परशुराम राजा प्रसेनजीत की पुत्री रेणुका और भृगुवंशीय ऋषि जमदग्नि के पुत्र, भगवान श्री विष्णु के अवतार और भगवान शिवजी के परम भक्त थे । इन्हें भगवान शिव से विशेष परशु प्राप्त हुआ था । इनका नाम राम था, किन्तु शंकर जी द्वारा प्रदत्त अमोघ परशु को सदैव धारण कर रखने के कारण ये परशुराम कहलाते थे । भगवान विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार, जो वामन एवं रामचन्द्र के मध्य में गिना जाता है । इनका जन्म वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था । अत: इस दिन परशुराम जयंती एक व्रत और उत्सव के रूप में मनाई जाती है ।
कार्य
अधम क्षत्रियों का वध : `वाल्मीकी जी ने उसको `क्षत्रविमर्दन’ न कहते हुए `राजविमर्दन’ कहा है । इसलिए हम कह सकते हैं कि परशुराम ने पूरे क्षत्रियों का संहार नहीं किया, अपितु दुष्ट-दुर्जन क्षत्रिय राजाओं का संहार किया ।’ कार्तवीर्य ने जमदग्नि ऋषि के आश्रम से कामधेनु तथा उसके बछडे को अगुवा किया । उस समय परशुराम जी वहां नहीं थे । वापस आने पर जैसे ही उन्हें यह बात पता चली, उन्होंने कार्तवीर्य का वध करने की शपथ ली । नर्मदा नदी के किनारे पर उन दोनों में द्वंद्व युद्ध हुआ, जिसमें परशुराम ने उसका वध किया । तत्पश्चात अपने पिता जमदग्नि की आज्ञा के अनुसार वे तीर्थयात्रा एवं तपस्या करने निकल पडे । परशुराम के जाने के पश्चात कार्तवीर्य के वध का प्रतिशोध लेने हेतु उन्होंने जमदग्नि ऋषि का सिर धड़ से अलग कर उनकी हत्या की । यह समाचार ज्ञात होते ही परशुराम जी आश्रम में पहुंचे । जमदग्नि की देह पर हुए इक्कीस घावों को देखकर उसी क्षण उन्होंने शपथ लेते हुए कहा कि `हैहय एवं अन्य अधम क्षत्रियों द्वारा की गई ब्रह्म हत्या के दंडस्वरूप पृथ्वी को इक्कीस बार नि:क्षत्रिय करूंगा ।’ इस शपथ के अनुसार उन्होंने उन्मत्त क्षत्रियों का नाश करना, युद्ध समाप्त होने पर महेंद्र पर्वत पर जाना, क्षत्रिय उन्मत्त हुए तो पुनः उनको नष्ट करना ऐसे इक्कीस उपक्रम किए । समंतपंचका में अंतिम युद्ध कर उन्होंने अपना रक्तरंजित परशु धोया एवं शस्त्र नीचे रखा ।
क्षेत्रपालदेवताओं के स्थान प्रस्थापित करना : परशुराम ने 21 बार पृथ्वी-परिक्रमा करते हुए 108 शक्तिपीठ एवं तीर्थस्थान अर्थात क्षेत्रपाल देवताओं के स्थान प्रस्थापित किए ।
विशेषताएं
अग्रत: चतुरो वेदा: पृष्ठत: सशरं धनु: ।
इदं ब्राह्मं इदं क्षात्रं शापादपि शरादपि ।।
अर्थ : चार वेद मौखिक हैं अर्थात पूर्ण ज्ञान हैं एवं पीठ पर धनुष्य-बाण हैं अर्थात शौर्य है । अर्थात यहां ब्राह्मतेज एवं क्षात्रतेज, दोनों हैं । जो कोई इनका विरोध करेगा, उसे शाप देकर अथवा बाण से परशुराम पराजित करेंगे, ऐसी उनकी विशेषता है ।
श्रीराम में तेज प्रक्षेपित करना : एक समय (दशरथपुत्र) श्रीराम की कीर्ति के संदर्भ में सुनकर उनके पराक्रम की परीक्षा लेने हेतु परशुराम उनके मार्ग में आए एवं अपना धनुष्य श्रीराम के हाथों में देकर उनसे कहा कि उसे झुकाते हुए बाण लगाकर दिखाएं । श्रीराम ने वैसा ही किया एवं पूछा कि यह बाण कहां पर लगाना है । परशुराम ने राम से कहा, `इस (काश्यपी) भूमि पर मेरी जो गति है उसे निरुद्ध करें’ । परशुराम के ऐसा कहने पर श्रीराम ने वैसा किया । इस अवसर पर परशुराम ने अपना धनुष्य श्रीराम को दे दिया । इस प्रकार धनुष्य देकर परशुराम ने श्रीराम में अपना क्षात्रतेज प्रक्षेपित किया ।
धनुर्विद्या का सर्वोत्तम शिक्षक : एक बार शस्त्र नीचे रखने पर परशुराम ने क्षत्रियों के साथ शत्रुता समाप्त कर ब्राह्मण तथा क्षत्रिय सभी लोगों को समभाव से अस्त्र-शस्त्र विद्या सिखाना आरंभ किया । महाभारत के भीष्माचार्य, द्रोणाचार्य इत्यादि महान योद्धा परशुराम के ही शिष्य थे ।
दानशूर : परशुराम ने क्षत्रियों का वध करने हेतु जो उपक्रम किए, उससे उन्हें संपूर्ण पृथ्वी पर स्वामित्व मिला, उन्हें अश्वमेध यज्ञ का अधिकार प्राप्त हुआ तथा उन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया । परशुराम ने यज्ञ के अंत में इस यज्ञ के अध्वर्यु कश्यप को पूरी भूमि दान की ।
भूमि की नवनिर्मिति : जब तक परशुराम इस भूमि पर हैं, तबतक क्षत्रिय कुल का उत्कर्ष नहीं होगा, यह जानकर कश्यप ने परशुराम से कहा, `अब इस भूमिपर मेरा अधिकार है । तुम्हें यहां रहने का भी अधिकार नहीं है ।’ तदुपरांत परशुराम ने समुद्र हटाकर अपना क्षेत्र उत्पन्न किया । वैतरणी से कन्याकुमारी तक के भूभाग को `परशुरामक्षेत्र’की संज्ञा दी गई है । परशुराम सप्तचिरंजीवों में एक हैं ।
परशुरामक्षेत्र : सह्याद्रिके उत्तर अग्र पर साल्हेर के पर्वत के मध्ययुगीन गढ पर, पंजाब में कांगडा जिले में, कोकण में चिपलूण से पांच मील की दूरी पर एक पर्वत पर तथा गोमंतक में कानकोन में परशुराम जी का एक प्राचीन मंदिर है ।
मूर्ति : भीमकाय देह, मस्तक पर जटाभार, कंधे पर धनुष्य एवं हाथ में परशु, ऐसी होती है परशुराम की मूर्ति ।
पूजाविधि : परशुराम विष्णु के अवतार हैं, इसलिए उन्हें उपास्य देवता मानकर पूजा जाता है । वैशाख शुक्ल तृतीया की परशुराम जयंती एक व्रत और उत्सव के रूप में मनाई जाती है ।
आइए इस लेख से सीख लेते हुए अपने अंदर परशुराम जी के सामान क्षात्र तेज और ब्रह्म तेज जागृत करें और हिन्दू राष्ट्र की स्थापना हेतु कृतसंकल्पित हों ।
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