आजकल हिजाब बड़े चर्चे में है। चर्चे में घूंघट को भी होना चाहिए था। पर शिक्षण संस्थाओं में लड़कियां घूंघट नहीं करती हैं इसलिए हिजाब चर्चा में है घूंघट नहीं। वजह ये हिजाब वोट बैंक है पर घूंघट तो कुरीति है जैसे सती प्रथा एक कुरीति थी। अब हिजाब में समस्या क्यों है?
जबकि एक गाना है कि …
चेहरा छुपा लिया है किसी ने हिजाब में
जी चाहता है आग लगा दूं नकाब में।
मेरा सवाल यह है कि इस गाने पर आपत्ति क्यों नहीं है? गाना महेंद्र कपूर साहब ने गाया है फिल्म बी आर चोपड़ा की ‘ निकाह’ पर पूरी फिल्म में बातें तलाक और हलाला की।
इस हिजाब पर उसकी भी आपत्ति हो गई जिसको हिजाब हटाने पर नोबेल प्राइज मिला था।
पहले मोहतरमा को मलाल था कि हिजाब क्यों है और उनका फेमस बयान है कि “वन पेन एंड वन बुक कैन चेंज द वर्ल्ड ” परंतु आज उनकी समस्या है कि हिजाब क्यों नहीं?
शायद अब उनको पता चल गया कि अगर सर पर हिजाब होता तो तालिबानी बंदूक से चली गोलियां फिसल कर कहीं और चली गई होती और सिर में पैबश्त ना होतीं। जिन्हें पाकिस्तान और अफगानिस्तान में इस हिजाब से एतराज था उन्हें हिंदुस्तान की सर जमीन पर हिजाब की जरूरत लाजमी लग रही है।
मैं तो पर्दे का बड़ा कदरदान हूं। और घूंघट का भी। यह नकाब और घूंघट बिना पैसे का मेकअप है। जो भी घूंघट या नकाब में है , वह सुंदर है क्योंकि देखने वालों की निगाहों को वह एक यूटोपिया प्रदान करता है। हिजाब या घूंघट आंख वालों को भी कुछ देर के लिए एक आभासी सौन्दर्य के लिए यूटोपिया में डुबो देता है। शायद इसीलिए शिक्षण संस्थाओं में हिजाब हटाने की मांग उठी है कि कमसिन निगाहों को कम से कम धोखा तो ना हो, कैटरीना कैफ और मोहम्मद कैफ का तो फर्क दिखाई दे।
मेरा मानना है कि पारंपरिक वस्त्रों को किसी भी संस्थान में अनुमति मिलनी चाहिए। अगर कौशल सिखाने की संस्था है जैसे मिलिट्री स्कूल, नर्सिंग ट्रेनिंग सेंटर , एलएलबी, मेडिकल साइंस , इंजीनियरिंग के विभिन्न प्रभाग , इन सब कोर्सों के लिए उपयुक्त परिधान हो तो अच्छी बात है जिसे आप अनिवार्य ड्रेस कोड कह सकते हैं । परंतु सामान्य यशस्कूल और कॉलेजों के लिए किसी भी विशेष परिधान की अनिवार्यता या पारंपरिक परिधान को नकारने की परंपरा समाप्त होनी चाहिए। अगर अनिवार्य परिधानों का प्रावधान होता तो मेरे जैसे कई छात्र पैवंद लगी पैंट पहनकर कक्षाएं अटेंड नहीं कर पाते और शायद यह लेख लिखने की ताकत नहीं आ पाती क्योंकि अगर ड्रेस कोड होता जो पारिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि घर के कपड़े अलग और स्कूल के अलग खरीदे जा सकते थे। हम भाई बहनों के लिए तो हाफ पैंट और बुश्शर्ट या कुर्ता-पायजामा और बहन के लिए फ्राक या सलवार कमीज़ हीं होता था और सुबह नहा धो कर जो पहना तो चाहे बारात में जाना हो या स्कूल या खेलने के लिए… अगले दिन नहाने तक वही कर्ण के कुण्डल कवच सरीखा जिस्म से चिपका रहता था जबतक स्नान रूपी इन्द्र शरीर से उसका दान ना मांग ले।
घूंघट और हिजाब तो अमीरों के चोंचले हैं साहब। यह तो पाचक की गोली है जिन्हें सुख के कारण अजीर्ण हुआ हो उनके लिए जरूरी , हम जैसी आबादी तो के० कामराज के मिड डे मील वाली है, पढ़ाई भी इसलिए ताकि एक वक्त का खाना तो मिले।
हिजाब या घूंघट से नग्नता नहीं छुपती साहब। यह तो भरपेट खाने के बाद खाई जाने वाली सौंफ है या पाचक मान लीजिए।
दरअसल ये सेकुलर एजेंडे का नया मुद्दा है। यह वही तत्व है जो कभी रक्त रंजित सेनेटरी पैड के साथ शिंगणापुर के मंदिर में प्रवेश चाहता है तो कभी सबरीमाला में अपनी उपस्थिति दर्ज करना चाहता है परंतु ना तो मस्जिद में खवातीनों को घुसने देना चाहता है और ना ही किसी चर्च में महिला पादरी की नियुक्ति होने देता है।
इसका सारा जोर बस गरीब की लुगाई हिंदुत्व पर है। पढ़े-लिखे सेकुलर हिंदुओं की कायरता ने इस गरीब की लुगाई सनातन धर्म को सब की भौजाई बनने पर विवश कर दिया है।
यह एक एजेंडा है जिसके तहत हिंदुस्तानी आवाम की अक्ल पर पर्दा डालना हीं इस का खास मकसद है।
इस हालात पर सिर्फ एक कव्वाली याद आ रही है…
पर्दे में रहने दो पर्दा ना हटाओ
पर्दा जो उठ गया तो …
अल्ला मेरी तौबा।

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