रणदीप सिंह हुड्डा का ये कहना कि जाट एक जाति है बल्कि नश्ल है, इसे उत्तेजना में यूँ ही छेड़ी गयी बहस कहकर नही टाला जा सकता। इस पर अपनी एक उदार राय कायम करने से पहले हाल ही में घटी कुछ घटनाओं को सरसरी निगाहों से देखा जाना चाहिए।
पहले किसान आंदोलन, उसमे सरदारों की अहम भूमिका, उसके बाद राकेश टिकैत की अगुआई, लालकिला की घटना, परिणामस्वरूप राकेश टिकैत को केन्द्रविन्दु वनाकर मीडिया में नायक के रूप में पेश करना, उन्हें रुलाना और उनके आंसुओ की मार्केटिंग करना, उसके बाद एक जाट नेता के द्वारा ये कह कर जाटों की भावनाओ को छेड़ना कि अगर कृषि बिल वापस नही किया गया तो जाट हिन्दू धर्म छोड़कर सिख धर्म अपना लेंगे और अब अंततः उन्हें ये यकीन दिलाना कि आप जाति नही, बल्कि एक नश्ल है, इतनी घटनाएं एक साथ यू ही नही हो रही है। इसके पीछे आने वाले दशकों की सुनियोजित योजनाएं है। जिसमें शामिल होने वाले किरदारों के उद्देश्यों को अगर समझने की कोशिश की जाए तो निःसंदेह वह काफी भ्रामक है मग़र ये भ्रम उद्देश्यों की कमजोरी नही अपितु मजबूती है।
कालांतर में साकार होने वाली इस योजना के कई किरदार केवल किरदार है, जिन्हें स्क्रिप्ट पता ही नही है, वह सिर्फ वही एक्ट कर रहे हैं जो निर्देशक उन्हें करने को कह रहा है जबकि कुछ राजनीतिक किरदार साजिशकर्ताओ (निर्देशक) के आंशिक साझीदार है, जिन्हें स्क्रिप्ट तो पता है लेकिन उन्हें यकीन भी है अंततः अपने उद्देश्यों की पूर्ति के उपरांत वह कहानी का क्लीमेक्स बदल देंगे और ये वह लोग हैं जो हिन्दुओ के नाम पर भाजपा की चुनाव दर चुनाव फतह से चिंतित है और यकीनन ऐसे लोगों का उद्देश्य राजनीतिक महत्वकांक्षा तक सीमित है, और इसीलिए उन्हें जाटों को हिन्दुओ से अलग पहचान देने या देने वालों के साथ खड़ा होने में कोई बुराई नज़र नही आ रही है, लेकिन अगर किरदार और निर्देशक से आगे की बात करें तो इस पूरी फ़िल्म का कहानीकार इन सबसे दूर कहीं बैठा है, जो इस कहानी की शुरुवात और क्लीमेक्स दोनो लिख चुका है।
कहा जाता है कि वर्तमान ‘खालिस्तान’ की परिकल्पना पंजाब तक सीमित नही है, इसमे हरियाणा, हिमांचल प्रदेश और राजस्थान का भी एक बड़ा हिस्सा भी सामिल है और इन इलाकों में जाटों की एक बड़ी तादाद है, और अगर इनकी हिन्दू होने की पहचान मिटा दी जाए तो हिंदुत्व के नाम पर इनका ध्रुवीकरण संभव नही होगा और जिसका खामियाजा हिन्दुओ के वोट पर नज़र गड़ाए बैठी भाजपा जैसी पार्टियों को काफी नुकसान होगा और भाजपा का यही ‘राजनैतिक नुकसान’ ही कहानी का वह हिस्सा है जिसकी मौजूदगी की वजह से कहानीकार को पूर्ण विश्वास था कि कई राजनीतिक दल व राजनेता आसानी से उसकी इस स्क्रिप्ट के अहम किरदार बन जायेंगे।
किसान आंदोलन के दौरान कैंपो से लेकर दिल्ली की सड़क और लालकिला तक देश के ख़िलाफ़ लगातार गतिविधियां होती रही मग़र भाजपा के विरोध के नाम पर तथाकथित देश का देशभक्त विपक्ष उन देशविरोधी गतिविधियों पर पर्दा डालता रहा। ऐसा नही है कि आजाद भारत के 72 साल के इतिहास में राजनीतिक लाभ के लिए राजनीतिक पार्टियों द्वारा देश को पहली बार ताक पर रख गया है, इससे पहले भी ऐसी नादानियां होती रही हैं, इससे पहले भी राजनीतिक लाभ को केंद्र में रखकर देश के खिलाफ जाकर फैसले लिए गए थे, जिसके परिणाम को आने वाली पीढ़ियों दशकों तक भुगतती रही। कश्मीर और पंजाब इसका जीता जागता उदाहरण है जहाँ अस्थिरता फैलाने वाले लोग शुरुवात में सत्ता या विपक्ष में बैठे राजनीतिक आकाओं द्वारा ही पाले व पोषे गए थे।कश्मीर की अस्थिरता से देश आज भी जूझ रहा है जबकि पंजाब इंदिरा गांधी की शहादत की कीमत पर स्थिर हुआ था।
यद्यपि इंदिरा गाँधी की शहादत न पहली थी न आखिरी, आतंकवाद से शुरू हुए, स्थिरता तक के सफर में न जाने कितने सुरक्षाबलों व देशभक्तों को कुर्बानियां देनी पड़ी, दुर्भाग्यवश ये किस्सा आज की पीढ़ियों को किसी किताब में नही पढ़ाया जाता और यही वजह है कि जाटों को धीरे धीरे हिन्दुओ से दूर ले जाकर, कहानीकार इस बार पूर्व से बड़े भूखंड, नए प्लान और ज्यादा किरदारों को इकट्ठा करके खालिस्तान की बुझ चुकी आग को एक बार फिर भड़काना चाहता है।
देश के बुद्धिजीवियों, से लेकर नौनिहालों तक को ये समझना पड़ेगा कि जाटों को हिन्दुओ से दूर ले जाने की कोशिश सिर्फ एक सामाजिक बदलाव नही होगा बल्कि इसका असर भारत की एकता अखंडता और भविष्य पर भी पड़ेगा। आज से 20 से 30 साल बाद देश महसूस करेगा कि पंजाब, हरियाणा और राजस्थान का पूरा क्षेत्र नश्ल की अफीम के साथ कैसे एक सुनियोजित योजना पर एकत्रित हो गया। और इसका असर ये होगा कि कट्टरपंथियों के लिए खालिस्तान के नाम पर लोगो का समर्थन या सहानिभूति हासिल करना ज्यादा आसान हो जाएगा।
– राजेश आनंद
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