⚔️⚔️वीरांगना रानी पद्मावती ⚔️⚔️

आज की कहानी है एक ऐसे रानी की, जो इतिहास की सबसे चर्चित रानियों में से एक है। आज भी राजस्थान में चित्तौड़ की इस रानी की सुंदरता के साथ-साथ शौर्य और बलिदान के किस्से प्रसिद्ध हैं। लेकिन इन्हें ख्याति मिली कुछ वर्ष पूर्व जब उनके और क्रूर मुस्लिम शासक अलाउद्दीन खिलजी पर फ़िल्म बनी और पूरे इतिहास को तोड़ मरोड़ कर हमारे समक्ष प्रस्तुत कर दिया गया। जी हाँ! हम बात कर रहे हैं चितौड़ की शेरनी, रानी पद्मिनी जिसे रानी पद्मावती के नाम से भी जानते हैं। हमारे इस लेख को अंत तक पढ़ियेगा क्यों कि आज हम आपको बना-बनाया इतिहास और उसे खंडन करते हुए साक्ष्य पेश करेंगे जो वामपंथी एवं मुस्लिम इतिहासकारों के षड़यंत्र को बयां करती है। तो आइए संक्षेप में पढ़ते हैं रानी पद्मावती के बारे में। इससे पहले कि हम आगे बढ़ें, आपको बताते चलें कि रानी पद्मावती के विषय में मुख्य स्रोत मलिक मुहम्मद जायसी कृत ‘पद्मावत’ नामक महाकाव्य है।

जिस किसी ऐतिहासिक स्रोतों या ग्रंथों में ‘पद्मावती’ या ‘पद्मिनी’ का वर्णन हुआ है वे सभी ‘पद्मावत’ से प्रेरित ही मालूम पड़ते हैं।

● कौन थीं रानी पद्मावती

जायसी द्वारा रचित पद्मावत महाकाव्य के अनुसार, राजकुमारी पद्मिनी का जन्म 1270 ईसवी में सिंहल देश (मौजूदा श्रीलंका) के राजा गंधर्वसेन और रानी चंपावती के महल में हुआ था। बचपन में पदमिनी के पास “हीरामणी ” नाम का बोलता तोता हुआ करता था, जिससे साथ वो अपना अधिकतर समय बिताती थीं। रानी पदमिनी बचपन से ही बहुत सुंदर थी और बड़ी होने पर उनके पिता ने उनका स्वयंवर आयोजित किया। इस स्वयंवर में उनके पिता ने सभी हिन्दू राजाओं और राजपूतों को बुलाया। राजा रावल रतन सिंह भी पहले से ही अपनी एक पत्नी नागमती होने के बावजूद स्वयंवर में गए थे। प्राचीन समय में राजा एक से अधिक विवाह करते थे, ताकि वंश को अधिक उत्तराधिकारी मिले। राजा रावल रतन सिंह वहाँ एक योगी के वेश में पहुंचे और उन्होंने मलखान सिंह (अनाम छोटे प्रदेश के राजा) को स्वयंवर में हराकर पदमिनी से विवाह कर लिया। विवाह के बाद वो अपनी दुसरी पत्नी पदमिनी के साथ वापस चित्तौड़ लौट आए।

रावल रतन सिंह का राज चितौड़ पर था, एक अच्छे शासक और पति होने के अलावा रतन सिंह कला के संरक्षक भी थे।उनके दरबार में कई प्रतिभाशाली लोग थे जिनमे से राघव चेतन संगीतकार भी एक था। एक दिन राघव चेतन की किसी बुरी आदत से नाराज़ होकर राजा ने उसका मुंह काला करवाकर और गधे पर बिठाकर अपने राज्य से निर्वासित कर दिया। राजा रतन सिंह की इस कठोर सजा के कारण राघव चेतन उनका दुश्मन बन गया और दिल्ली दरबार जाकर अलाउदीन ख़िलजी से मिल गया। राघव चेतन ने सुल्तान को रानी पद्मिनी की सुन्दरता का बखान किया जिसे सुनकर खिलजी की रानी को पाने के लिए लालायित हो उठा।अपनी राजधानी पहुचने के तुरंत बात उसने अपनी सेना को चित्तौड़ पर आक्रमण करने को कहा क्योंकि उसका सपना रानी पद्मावती को अपने हरम में रखना था। बेचैनी से चित्तौड़ पहुचने के बाद अलाउदीन को चित्तौड़ का किला भारी सुरक्षा में दिखा। उस प्रसिद्ध सुन्दरी की एक झलक पाने के लिए वो पागल हो रहा था और उसने राजा रतन सिंह को ये कहकर भेजा कि वो रानी पदमिनी को अपनी बहन समान मानता है और उससे मिलना चाहता है। सुल्तान की बात सुनते ही रतन सिंह ने उसके रोष से बचने और अपना राज्य बचाने के लिए उसकी बात से सहमत हो गया। रानी पदमिनी अलाउदीन को कांच में अपना चेहरा दिखाने के लिए राजी हो गयी।जब अलाउदीन को ये खबर पता चली कि रानी पदमिनी उससे मिलने को तैयार हो गयी है वो अपने चुनिन्दा योद्धाओं के साथ सावधानी से किले में प्रवेश कर गया। रानी पदमिनी के सुंदर चेहरे को कांच के प्रतिबिम्ब में जब अलाउदीन खिलजी ने देखा तो उसने सोच लिया कि रानी पदमिनी को अपनी बनाकर रहेगा।वापस अपने शिविर में लौटते वक़्त अलाउदीन कुछ समय के लिए रतन सिंह के साथ चल रहा था। खिलजी ने मौका देखकर रतन सिंह को बंदी बना लिया और पदमिनी की मांग करने लगा।चौहान राजपूत सेनापति गोरा और बादल ने सुल्तान को हराने के लिए एक चाल चलते हुए खिलजी को संदेश भेजा कि अगली सुबह पद्मिनी को सुल्तान को सौप दिया जाएगा। अगले दिन सुबह भोर होते ही 150 पालकियां किले से खिलजी के शिविर की तरफ रवाना की गई।पालकियां वहाँ रुक गयी जहा पर रतन सिंह को बंदी बना रखा था। पालकियों को देखकर रतन सिंह ने सोचा, कि ये पालकियां किले से आयी है और सम्भवतः उनके साथ रानी भी यहाँ आयी होगी, इस पर वो अपने आप को बहुत अपमानित समझने लगा। लेकिन उन पालकियों में ना ही उनकी रानी और ना ही दासियां थीं और अचानक से उसमे से पूरी तरह से सशस्त्र सैनिक निकले और रतन सिंह को छुड़ा दिया और खिलजी के अस्तबल से घोड़े चुराकर तेजी से घोड़ो पर पर किले की ओर भाग गये।किंतु गोरा इस मुठभेड़ में बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये जबकि बादल,रतन सिंह को सुरक्षित किले में पहुचा दिया।

जब सुल्तान को पता चला कि उसकी योजना नाकाम हो गयी, तब सुल्तान ने गुस्से में आकर अपनी सेना को चित्तौड़ पर आक्रमण करने का आदेश दिया। सुल्तान के सेना ने किले में प्रवेश करने की कड़ी कोशिश की लेकिन नाकाम रहा। अब खिलजी ने किले की घेराबंदी करने का निश्चय किया और ये घेराबंदी इतनी कड़ी थी कि किले में खाद्य आपूर्ति धीरे धीरे समाप्त हो गयी। अंत में राजा रतन सिंह ने द्वार खोलने का आदेश दिया, लेकिन ख़िलजी और उसके सैनिकों से लड़ते हुए रतन सिंह वीरगति को प्राप्त हो गए। ख़िलजी ने किले के अंदर सूचना भिजवाया कि रानी पद्मिनी को दासियों के साथ उसके हवाले कर दिया जाए या फिर वो चित्तौड़ के सभी पुरुषों को खोजकर मार डालेगा। ये सुचना सुनकर रानी पद्मिनी ने सोचा कि अब सुल्तान की सेना चितौड़ के सभी पुरुषो को मार देगी। अब चित्तौड़ की औरतों के पास दो विकल्प थे या तो वो जौहर के लिए प्रतिबद्ध हो या विजयी सेना के समक्ष अपना निरादर सहे।

सभी महिलाओं का पक्ष जौहर की तरफ था।इसके बाद एक विशाल चिता जलाई गयी और रानी पदमिनी के बाद चित्तौड़ की सारी औरतें उसमें कूद गयी और इस प्रकार दुश्मन बाहर खड़े देखते रह गये। अपनी महिलाओं की मौत पर चित्तौड़ के पुरुष के पास जीवन में कुछ नही बचा था। चित्तौड़ के सभी पुरुषों ने साहस प्रदर्शन करने का प्रण लिया जिसमे प्रत्येक सैनिक केसरी वस्त्र और पगड़ी पहनकर दुश्मन सेना से तब तक लड़े जब तक कि वो सभी खत्म नही हो गये। विजयी ख़िलजी सेना ने जब किले में प्रवेश किया तो उनको राख और जली हुई हड्डियों के अतिरिक्त कुछ नहीं मिला। जिन महिलाओं ने जौहर किया उनकी याद आज भी लोकगीतों में जीवित है जिसमे उनके गौरवान्वित कार्य का बखान किया जाता है। तो इस तरह खत्म होती है मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित कपोल कल्पना से भरी हुई महाकाव्य “पद्मावत”। बहुत से लोग इस इतिहास पर विश्वास करते हैं पर कुछ लोग इसे झूठ भी मानते हैं।

● “आइए इतिहास के साथ हुए खिलवाड़ को एक अलग दृष्टिकोण से देखते हैं।”

◆ अलाउदीन ख़िलजी और राजा रतन सिंह के बीच 1302 मे युद्ध हुआ था।लेकिन इसके बारे में उस समय के किसी भी समसामयिक इतिहासकार ने नहीं लिखा है। 200 साल से अधिक गुजर गए थे जब मलिक मोहम्मद जायसी ने पद्मावत नाम की कविता लिखी, अवधी भाषा में।इसमें ही सबसे पहले अलाउद्दीन का रानी पद्मिनी को देखकर उस पर मोहित होने की बात लिखी गई है। यहां इतिहास के साथ सबसे पहली मिलावट ये थी कि रानी पद्मिनी को गंधर्वसेन जो श्रीलंका का राजा है, उनकी बेटी बताया गया। जबकि इतिहास में कभी भी किसी राजपूत स्रोत ने राजपूतों के श्रीलंका में होने की पुष्टि नहीं की है।

◆असल बात तो ये है कि ये कहानी जहां तहां से सुनाई गई प्रतीत होती है। सब जगह अलग-अलग। जायसी के अनुसार अलाउद्दीन पद्मिनी को अपने विजयी अभियान के पहले खुद देखने आता है,तो वह अपने साथ एक शीशा लेकर आता है और उसमें पद्मिनी को देखता है। वहीं एक और मुस्लिम लेखक अबुल फजल द्वारा लिखित आइन-ए-अकबरी जायसी शीशे की कहानी को बदलते हुए बताता है कि खुद रतन सिंह ने वह शीशा महल में रखवाया था। लेकिन इस सब के बीच किले पर अलाउद्दीन द्वारा हमले की बात कहीं भी नहीं बताई गई है।

◆इतिहासकार कहते हैं कि बहुधा अन्य सब बातें कथा को रोचक बनाने के लिए कल्पित खड़ी की गई है। क्यों कि असलियत में रत्नसिंह एक बरस भी राज्य करने नहीं पाए, ऐसी दशा में योगी बन कर उस की सिंहलद्वीप (लंका) तक जाना और वहाँ की राजकुमारी को ब्याह लाना कैसे संभव हो सकता है! बताते चलें कि उस समय सिंहलद्वीप के राजा गंधर्वसेन नहीं किन्तु राजा कीर्तिनिश्शंक देव पराक्रमबाहु (चौथा) या भुवनेक बाहु (तीसरा) थे। असल मे सिंहलद्वीप में गंधर्वसेन नाम का कोई राजा ही नहीं हुआ। दूसरा अलाउद्दीन ने छः महीने लड़ कर चित्तौड़ ले लिया था,वह एक ही बार चित्तौड़ पर चढ़ा था,इसलिए दूसरी बार आने की कथा कल्पित ही प्रतीत होती है। साथ ही उसने किले पर अपनी विजय पताका फहराकर वहाँ के 30,000 नागरिकों को मौत के घाट उतारा। जबकि जायसी ने बताया है कि अलाउद्दीन निराश होकर दिल्ली लौट गया।

इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि जायसी रचित पद्मावत महाकाव्य की कथा में ऐतिहासिकता ढूँढना बहुत हद तक निरर्थक ही है। कुछ नाम ऐतिहासिक अवश्य हो सकते हैं, परंतु घटनाएं अधिकांशतः कल्पित ही हैं। कुछ घटनाएँ जो ऐतिहासिक हैं भी उनका संबंध 1303 ईस्वी से न होकर 1500 ईस्वी के आसपास है। रानी पद्मिनी, राजा रतन सिंह और अलाउद्दीन खिलजी पर लिखने वाले एक और इतिहासकार  कर्नल टॉड का वर्णन भी काफी हद तक अनैतिहासिक प्रतीत होता है। क्यों कि “कर्नल टॉड ने यह कथा विशेषकर मेवाड़ के भाटों के आधार पर लिखी है और भाटों ने उस सब घटना का उल्लेख ‘पद्मावत’ से लिया है।

टिप्पणी : जब इतिहास की घटनाएं समय के साथ पुरानी होने लगती है तो कभी कभी उसे जीवंत बनाये रखने के लिए उसमें मिलावट किया जाता है। और ऐसी मिलावट करने में वामपंथी एवं मुस्लिम इतिहासकार माहिर हैं। ऐसा ही कुछ रानी पद्मिनी, राजा रत्नसिंह तथा अलाउद्दीन खिलजी के साथ भी हुआ है। हालांकि इन्हें लेकर इतिहासकारों के बीच काफी पहले से पर्याप्त मंथन हो चुका है। और इस संदर्भ में सर्वाधिक उद्धृत तथा प्रमाणभूत महामहोपाध्याय रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा का मत माना गया है। ओझा जी ने पद्मावत की कथा के संदर्भ में स्पष्ट लिखा है कि “इतिहास के अभाव में लोगों ने पद्मावत को ऐतिहासिक पुस्तक मान लिया,परंतु वास्तव में वह आजकल के ऐतिहासिक उपन्यासों की तरह कविताबद्ध है।जिसका इतिहास से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है।

अंत में यह कहना उचित होगा कि रानी पद्मिनी के संबंध में दी गयी सभी घटनाएँ सम्भवतः सत्य की कसौटी पर खड़ी नहीं उतरें, किन्तु रानी पद्मिनी की विद्यमानता, आक्रमण के समय उनकी सूझबूझ, उनके द्वारा जौहर व्रत का नेतृत्व आदि घटनाओं का एक स्वतंत्र महत्व है।जिसके बारे में आज भी राजस्थान के लोग बड़े गर्व से सुनते एवं सुनाते हैं।

जय नारी शक्ति
भारत माता की जय

????????️

DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text.