त्यौहारों की धरती भारत में हिन्दू नववर्ष में खास महत्त्व है. चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को वर्ष प्रतिपदा या युगादि भी कहा जाता है. इस दिन हिन्दु नववर्ष का आरम्भ होता है. किवदंतियों के अनुसार इसी दिन ब्रह्माजी ने सृष्टि का निर्माण किया था, तो इसी दिन से नया संवत्सर (नवसंवत्सर) भी शुरू होता है. शुक्ल प्रतिपदा का दिन चंद्रमा की कला का प्रथम दिवस माना जाता है. जीवन का मुख्य आधार ‘वनस्पतियों को सोमरस’ चंद्रमा ही प्रदान करता है और इसे ही औषधियों और वनस्पतियों का राजा कहा गया है. संभवतः इसीलिए इस दिन को वर्षारंभ माना जाता है. नववर्ष की प्रणाली ब्रह्माण्ड पर आधारित होती है, यह तब शुरु होता है जब सूर्य या चंद्रमा मेष के पहले बिंदु में प्रवेश करते हैं।
चैत्र ही एक ऐसा माह है जिसमें वृक्ष तथा लताएं पल्लवित व पुष्पित होती हैं। इसी मास में उन्हें वास्तविक मधुरस पर्याप्त मात्रा में मिलता है। वैशाख मास, जिसे माधव कहा गया है, में मधुरस का परिणाम मात्र मिलता है। इसी कारण प्रथम श्रेय चैत्र को ही मिला और वर्षारंभ के लिए यही उचित समझा गया। जितने भी धर्म कार्य होते हैं, उनमें सूर्य के अलावा चंद्रमा का भी महत्वपूर्ण स्थान है।
हिन्दू नववर्ष को अगर प्रकृति के लिहाज से देखें, तो चैत्र शुक्ल पक्ष आरंभ होने के पूर्व ही प्रकृति नववर्ष आगमन का संदेश देने लगती है. प्रकृति की पुकार, दस्तक, गंध, दर्शन आदि को देखने, सुनने, समझने का प्रयास करें, तो हमें लगेगा कि प्रकृति पुकार-पुकार कर कह रही है कि नवीन बदलाव आ रहा है, नववर्ष दस्तक दे रहा है. वृक्ष अपने जीर्ण वस्त्रों (पुराने पत्तों) को त्याग रहे हैं, तो वायु (तेज हवाओं) के द्वारा सफाई अभियान भी चल रहा है. फिर वृक्ष पुष्पित होते हैं, आम बौराते हैं, यह सब मिलाकर वायु में सुगंध और मादकता की मस्ती घुल सी जाती है.
अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि का सम्बन्ध भी चैत्र (अप्रैल) महीने से ही जुड़ा हुआ है. चैत्र में फसलों की कटाई होने के बाद किसानों के पास धन आता है और जब उनके पास धन आएगा तो निश्चित रूप से खुशहाली उनके कदम चूमेगी.
प्राचीन काल में एक समय था जब पूरी दुनिया में हर व्यक्ति एक ही कैलेंडर मानता था; चंद्र कैलेंडर, आज भी, तुर्की और ईरान में, लोग चंद्र कैलेंडर ही मानते हैं; इसके अनुसार मार्च से नए वर्ष की शुरुआत होती है परंतु लंदन के राजा किंग जॉर्ज, जनवरी से नव वर्ष शुरू करना चाहते थे क्योंकि वह उस माह में पैदा हुए थे। यह उनका नव वर्ष था, इसमें कोई संदेह नहीं है, लेकिन उन्होंने पूरे ब्रिटिश साम्राज्य पर यह नव वर्ष लागू कर दिया !
भले ही आज अंग्रेजी कैलेंडर का प्रचलन बहुत अधिक हो गया हो लेकिन उससे भारतीय कलैंडर की महता कम नहीं हुई है। आज भी हम अपने व्रत-त्यौहार, महापुरुषों की जयंती-पुण्यतिथि, विवाह व अन्य शुभ कार्यों को करने के मुहूर्त आदि भारतीय कलैंडर के अनुसार ही देखते हैं।
ऐतिहासिक रूप से इसकी पृष्ठभूमि में अनेक कथाएं सुनने को मिलती हैं, किन्तु यह एक अजीब बिडम्बना है कि आज के आधुनिक समय में हमारी स्वस्थ भारतीय परम्पराओं को एक तरह से तिलांजलि ही दे दी गयी है. पाश्चात्य सभ्यता के ‘न्यू ईयर’ को हैपी बनाया जाने लगा है, किन्तु वैज्ञानिक रूप से तथ्यपरक होने के बावजूद हिन्दू नववर्ष को लोग महत्वहीन करने की कोशिशों में जुटे रहते हैं. 31 दिसंबर की आधी रात को नव वर्ष के नाम पर नाचने गाने वाले आम-ओ-ख़ास को देखकर आखिर क्या तर्क दिया जा सकता है!
भारतीय त्यौहारों के सन्दर्भ में बात कही जाय तो न सिर्फ हिन्दू नव वर्ष, बल्कि प्रत्येक भारतीय त्यौहार हमारी सभ्यता से गहरे जुड़े हुए हैं और हमारे भूत, यानि हमारे बुजुर्ग, वर्तमान यानि युवा पीढ़ी और भविष्य यानि बच्चों के बीच में गहरा सामंजस्य स्थापित करते हैं. भारतीय त्यौहारों में एक संतुलन तो पाश्चात्य त्यौहारों में असंतुलन, एकाकीपन और यदि थोड़ा आगे बढ़कर कहा जाय तो शराब, ऐसे कृत्य आदि इत्यादि के प्रयोगों से भारतीय शास्त्रों में वर्णित ‘राक्षसी-प्रवृत्ति’ तक का दर्शन होता है. इसके अतिरिक्त हमारे हिन्दुस्थान में सभी वित्तीय संस्थानों का नववर्ष भी 1 अप्रैल से प्रारम्भ होता है, इस प्रकार के समृद्ध नववर्ष को छोड़कर यदि हम किसी और तरफ भागते हैं तो इसे हमारी अज्ञानता के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता है. जरूरत है इस अज्ञानता से हर एक को प्रकाश की ओर बढने की. शायद तभी हिन्दू नववर्ष यानी भारतीय नववर्ष की सार्थकता पुनः स्थापित होगी और इस सार्थकता के साथ समृद्धि, खुशहाली और विकास अपने पूर्ण रूप में प्रकाशमान होगा।
( लेखक के निजी विचार है )

  • पवन सारस्वत मुकलावा
    कृषि एंव स्वंतत्र लेखक

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