बिहार में चुनावी जीत के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं में उत्साह है और उनका अगला पड़ाव अब पश्चिम बंगाल है, जहां अगले साल (अप्रैल-मई 2021) विधानसभा चुनाव होने हैं। पार्टी ने चुनावों के लिए ममता बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस सरकार के खिलाफ हाई-वोल्टेज हमले के लिए मैदान तैयार करना शुरू कर दिया है।

बंगाल के लिए भारतीय जनता पार्टी ने एक कोर टीम का गठन किया गया है, जहां 11 सदस्यीय इस टीम में ज्यादातर केंद्रीय नेता शामिल किए गए हैं। टीम के कुछ कोर सदस्य कोलकाता पहुंच गए हैं। बताया जा रहा है कि राज्य पार्टी इकाई के इनपुट के आधार पर यह टीम उम्मीदवारों की एक मूल लिस्ट तैयार करेगी और इसके साथ ही केंद्रित अभियान रणनीति के लिए एक सप्ताह के लिए चार्ट तैयार करेगी।

पार्टी सूत्रों ने कहा है कि राज्य में 294 विधानसभा क्षेत्र हैं, जिन्हें पांच क्षेत्रों में विभाजित किया जाएगा। इनमें से प्रत्येक को केंद्रीय पार्टी सचिव के प्रभार में रखा जाएगा। यह प्रभार केंद्रीय नेतृत्व के मार्गदर्शन में सभी निर्णयों को अंतिम रूप देंगे। हांलाकि जमीन पर भारतीय जनता पार्टी की वास्तविकता देखी जाए उसके लिए यह युनाव जीतना इतना आसान भी नहीं है, जितना कि बताया जा रहा है।

दरअसल बंगाल में कुल मिलाकर 294 सीट है, जिसमे साल 2016 में टीएमसी को 212 सीट मिली थीं और इनमें 98 सीट पर मुस्लिम वोट निर्णायक भूमिका निभाते हैं। इसमें से 30 सीट पर मुस्लिम जनसंख्या 30 फ़ीसदी है। बाक़ी 38 सीटों पर मुस्लिम जनसंख्या 20 फ़ीसदी है। कहने का अर्थ है कि 68 सीटों पर भाजपा के लिए कड़ा मुकाबला है, जबकि 30 सीटों पर भी उसके लिए राह आसान नहीं होने जा रही है।

ऐसा इसलिए माना जा रहा है कि क्योंकि भाजपा ने साल 2016 में बंगाल में 291 सीट पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, जिसमें से उसे केवल 3 सीट पर ही जीत मिली है। फिलहाल अभी बीजेपी ने इन मुस्लिम प्रभाव वाले 98 सीटों में से 68 सीटों को संभालने की ज़िम्मेदारी मुकुल राय को दी है और माना जा रहा है कि इन्हीं सीटों पर ओवैसी की गतिविधियां ज़्यादा रहेंगी, जिसने वर्त्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के माथे पर बल डाल दिया है।

हालांकि इन सीटों का भविष्य क्या होगा? यह तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन हम एक बार फिर वापस 2016 में लौटते हुए विभिन्न पार्टियों को मिले जनादेश के बारे में जान लेते हैं, ताकि भाजपा की मुश्किलों और संभावनाओं के बारे बेहतर तरीके से समझ सकें। साल 2016 के चुनाव में ममता बनर्जी की टीएमसी ने 184 के मुकाबले 211 सीट जीती थी और करीब 6 फीसदी की वोट वृद्धि के साथ कुल मत का 44 फीसदी हिस्सा प्राप्त किया था। कहने का अर्थ है कि तृणमूल कांग्रेस ने साल 2011 के मुकाबले साल 2016 में 27 सीटें ज्यादा जीती थीं।

साल 2016 के चुनाव में ममता बनर्जी की पार्टी को कुल मिलाकर 24,564,523 वोट प्राप्त हुए थे, जबकि दूसरे नम्बर पर रहने वाली कांग्रेस ने सीपीएम के साथ अपने गठबंधन में 2016 में 46 के मुकाबले 44 सीट ही पाई थी, यानि उसे 2 सीटों का नुकसान हुआ था, लेकिन यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि कांग्रेस के वोट फीसदी में करीब 3 फीसदी की वृद्धि हुई थी। इस चुनाव में कांग्रेस को कुल मतों का 12 फीसदी मिला था और राज्य भर में उसके 6,700,938 वोटर रहे।

इसी तरह तीसरे स्थान पर रहने वाली सीपीआई (एम) को साल 2016 में 40 के मुकाबले केवल 26 सीट ही प्राप्त हुई। यानि कि पार्टी को 14 सीटों का नुकसान हुआ। बंगाल में सीपीआई (एम) को कुल मत के 19 फीसदी के साथ 10,802,058 वोट मिले, जो कि करीब 10 फीसदी की गिरावट रही, जबकि 2016 में भाजपा के प्रदर्शन की बात करें तो इसके मत में करीब 10 फीसदी की वृद्धि हुई और 2011 के 0 सीट के मुकाबले 2016 में पार्टी 3 सीट जितने में कामयाब रही। भाजपा को बंगाल में साल 2016 में कुल मिलाकर 5,555,134 मत प्राप्त हुए थे।

ऐसे में साल 2016 के प्रदर्शन को देखा जाय तो वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी की स्थिति को बहुत बढ़िया नहीं कहा जा सकता है, लेकिन साल 2019 के लोकसभा चुनाव में मिले मत और बिहार जीत भारतीय जनता के लिए सकारात्मक संदेश माना जा रहा है।

दरअसल साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बंगाल में भाजपा 2 सीट पाई थी, लेकिन साल 2019 में यह आकड़ा 18 सीटों तक पहुंच जाता है, जबकि भारतीय जनता पार्टी की प्रमुख प्रतिद्वी तृणमूल कांग्रेस साल 2014 के चुनाव में जहां 34 सीट पाती हैं, वहीं साल 2019 के लोकसभा चुनाव में घटकर केवल 22 सीट रह जाती है। कहने का अर्थ है कि 2019 में भाजपा की लोकसभा में जहां 16 सीटें बढ़ जाती है, वहीं ममता बनर्जी की 12 लोकसभा सीट घट जाती है। इसके अलावा लोकसभा में तृणमूल को जहां 44 फीसदी मत के साथ 24,757,345 वोट प्राप्त हुए थे, वहीं भाजपा के वोट में करीब 23 फीसदी की वृद्धि हुई और कुल पड़े मत का करीब 40 फीसदी प्राप्त करते हुए 23,028,517 वोट पाए।

वर्ष 2019 में लोकसभा चुनाव में बड़ी बाजी मारने से पहले खुद भाजपा में भी यह संशय था कि पश्चिम बंगाल में वाम के लाल दुर्ग को ढहाने वाली ममता को चित करना बहुत मुश्किल है, लेकिन ममता की कमजोरियों को ही ताकत बनाने की रणनीति काम कर गयी। पहले चरण में बार बार यह स्पष्ट किया गया कि ममता सरकार की नीतियां एक समुदाय पर विशेष रूप से केंद्रित है। शुरुआत में उग्र ममता बाद में लीपापोती में तो जुटीं, लेकिन भरोसा नहीं जमा पायीं। उसके बाद भी जिस तरह ममता केंद्रीय योजनाओं को भी रोकती रहीं वह आम जनता को रास नहीं आया। आम चुनाव के दौरान टीएमसी के दो विधायक और 50 पार्षद भी बीजेपी में शामिल हुए थे।

हालांकि जानकार कहते हैं कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों की परिस्थितियां अलग-अलग होती हैं और दोनों के अलग मुद्दे व प्राथमिकताएं होती हैं। ऐसे में लोकसभा के प्रदर्शन को विधानसभा में दोहरा पाना भाजपा के लिए कड़ी चुनौती होगी। इसलिए भाजपा ममता सरकार के 10 साल के शासन, अपने कार्यकर्ताओं की मौत और रोहिगियां शरणार्थियों जैसे मुद्दे पर न केवल आक्रामक हमले करेगी, बल्कि ध्रुवीकरण का रास्ता भी अख्तियार कर सकती है। भाजपा अपने विकास के एजेंडे और बंगाल की बदहाली के मुद्दे को लेकर जनता के बीच जाने का प्रयास करेगी।

इसके अलावा बंगाल चुनाव पर बिहार की जीत के भी कई मायनें समझे जा रहे हैं और बंगाल चुनाव पर बिहार चुनाव का असर समझने के लिए ओवैसी फ़ैक्टर को समझना भी आप सबके ज़रूरी है। ओवैसी की पार्टी ने हाल ही में बिहार में संपन्न हुए चुनाव में पाँच सीटों पर जीत हासिल की है जिनमें से चार विधानसभा सीटें पश्चिम बंगाल सीमा पर स्थित हैं और इसके साथ ही उन्होंने 12-15 सीटों पर महागठबंधन को हराने का कार्य किया है।

विपक्ष के कई नेताओं का आरोप है कि बिहार में ओवैसी वोट कटवा की भूमिका में रहे और उन्होंने भारतीय जनता पार्टी व एनडीए गठबंधन को चुनाव जीताने में मदद की है। ऐसे में आशंका जताई जा रही है कि बंगाल में भी बिहार की तर्ज पर ओवैसी अगर लड़ते हैं तो वह कइयों का खेल खराब कर सकते हैं। वे बंगाल की 98 मुस्लिम बहुल सीट पर या तो निर्णायक भूमिका में होगे या वोटकटवा की भूमिका निभा सकते हैं।

यही वजह है कि ओवैसी ने ममता बनर्जी और कांग्रेस दोनों की नींद उड़ा दी है और अब दोनों अपनी रणनीति में बदलाव लाने की सोच रहे हैं। दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी भी इन सीटों पर अपनी बढ़त के लिए आक्रामक चुनाव प्रचार कर सकती है और ध्रुवीकरण के सबसे बड़े हथियार का इस्तेमाल कर सकती है। माना जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी इस बार के चुनाव में ममता बनर्जी के “आमार शोनार बांग्ला” की जगह “भारत हमारा है, एक है”, “भारत माता की जय” और “सबका साथ, सबका विकास” जैसे नारों पर ज्यादा जोर देगी।  

देखा जाए तो बीजेपी के लिए बहुत ज़रूरी है कि वह पश्चिम बंगाल में अपनी सीट बढ़ाये, जो कि 2024 के आम चुनाव के लिहाज़ से भी अहम है।  इसके लिए भारतीय जनता पार्टी ने बिहार चुनाव में जीत के साथ ही पश्चिम बंगाल चुनाव की तैयारियां भी शुरू कर दी हैं। बिहार की जीत के तुरंत बाद केंद्रीय गृह अमित शाह ने पश्चिम बंगाल में रैलियां करके चुनावी बिगुल भी फूंक दिया है। बीजेपी का ध्यान सबसे पहले आदिवासी इलाक़ों में अपनी जगह बनाने पर है जहां उन्हें इससे पहले भी राजनीतिक समर्थन मिला था। अमित शाह से लेकर बीजेपी के शीर्ष नेता इसी दिशा में आदिवासी इलाक़ों का दौरा कर रहे हैं।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी पिछले कई सालों से पश्चिम बंगाल में सक्रिय रूप से बीजेपी के लिए ज़मीन तैयार करने में लगी है और पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से लेकर छोटे बड़े शहरों में तमाम जगहों पर प्रतिदिन हज़ारों शाखाएं लग रही हैं। इसके अलावा बिहार चुनाव की जीत ने भगवा खेमे में निश्चित तौर पर उस्ताह भरने में कायमाब रही है। हालांकि यहां हमने पहले ही बताया कि लोकसभा और विधानसभा के इलेक्शन का कैरेक्टर अलग अलग होता है। ऐसे में यहां की सत्‍ता तक पहुंचने के लिए भाजपा को कुछ ज्‍यादा मेहनत करनी होगी और उसे यह भी ध्यान रखना होगा कि उसकी मुश्किलें अंत तक साथ नहीं छोड़ने वाली हैं। पश्चिम बंगाल में अगर लेफ्ट, कांग्रेस और ममता मिलकर एक साथ चुनाव लड़ते हैं तो भाजपा की राह मुश्किल हो सकती है।

भाजपा यह बात भी जानती है कि पश्चिम बंगाल में लेफ्ट कमजोर जरूर हुआ है, लेकिन खत्‍म नहीं हुआ है। यही वजह है कि इसको साधने के लिए भाजपा ने जेएनयू, जो कि लेफ्ट का गढ़ है, का सहारा लिया है। यहां पर दो वर्षों से पर्दे में ढकी स्‍वामी विवेकानंद की मूर्ति का अनावरण करके भाजपा ने लेफ्ट को ही साधने की कोशिश की है। बंगाल से संबंध रखने वाले स्वामी विवेकानंद की मूर्ति के जरिए भाजपा ने पश्चिम बंगाल के चुनाव को ही निशाना बनाया है, कंयोंकि इस मूर्ति का लेफ्ट हमेशा से ही विरोध करता रहा है और पिछले वर्ष इस मूर्ति के साथ तोड़फोड़ तक की गई थी। प्रधानमंत्री मोदी अपने भाषणों में कई बार स्वामी विवेकानंद की कही गई बातों को याद करते हुए दिखाई देते हैं और हाल ही में राजनैतिक गलियारों में प्रधानमंत्री के दाढ़ी की भी खासी चर्चा है!

पश्चिम बंगाल चुनाव को लेकर भारतीय जनता पार्टी के नेता कैलाश विजयवर्गीय का मानना है कि केवल बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम ही नहीं बल्कि भाजपा की देशभर में हुए उपचुनावों में जीत ने यह दिखाया है कि लोगों का विश्वास न केवल उसमें बल्कि केंद्र की भाजपा सरकार के नीतियों में भी बढ़ा है। उन्होंने कहा है कि बंगाल में एक परिवर्तन के लिए आधार तैयार हो चुका है और हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि तृणमूल कांग्रेस सरकार के खिलाफ गुस्से को एक दिशा मिले। पश्चिम बंगाल में हमारी पार्टी 200 सीट हासिल करेगी।

हालांकि तृणमूल कांग्रेस ने भाजपा के पश्चिम बंगाल में 200 से अधिक सीटें जीतने के लक्ष्य का मखौल उड़ाया है और सांसद एवं प्रवक्ता सौगत रॉय ने कहा कि जहां तक पश्चिम बंगाल में सत्ता में आने का सवाल है- भाजपा अभी भी काल्पनिक खुशी में है। अधिकतर सीटों पर उसके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो जाएगी। अब यहां तृणमूल के नेता भले ही ऐसी बातें कर रहे हों लेकिन वे यह बात अच्छे से जानते हैं कि अगर उसने अकेले चुनाव लड़ने का दम भरा तो लोकसभा की तरह नुकसान उठाना पड़ेगा।

वामदलों के लिए भी सत्ता तक पहुंचने के लिए सेकुलर गठबंधन की जरूरत है। क्योंकि, लेफ्ट के पास भी खड़े होने के लिए जमीन नहीं है। पिछले लोकसभा चुनाव में तृणमूल और भाजपा का मुकाबला बेहद नजदीक था। पार्टी के अंदर एक तबके का मानना है कि कांग्रेस को तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन करना चाहिए। पर यह संभावना उसी वक़्त खत्म हो गई, जब पार्टी ने अधीर रंजन चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी। चौधरी ममता बनर्जी विरोधी माने जाते है और कांग्रेस से तृणमूल के रिश्ते ठीक नहीं है। हालांकि आने वाले दिनों में परिस्थितियां किस करवट बैठती हैं और बीजेपी के खिलाफ लड़ने के लिए अन्य पार्टियां क्या रणनीति अपनाएंगी, कौन किससे गठबंधन करेगा? यह देखना बाकी है।

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