मुंबई उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति शिंदे , जो पिछले दिए गए कुछ एकतरफा निर्णयों /फैसलों व आदेशों के कारण सुर्खियों में रहे अब कुख्यात माओवादी वरवरा राव को उनकी अदालत द्वारा दी गई जमानत से आक्रोशित पीड़ित आदिवासी समाज ने न्यायमूर्ति के नज़रिए व रवैये को एकतरफा पक्षपातपूर्ण बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय को पत्र लिखकर उनके विरुद्ध विस्तृत जांच किए जाने की मांग की है ।
मुंबई उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति शिंदे द्वारा हाल ही में दिए गए कुछ फैसलों का उललेख करते हुए पत्र में संभावना जताई गई है कि इस तरह बार बार पीड़ितों की जगह आरोपियों को तुष्ट करने वाले निर्णय और नज़रिया रखने से पीड़ितों में न्याय के प्रति अविश्वास और असुरक्षा का वातावरण बन गया है जो किसी भी तरह सेके सुखद नहीं कहा जा सकता ।
इतना ही नहीं , पत्र में श्री शिंन्दे द्वारा अर्जित बेहिसाब संपत्ति तथा उन्हें अर्जन के स्रोत के रूप रूप में शिंन्दे द्वारा किए गए भ्रष्टाचार से हुई आय के रऊप में इंगित करते हुए इस पूरे प्रकरण की गहन जांच की मां अपने पत्र द्वारा मांननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष रखी है ।
ज्ञात हो कि हाल ही में मुम्बई उच्च न्यायालय की एक अस्थाई महिला न्यायाधीश भी पॉक्सो के कुछ वादों के निर्णयन के समय दैहिक शोषण की के विधिक नियमों की एक आपत्तिपूर्ण व्याख्या का परोक्ष -प्रत्यक्ष परिणाम ये रहा कि उन्हें फिलहाल स्थाई किए जाने की मनाही हो गई है ।
यहां कुछ सवाल बेहद महत्वपूर्ण हैं की देेे में न्यायपालिका पर लोगों के अटूट विश्वास के कारण न्यायाधीशों पर शुचिता और शिष्टाचार के सर्वोच्च मापदंडों पर खरा होना अपेक्षित है तो क्या उनके आचरण , शब्द और व्यव्हार तथा जीवन भी किसी संदेह , आशंका ,आरोप से पर होना चाहिए तो ऐसे में जब पीड़ितों का एक बड़ा समूह वो भी संविधान के प्रावधानों द्वारा संरक्षित /आदिवासी जनजातीय समुदाय तो यह अपने आप में असाधारण बात है ।
दूसरी और महत्वपूर्ण बात ये है कि न्याय का एक नैसर्गिक सिद्धांत होता है कि न्याय सिर्फ होना नहीं चाहिए बल्कि न्याय हुआ है ये भी दिखना/महसूस होना भी आवश्यक है तो यदि अपने निर्णयों से अदालतें आरोपियों /अपराधियों को भयाक्रांत नहीं कर पाती तो कम से कम पीड़ितों के न्याय के प्रति विश्वास को कायम तो रखने का प्रयास करें ।
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