जम्मू कश्मीर में एक स्कूल के स्टाफ रूम में घुसकर शिक्षकों का आई कार्ड देख कर उन्हें चुना गया और गोलियों से भून दिया गया, परंतु इस हत्या में ना तो वामपंथियों का कुछ बिगड़ रहा है ना कांग्रेसियों का और ना उस पर शासन चला रहे भाजपाइयों का।दिल्ली की सीमाओं पर किसान और तथाकथित किसान डेरा डाले हुए हैं, निश्चित रूप से आसपास की आबादी डरी हुई और प्रताड़ित होगी परंतु किसी के कान पर जूंँ तक नहीं रेंग रही है ,चाहे वह वामपंथी हो कांग्रेसी हो या भाजपाई। परंतु जानबूझकर आक्रामक माहौल बनवा कर एक मंत्री ने एक खास जगह पर अपना लाव लश्कर उतारने की घोषणा की वहां पर किसान और तथाकथित किसान विरोध करने के लिए जमा हुए और काले झंडे दिखाए गए और तीन एसयूवी गाड़ियांँ किसानों को रौंदती निकल गई। एक ड्राइवर पीट-पीटकर मार दिया गया परंतु इसमें कुछ कान खड़े हो गए , कुछ को नया हाथरस मिल गया तो कुछ को बेवजह विपक्ष को कोसने का मौका। राम से लेकर रावण तक वहां पहुंचने के लिए तत्पर हो गए। सुनहरे नाक वाली अनिंद्य सुंदरी से लेकर विदेशी एयरपोर्ट पर ड्रग्स के साथ पकड़ा हुआ पकड़ा गया नौजवान भी एक्टिव हो गया। संविधान पर आस्था रखने वाला रावण भी जागृत हो गया कोर्ट भी सक्रिय हो गया और राज्य की सत्ता भी।परंतु मेरे विचार से केंद्र की निष्क्रियता उस शिखंडी की तरह है जो इन आंदोलनों में से किसी एक को अर्जुन बना उसके रथ पर बैठकर विपक्ष के भीष्म को आहत या हत करना चाहता है। समस्या यह है इन दो बड़े बड़े सांढों की लड़ाई में अवाम पिट रही है। जम्मू कश्मीर के एक स्कूल की सिख प्रिंसिपल शहीद हो गई है, एक हिन्दू शिक्षक पर शहीद हो चुका है, एक पटरी ठेलेवाला मारा जा चुका है , उस एसयूवी का ड्राइवर मारा जा चुका है कुछ किसान या किसान के वेश में भाड़े पर आए लोग कारों के नीचे आकर मर चुके हैं परंतु सट्टा आगामी सत्ता के सट्टे पर अपने नागरिकों की बलि चढ़ा रही है या दाँव लगा रही है।अगर देशद्रोहियों का आपको पता है , अगर समस्या की जड़ का पता है तो सत्ता क्यों बैठी हुई है और पता नहीं है तो सत्ता में है हीं क्यों? जब कांग्रेसी सत्ता ने भारतीयों के सहज परिस्थितियां उत्पन्न नहीं की इसीलिए तो इस दक्षिणपंथी राजनीतिक दल को जनता ने प्रचंड बहुमत से सत्ता प्रदान की। परंतु शायद इस सत्ताधारी दल को आज भी अपने सत्ता प्राप्ति पर विश्वास नहीं है। आज भी उसे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नेहरू और विपक्ष में खुद की अनुभूति होती है।कम से कम अपने दायित्वों के लिए तो आत्मनिर्भर हुआ जाए या उसके लिए भी नेहरू और नेहरू के डीएनए को ही कोसना बाकी रह जाएगा। अब तो सत्ता के नव नामकरण और विनिवेश की प्रक्रिया को देखकर यह लगता है कि इन उपद्रवों का नामकरण शांति कर दिया जाए और देश में शांति व्यवस्था का विनिवेश कर दिया जाए। पॉसिबल हो तो पटेल की मूर्ति की तरह उसे चीन से ही क्रियान्वित करवाया जाए।

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