शेरशाह सूरी उर्फ फरीद खान को हर इतिहासकार ने एक बहुत ही बहादुर शासक के रूप में वर्णित किया है। पुस्तकों में भी ये लिखा गया है कि हुमायूँ को हराकर वो दिल्ली का शासक बना था और उसने ही मुगल सत्ता को चुनौती दी थी।
नीतीश कुमार और जीतनराम मांझी जैसे राजनेता भी उसे अपना आदर्श स्वीकार करते है, लेकिन क्या आप जानते है इसी शेरशाह सूरी के राजस्थान के वीरों ने जिस प्रकार छक्के छुड़ाए थे उसके बारे में लोगो को कम ही जानकारी है और आज का लेख उन्ही वीरों की बहादुरी से सम्बन्धित है।

हल्दीघाटी युद्ध से 32 वर्ष पूर्व वो सन 1544 की बात है जब शेरशाह सूरी अपने साम्राज्य विस्तार की लालसा में राजस्थान की भूमि की ओर कदम बढ़ाता है। उस समय जोधपुर (मारवाड़) के राजा थे राव मालदेव जिन्होंने शेरशाह सूरी के सामने युद्ध की चुनौती स्वीकार की थी।
शेरशाह सूरी ने बड़ी ही चालाकी से युद्ध का स्थान “गिरी-सुमेल” को चुना क्योंकि वो जानता था कि ऊँचाई पर स्थित किले से वो युद्ध नही जीत पाएगा इसलिए वो अपने 80000 सैनिकों और 40 तोपों के साथ गिरी-सुमेल के समतल मैदान में डेरा लगाकर बैठ गया।
मारवाड़ शासक राव मालदेव भी अपने 50000 सैनिकों के साथ गिरी-सुमेल पहुँच गए।
दोनों सेनाएं एक महीने तक बिना संघर्ष के वहाँ बैठी हुई थी लेकिन एक महीने बाद शेरशाह को परेशानी आने लगी क्योंकि जो रसद सामग्री वो दिल्ली से लेकर चला था वो अब समाप्त होने लगी और दिल्ली दूर होने से राशन व्यवस्था बिगड़ने लगी थी।
ऐसी स्थिति में शेरशाह ने अपनी कुटिल नीति अपनाकर मालदेव की सेना के कुछ सरदारों को अपने पक्ष में कर लिया। भितरघात एवं सरदारों के विश्वासघात के कारण मालदेव को जोधपुर खोने का डर सताने लगा इसलिए वो अपनी सेना के साथ वापिस जोधपुर जाने का निर्णय करते है लेकिन सरदार जैता और सरदार कूम्पा जैसे वीर सेनापतियों के आग्रह एवं मारवाड़ स्वाभिमान के प्रश्न पर राव मालदेव 8000 सैनिकों को उनके पास छोड़कर शेष सैनिकों के साथ वापिस जोधपुर लौट जाते है।

05 जनवरी 1544 को जैता और कूम्पा के नेतृत्व में मारवाड़ के सैनिकों ने शेरशाह की सेना पर आक्रमण कर दिया। शेरशाह सूरी ये सोचकर प्रसन्न हो रहा था कि मेरे 80000 सैनिकों के सामने ये 8000 सैनिक ज्यादा देर नही टिक पाएंगे, लेकिन ऐसा कुछ नही हुआ।
जैता और कूम्पा के नेतृत्व में राजपूतों ने युद्ध की तस्वीर ही बदल दी और कुछ ही समय में शेरशाह की लगभग आधी से ज्यादा सेना को समाप्त कर दिया।
राजपूत सेना इतनी बहादुरी से लड़ी कि शेरशाह के मन में रण पराजय का भय सताने लगा और वो वापिस दिल्ली लौटने के लिए तैयार हो गया लेकिन युद्ध के अंतिम क्षणों में जब राजपूतों की विजय निश्चित सी हो गयी थी तब शेरशाह का विश्वासपात्र जलाल खां जलवानी अपनी सेना के साथ मैदान में पहुँच गया जिस कारण युद्ध का पासा ही पलट गया।
सरदार जैता, कूम्पा, अखैराज सोनगरा सहित सभी वीर सैनिक मातृभूमि की रक्षा करते करते वीरगति को प्राप्त हो गए।
एक फ़ारसी ग्रन्थ तारीख-ए-दाउदी के अनुसार युद्ध के समाप्त होने पर शेरशाह ने जैता और कूम्पा के विशाल शरीर को देखा और इनकी स्वामिभक्ति और वीरता की सराहना की।
शेरशाह ने कहा था कि,”ख़ुदा का शुक्र है कि किसी तरह फ़तह हासिल हो गई, वरना मैंने एक मुट्ठी भर बाजरे के लिए हिन्दूस्थान की बादशाहत ही खो दी थी।’’
यदि राव मालदेव युद्ध के मैदान से नही जाते तो शायद भारत का इतिहास कुछ और ही होता और शायद भारत में मुगलों की वापसी कभी नही हो पाती।

जो वीर सैनिक इस युद्ध में मारे गए थे उनका अंतिम संस्कार गिरी-सुमेल की रणभूमि में ही किया गया और आज भी उनकी बहादुरी के किस्से स्मारकों के रूप में जीवित है।
उन वीरों की याद में प्रतिवर्ष 05 जनवरी को “गिरी-सुमेल बलिदान दिवस” के रूप में मनाया जाता है ताकि आने वाली पीढियां भी ये बात जान सके कि हमारे पूर्वज भी महान वीर यौद्धा थे।
राजस्थान की लोक परम्परा में ये कहावत प्रसिद्ध है :-
“बोल्यो सूरी बैन यूँ, गिरी घाट घमसाण,
मुठी खातर बाजरी, खो देतो हिंदवाण”

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