व्यर्थ की जीव हत्या है।
👉सभी जीवों पर दया और उनपर प्रेम करना चाहिए।
👉हड़िया और शराब पीना नहीं चाहिए।
👉सादा जीवन और उच्च विचार जीवन का आदर्श बने।
👉एकता में ही बल है, अत: संगठित रहें।
👉पवित्र जनेऊ धारण करो और एक दिन काम छोड़कर ‘सिंगबोंगा’ का स्मरण करो।
👉जूठा, अखाद्य भोजन और दूसरे धर्मावलम्बी से विवाह मत करो।
बिरसा से जुड़े कुछ प्रसंग
परमात्मा की स्वीकृति
बिरसा परमात्मा (ईश्वर) को मानते थे। एकबार उन्होंने स्वप्न में देखा कि एक वृद्ध हाथ में माला लिये कुर्सी पर बैठा है। उसके आस-पास चार व्यक्ति प्रेतात्मा, राजा, जज और बिरसा खड़े हैं। वृद्ध ने जमीन पर महुआ का पेड़ गाड़कर उस पर तेल व मक्खन मल दिया। पेड़ के ऊपर मूल्यवान वस्तु रख दी, फिर उन्होंने तीन व्यक्तियों को वह वस्तु नीचे लाने के लिए कहा। एक-एक कर तीनों ने प्रयास किया, लेकिन सभी असफल रहे। अंत में बिरसा पेड़ पर चढ़े और वस्तु नीचे उतार लाये। सहसा बिरसा की आंख खुल गई और वह स्वप्न पर विचार करने लगे। यह स्वप्न बिरसा के मानसिक द्वंद्व का परिणाम था। वृद्ध व्यक्ति ईश्वर का रूप, प्रेतात्मा, राजा और जज के रूप में क्रमश: अंधविश्वास, जमीदार और सरकारी अधिकारी थे। पेड़ से वस्तु उतार लेने के पीछे ईश्वर की स्वीकृति माना। उन्होंने लोगों में यह स्थापित किया कि ईश्वर की स्वीकृति से सबकुछ संभव है। यानी ईश्वर ही सृष्टि का संचालक है, हमसभी केवल माध्यम हैं।
ईश्वर का संदेश
एक बार बिरसा अपने एक मित्र के साथ जंगल से गुजर रहे थे। तभी भयंकर तूफान के साथ बादल उमड़-घुमड़ आये। देखते-ही-देखते तेज वर्षा होने लगी। सहसा कड़कती हुई बिजली बिरसा पर गिर गई। इससे उनका रंग-रूप ही बदल गया। उनका काला चेहरा परिवर्तित होकर लाल एवं सफेद रंग का हो गया। इस घटना से उनके मित्र अचंभित हो गये। भयभीत मित्र ने पूछा कि तुम ठीक तो हो! यह परिवर्तन कैसे हो गया? बिरसा शांत स्वर में बोले – ईश्वर मुझसे कुछ कहना चाहते थे। कड़कती हुई बिजली से मुझे ईश्वर का संदेश मिल चुका है। इसके बाद दोनों मित्र आगे बढ़ गये।
मैं धरती-आबा हूं!
बिरसा स्वयं को धरती आबा अर्थात पृथ्वी का पिता घोषित कर दिये थे। इसी नाम से पहचाने जाते थे। एक बार सत्संग-सभा में उपदेश दे रहे थे, तभी श्रोताओं की भीड़ में बैठी उनकी मां करमी सहसा अपने स्थान पर खड़ी हुईं और उन्हें बेटा कहकर संबोधित किया। बिरसा कुछ पल के लिए रुके और फिर शांत स्वर में बोले, “मां! मुझे ईश्वर का साक्षात्कार हुआ है। उन्होंने मुझे समाज के कल्याण का कार्य-भार सौंपा है। अब मैं तुम्हारे पुत्र से अधिक इन लोगों का धरती-आबा हूं। इसलिए मेरे प्रति मोह को त्याग दो और मुझे धरती-आबा के रूप में देखो।” इस घटना के बाद से परिवार के अन्य सदस्य भी बिरसा को धरती-आबा कहने लगे।
संदर्भ पुस्तक : बिरसा मुंडा, लेखक- गोपी कृष्ण कुँवर, प्रकाशन- प्रभात प्रकाशन
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