में एक भाषण के दौरान तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था कि स्वतंत्रता के समय देश की जीडीपी में बंगाल की हिस्सेदारी 25 प्रतिशत थी और अब ये केवल 4 प्रतिशत है। ऐसे में ये सवाल उठता है कि पश्चिम बंगाल की अर्थव्यवस्था के इस विनाश के लिए किसे दोषी ठहराया जाना चाहिए? राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचलित सामाजिक-आर्थिक नीतियां या राज्य की अक्षम सरकारें? दुर्भाग्य से इन दोनों ने ही पश्चिम बंगाल की अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है,और बंगाल को सबसे अमीर से सबसे गरीब राज्यों की श्रेणी में लाने में इन सभी की महत्वपूर्ण भूमिका रही हैं। अगर हम राजनीतिक दृष्टि से पूरी दुनिया पर नजर डाले तो जहां-जहां भी साम्यवाद रहा है, वहां-वहां गरीबी ने अपने पैर पसारे हुए हैं। साम्यवाद और गरीबी अर्थव्यवस्था में समानांतर रूप से चलते हैं। खास बात यह है कि इस स्थिति में अभिव्यक्ति की आजादी को भी खत्म करने के भरसक प्रयास किए जाते रहे हैं। देश के समृद्ध राज्य पश्चिम बंगाल को साम्यवाद का ये अभिषाप चार दशक पहले 1977 में लग गया था, और तब से वहां राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक क्षति ही हो रही है। उस 34 साल के वामपंथी शासन के बाद ममता बनर्जी शासन में आईं।

सन 2000 में जिन आर्थिक सुधारों को मुख्यमंत्री बुद्धादेव भट्टाचार्य ने लागू किया। 2011 में उन्हीं का विरोध कर तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी बंगाल की सत्ता में आईं। पश्चिम बंगाल में ममता को “वामपंथियों से भी बड़ा वामपंथी” माना जाता है। भट्टाचार्य निजी उद्योगों को पश्चिम बंगाल में लाना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) का अधिग्रहण भी किया था, लेकिन इसके खिलाफ ममता बनर्जी ने टीएमसी के नेतृत्व में माटी मानुष (माता, मातृभूमि और लोग) का नारा देकर विरोध प्रदर्शन किया और इसके कारण 2007 में नंदीग्राम में हिंसा हुई थी। वहीं सिंगूर में टाटा के नैनों प्रोजेक्ट का विरोध उन्हें प्रचार-प्रसार की एक नई सीमा तक ले गया जिसके बाद उनकी 2011 में ताजपोशी हो गई।

कम्युनिस्ट पार्टी के शासन काल में उद्योगपतियों के साथ हुए सलूक के चलते उद्योग बंद होने लगे। लगातार होती हड़तालों और हिंसा से उद्योग बंगाल छोड़कर दूसरे राज्यों का रुख करने लगे, और ममता बनर्जी के आने के बाद यह स्थिति बदली नहीं बल्कि इन स्थितियों में अधिक तीव्रता आई। तृणमूल सरकार देसी बनाम बाहरी के चक्कर में राज्य के उद्योगों को खत्म करने पर तुली रही, क्योंकि अधिकांश उद्योगपति मारवाड़ी और गुजराती ही थे।

पश्चिम बंगाल की जीडीपी में विनिर्माण का हिस्सा 1981-82 में 21 प्रतिशत से घटकर 13 प्रतिशत हो गया था। राज्य में बैंक डिपॉजिट पैन इंडिया के 11.4 प्रतिशत से घटकर 7 प्रतिशत हो गया। बुनियादी ढांचे के मोर्चे पर, पश्चिम बंगाल का सूचकांक 1980 में 110.6 था, जिसका मतलब देश के बाकी हिस्सों की तुलना में 10.6 प्रतिशत बेहतर था और अब ये सूचकांक 90.8 अंक तक गिर गया है। इसकी अपेक्षा अन्य राज्यों में सुधार देखने को मिला हैं। उड़ीसा 81.5 से 98.9 अंक तक इस सूचकांक में सुधर गया।

पिछले कुछ दशकों में बंगाल स्वास्थ्य और शिक्षा के पैमानों में सबसे खराब प्रदर्शन करने वालों में से एक रहा है। HDI के मामले में एक वक्त पश्चिम बंगाल भारतीय राज्यों की सूची में आठवें स्थान पर था और 2018 में ये 28 वें स्थान पर फिसल गया, जो 20 स्थान की भारी गिरावट का संदेश देता है।

प्रोडक्शन के मामले में कोलकाता आजादी के समय देश के अग्रणी शहरों में से एक था, लेकिन अब PwC की रिपोर्ट बताती है कि, 2025 में शहरों की सूची में मुंबई GDP (Purchasing power Parity) के मामले में 594 बिलियन डॉलर्स के साथ 10वें स्थान पर होगा, वहीं दिल्ली 482 बिलियन डॉलर्स के साथ 19वें स्थान पर होगा, जबकि कोलकाता इस सूची में शामिल तक नहीं होगा।

राज्य सभी सामाजिक-आर्थिक सूचकांकों में बदतर हो चला है। बंगाल में आजादी के समय सबसे अधिक प्रति व्यक्ति आय हुआ करती थी, लेकिन अब प्रति व्यक्ति आय के मोर्चे पर इसका स्थान 19वां है। यह डेटा ही हमें यह बताने के लिए पर्याप्त है कि बंगाल की पिछली राज्य सरकारों ने कितना बुरा प्रदर्शन किया था। स्वतंत्रता के समय, बंगाल ने भारत के सकल घरेलू उत्पाद का एक चौथाई उत्पादन किया था, और अब यह गुजरात के पीछे छठे स्थान पर पहुंच गया है, जिसकी आबादी पश्चिम बंगाल से लगभग आधी है।

ममता बनर्जी लोगों के सामाजिक-आर्थिक कल्याण के बारे में बात करती हैं, लेकिन कठोर तथ्य यह है कि राज्य में देश में जीएसडीपी अनुपात (जीडीपी-ऋण का अनुपात) में सबसे खराब है। सीधा सवाल है, अगर सरकार के पास पैसा नहीं है, तो वो सरकारें स्वास्थ्य, शिक्षा और पीडीएस जैसी कल्याणकारी योजनाओं पर कैसे खर्च करेगी? दूसरी ओर, राज्य पर कर्ज का विशेष दबाव है जिसकी बड़ी वज़ह वामदलों की सरकारें हैं।

ममता बनर्जी ने भी इन कर्ज को बढ़ाने में अपना योगदान दिया है। आज की स्थिति में राज्य के पास सबसे कम पूंजी व्यय है। यह समस्या अयोग्य कल्याणकारी योजनाओं पर सरकार द्वारा अधिक राजस्व खर्च करने के कारण आई है। राजस्व बढ़ाने में असमर्थता और राजस्व के खर्च में निगरानी रखने की प्रवृत्ति ने राज्य में पूंजीगत व्यय को कम कर दिया है जिससे जीडीपी और राज्य के विकास की रफ्तार थम गई है।

वाम मोर्चे और टीएमसी ने राज्य की अर्थव्यवस्था को नष्ट कर दिया है और राज्य को विकास के पथ पर वापस लाने के लिए एक शासन परिवर्तन आवश्यक है, जो इसे दोबारा ‘सोनार बांग्ला’ बना सके।

DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text.