जिनकी मौत होने के बावजूद भी अंग्रेज सरकार घबराई हुई थी, जिन्होंने “करो या मरो” नही बल्कि “करो और मरो” को अपना मुख्य नारा बनाया, जिन्होंने अकेले दम पर ही चटगाँव को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया।
आज इस लेख की पांचवीं कड़ी में हम उन्हीं महान क्रांतिकारी के बारे में पढ़ेंगे, वो महान क्रांतिकारी थे :- मास्टर दा उर्फ मास्टर सूर्यकुमार सेन।

मास्टर सूर्यसेन का जन्म 22 मार्च 1894 को तत्कालीन बंगाल प्रान्त के चटगाँव जिले (वर्तमान बांग्लादेश) में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा चटगाँव में ही हुई थी।
स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रीय भावना का संचार उनकी रगों में स्कूली शिक्षा के दौरान बढ़ने लगा था।
जब वो इंटरमीडिएट के विद्यार्थी थे तब ही वो बंगाल की प्रमुख क्रांतिकारी संस्था ‘अनुशीलन समिति’ के सदस्य बन गए थे। वो ‘युगांतर’ नाम की क्रांतिकारी संस्था के सम्पर्क में भी रहे थे।

धीरे धीरे जब उन्हें लगा कि अंग्रेजों से आज़ादी सिर्फ सत्याग्रह के दम पर नही पाई जा सकती तब उन्होंने अपने दम पर एक आर्मी तैयार की और उसका नाम रखा – इंडियन रिपब्लिक आर्मी (IRA).
देखते ही देखते कुछ समय में मास्टर सूर्यसेन के 500 विद्यार्थी इस आर्मी से जुड़ गए।
इस आर्मी के सदस्यों ने समय समय पर अंग्रेजों की सत्ता को अनेक तरीकों से चुनौती दी।
लेकिन कुछ दिनों में इस आर्मी को हथियारों की जरूरत महसूस होने लगी।
पूरी रणनीति के साथ मास्टर दा ने 18 अप्रैल 1930 को चटगाँव शस्त्रागार को लूटने की योजना बनाई।

योजनानुसार 18 अप्रैल, 1930 को सैनिक वस्त्रों में इन क्रांतिकारियों ने गणेश घोष और लोकनाथ बल के नेतृत्व में दो दल बनाये। गणेश घोष के दल ने चटगांव के पुलिस शस्त्रागार पर और लोकनाथ जी के दल ने चटगांव के सहायक सैनिक शस्त्रागार पर कब्ज़ा कर लिया। दुर्भाग्यवश उन्हें बंदूकें तो मिलीं, किंतु उनकी गोलियां नहीं मिल सकीं। क्रांतिकारियों ने टेलीफोन और टेलीग्राफ के तार काट दिए और रेलमार्गों को रोक दिया। एक प्रकार से चटगांव पर क्रांतिकारियों का ही अधिकार हो गया। इसके बाद यह दल पुलिस शस्त्रागार के सामने इकठ्ठा हुआ, जहां मास्टर सूर्यसेन ने अपनी इस सेना से विधिवत सैन्य सलामी ली, राष्ट्रीय ध्‍वज फहराया और भारत की अस्थायी सरकार की स्थापना की। ऐसा बताया जाता है कि मास्टर सूर्यसेन ने कुछ दिनों तक चटगांव को सिर्फ इन्हीं बच्चों के साथ मिलकर आज़ाद बनाए रखा। उनका ये विद्रोह अपने साहस और प्लानिंग के कारण हिंदुस्तान के इतिहास में याद रखा जाता है।
इस घटना ने अंग्रेजी हुकूमत को बुरी तरह हिला दिया, उन्हें यक़ीन नही हो रहा था कि एक साधारण मास्टर की 500 व्यक्तियों की सेना ये सब कर सकती है। अंग्रेजों को अब मास्टर दा की ताकत का अंदाजा हो चुका था और अंग्रेज अब उन्हें किसी भी तरह रोकना चाहते थे।

इसलिए 22 अप्रैल 1930 को हजारों अंग्रेज सैनिकों ने जलालाबाद पहाड़ियों को घेर लिया जहाँ क्रांतिकारियों ने शरण ले रखी थी। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी समर्पण के बजाय क्रांतिकारियों ने हथियारों से लैस अंग्रेज सेना के विरुद्ध गोरिल्ला युद्ध छेड़ दिया। उनकी वीरता और गोरिल्ला युद्ध-कौशल का अंदाजा इसी से लग जाता है कि इस जंग में जहाँ 80 से भी ज्यादा अंग्रेज सैनिक मारे गए, वहीँ मात्र 12 क्रांतिकारी योद्धा ही शहीद हुए। इसके बाद मास्टर दा किसी प्रकार अपने कुछ साथियों सहित पास के गाँव में चले गए, उनके कुछ साथी कलकत्ता चले गए लेकिन दुर्भाग्य से कुछ पकडे भी गए|
पुलिस किसी भी सूरत में मास्टर दा को पकड़ना चाहती थी और हर तरफ उनकी तलाश कर रही थी। सरकार ने मास्टर दा पर 10,000 रु. का इनाम घोषित कर दिया परन्तु जिस व्यक्ति को सभी चाहते हों तो उसका सुराग भला कौन देता?

कलकत्ता हाईकोर्ट के सामने मास्टर सूर्यसेन की प्रतिमा

अंग्रेजों का क्रूर दमन और कठिनाइयाँ भी इन युवाओं को डिगा नहीं सकीं और जो क्रांतिकारी बच गए उन्होंने फिर से खुद को संगठित कर लिया और दोबारा अपनी साहसिक घटनाओं द्वारा सरकार को छकाते रहे। ऐसी अनेक घटनाओं में 1930 से 1932 के बीच 22 अंग्रेज अधिकारियों और उनके लगभग 220 सहायकों को मौत के घाट उतारा गया।
परन्तु 16 फरवरी 1933 को नेत्र सेन नामक व्यक्ति, जिसके यहाँ सूर्यसेन छिपे हुए थे, के द्वारा दस हजार रूपये के इनाम के लालच में विश्वासघात किये जाने के कारण वे पकडे गये। नेत्र सेन भी इस इनाम के लेने से पहले ही सूर्यसेन के किसी साथी द्वारा उसके घर में घुसकर नरक पहुंचा दिया गया और उसकी पत्नी ने, जिसके सामने ही नेत्र सेन को मारा गया था, अपने विश्वासघाती पति के हत्यारे की पहचान करने से इनकार करते हुए कहा कि ऐसे गद्दार की सधवा होने से अच्छा है विधवा होना।

अंग्रेजी सरकार ने मास्टर सूर्यसेन पर मुकदमा चलाने के लिए विशेष न्यायालयों की स्थापना की और 12 जनवरी 1934 को सूर्यसेन जी को फाँसी दे दी गयी।
पर फांसी देने के पहले अंग्रेजी सरकार ने मास्टर सूर्यसेन पर भीषण अत्याचार किये और उन्हें ऐसी अमानवीय यातनाएं दी गयीं कि रूह काँप जाती है।
हथौडों के प्रहार से उनके सभी दांत, सभी जोड़ और हाथ-पैर तोड़ दिए गये और सारे नाखून उखाड़ दिए गए, रस्सी से बांध कर उन्हें मीलों घसीटा गया और जब वह बेहोश हो गए तो उन्हें अचेतावस्था में ही खींच कर फांसी के तख्ते तक लाया गया।
क्रूरता और अपमान की पराकाष्ठा यह थी कि उनकी मृत देह को भी उनके परिजनों को नहीं सौंपा गया और उसे धातु के बक्से में बंद करके बंगाल की खाड़ी में फेंक दिया गया।

इससे कुछ ही समय पहले सूर्य सेन ने एक दोस्त को खत में लिखा था,
“मौत मेरे दरवाजे पर दस्तक दे रही है… मैं खुश हूं… मैंने तुम लोगों के लिए पीछे क्या छोड़ा… एक सपना. आज़ादी का सपना… उम्मीद है कि 18 अप्रैल, 1930 की तारीख तुम लोग कभी नहीं भूलोगे.”

आडंबरहीन और निर्भीक नेतृत्व के प्रतीक, महान क्रांतिकारी, हुतात्मा और अमर बलिदानी मास्टर सूर्यसेन को कोटि कोटि नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि। जय हिंद
????

DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text.