एक समय की बात है , फिल्मी दुनिया में “बिहारी बाबू” के नाम से विख्यात शॉटगन यानि शत्रुघ्न सिन्हा अपन दूसरे साथी कलाकारों की तरह अपनी हीरो छवि की लोकप्रियता के सहारे बिहार के अभिनेता से राजनेता बनने के लिए राजनीति में उतर गए .

ये समय भाजपा के सत्तारूढ़ होने की प्रथम पारी के नायकों यानि अटल , आडवाणी ,जोशी वाली त्रयी और उनकी मंडली वाला समय था . उन दिनों सत्ता और पार्टी में प्रमुखता , पद , मान सब मिला मगर सिन्हा साब की एक दबी छिपी हुई मगर जगजाहिर मुराद पूरी नहीं हो पाई- और वो थी – प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने की . मगर बिहार की पीठ पर तो उस वक्त लालू यादव सवार थे . बाद में कमान आई भी हाथ तो तब तक समीकरण बदल चुके थे और सुशासन बाबू नीतीश कुमार नया चेहरा बन चुके थे .

वर्ष 2014 के चुनावों से ठीक पहले बदले परिदृश्य में भाजपा की अगली पंक्ति ने सिर्फ दायित्व संभाल चुकी थी बल्कि इस नई टीम ने केंद्रीय राजनीति से अलग हट कर एक प्रदेश का सफल नेतृत्व कर रहे सदस्य को अपने नेतृत्वकर्ता के रूप में घोषित कर लक्ष्य निर्धारित करके राजनीति में नई शैली और रिकॉर्ड स्थापित कर दिया

वर्षों तक केंद्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण पद , प्रभाव और मंत्रालय अपने पास रखने वाले बिहार के राजनेताओं की तरह से इसकी प्रतिक्रिया -कीर्ति आजाद , शत्रुघ्न सिन्हा और यशवंत सिन्हा जैसे तमाम का अचानक से मुख्य धारा की राजनीति से दरकिनार हो जाना . एक तरह जहां भारतीय जनता पार्टी बहुत लंबे समय तक सत्ता में न रहने के बावजूद भी बिखराव की स्थिति से बहुत दूर रहती है किंतु यहां तो मामला शायद , पद , सीट , टिकट से अधिक भी कुछ और ही होकर रह गया था , बहुतों के लिए . 

उन दिनों बहुत से तो सिर्फ इस वजह से मुंह फुलाए फूफा बन गए थे कि वे खुद को कम से कम नरेंद्र मोदी से अधिक बड़े पद और कद का आंक कर बैठे हुए थे . मगर वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों ने ये तय कर दिया था कि अब भाजपा का केंद्र और प्रभाव बिहार उत्तरप्रदेश से गुजरात महाराष्ट्र की तरफ मुड़ गया था .

तबसे लेकर सिन्हा जी , लोग करवट की तरह पार्टी बदलते रहे मगर यदि 82 वर्ष की आयु तक भी अभी समाज में अपना योगदान देने के लिए उन्हें तृणमूल कांग्रेस का हाथ और साथ थामना , ही सब कुछ बयाँ कर देता है .

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