माँ जगदम्बा, जिन्हें आदिशक्ति, पराशक्ति, महामाया, काली, त्रिपुरसुंदरी इत्यादि विविध नामों से सभी जानते हैं । जहांपर गति नहीं वहां सृष्टि की प्रक्रिया ही थम जाती है । ऐसा होते हुए भी अष्ट दिशाओं के अंतर्गत जगत की उत्पत्ति, लालन-पालन एवं संवर्धन के लिए एक प्रकार की शक्ति कार्यरत रहती है । इसी को आद्याशक्ति कहते हैं । उत्पत्ति-स्थिति-लय यह शक्ति का गुणधर्म ही है । शक्ति का उद्गम स्पंदनों के रूप में होता है । उत्पत्ति-स्थिति-लय का चक्र निरंतर चलता ही रहता है ।
नवरात्रि का इतिहास – राम के हाथों रावण का वध हो, इस उद्देश्य से महर्षि नारद ने प्रभु श्रीराम से इस व्रत का अनुष्ठान करने का अनुरोध किया था । इस व्रत को पूर्ण करने के पश्चात श्रीरामजी ने लंका पर आक्रमण कर अंत में रावण का वध किया । देवी ने महिषासुर नामक असुर के साथ नौ दिन अर्थात प्रतिपदा से नवमी तक युद्ध कर, नवमी की रात्रि उसका वध किया । उस समय से देवी को ‘महिषासुरमर्दिनी’ के नाम से जाना जाता है ।
नवरात्रि में नौ दिनों में शक्ति उपासना करनी चाहिए – `असुषु रमन्ते इति असुर: ।’ अर्थात् `जो सदैव भौतिक आनंद, भोग-विलासिता में लीन रहता है, वह असुर कहलाता है ।’ आज प्रत्येक मनुष्य के हृदय में इस असुर का वास्तव्य है, जिसने मनुष्य की मूल आंतरिक दैवीवृत्तियों पर वर्चस्व जमा लिया है । इस असुर की माया को पहचानकर, उसके आसुरी बंधनों से मुक्त होने के लिए शक्ति की उपासना आवश्यक है । इसलिए नवरात्रि के नौ दिनों में शक्ति की उपासना करनी चाहिए । हमारे ऋषि-मुनियों ने विविध श्लोक, मंत्र इत्यादि माध्यमों से देवीमां की स्तुति कर उनकी कृपा प्राप्त की है । श्री दुर्गासप्तशती के अध्याय 11.12 के एक श्लोक में कहा गया है,
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमो:स्तुते ।।
अर्थात शरण आए दीन एवं आर्त लोगों का रक्षण करने में सदैव तत्पर और सभी की पीडा दूर करने वाली हे देवी नारायणी, आपको मेरा नमस्कार है । देवी की शरण में जाने से हम उनकी कृपा के पात्र बनते हैं । इससे हमारी और भविष्य में समाज की आसुरी वृत्ति में परिवर्तन होकर सभी सात्त्विक बन सकते हैं । यही कारण है कि, देवीतत्त्व के अधिकतम कार्यरत रहने की कालावधि अर्थात नवरात्रि विशेष रूप से मनायी जाती है ।
नवरात्रि का अध्यात्मशास्त्रीय महत्व – ‘जग में जब-जब तामसी, आसुरी एवं क्रूर लोग प्रबल होकर, सात्त्विक, उदारात्मक एवं धर्मनिष्ठ सज्जनों को छलते हैं, तब देवी धर्मसंस्थापना हेतु पुनः-पुनः अवतार धारण करती हैं । उनके निमित्त यह व्रत है । नवरात्रि में देवीतत्त्व अन्य दिनों की तुलना में 1000 गुना अधिक कार्यरत होता है । देवीतत्त्व का अत्यधिक लाभ लेने के लिए नवरात्रि की कालावधि में ‘श्री दुर्गादेव्यै नमः।’ नामजप अधिकाधिक करना चाहिए ।
घटस्थापना का शास्त्र एवं महत्व – ‘मिट्टी अथवा तांबे के कलश में पृथ्वीतत्त्वरूपी मिट्टी में सप्तधान के रूप में आप एवं तेज का अंश बोकर, उस बीज से प्रक्षेपित एवं बंद घट में उत्पन्न उष्ण ऊर्जा की सहायता से नाद निर्मिति करनेवाली तरंगों की ओर, अल्पावधि में ब्रह्मांड की तेजतत्त्वात्मक आदिशक्तिरूपी तरंगें आकृष्ट हो पाती हैं । मिट्टी के कलश में पृथ्वी की जडत्वदर्शकता के कारण आकृष्ट तरंगों को जडत्व प्राप्त होता है और उनके दीर्घकालतक उसी स्थानपर स्थित होनेमें सहायता मिलती है । तांबे के कलश के कारण इन तरंगों का वायुमंडल में वेग से ग्रहण एवं प्रक्षेपण होता है और संपूर्ण वास्तु मर्यादित काल के लिए लाभान्वित होती है । घटस्थापना के कारण शक्तितत्त्व की तेजरूपी रजोतरंगें ब्रह्मांड में कार्यमान होती हैं, जिससे पूजक की सूक्ष्म-देह की शुद्धि होती है ।
घटस्थापना (मिट्टी अथवा तांबे के कलश में मिट्टी डालकर सप्तधान बोना) – नवरात्रि के प्रथम दिन घटस्थापना करते हैं । घटस्थापना करना अर्थात नवरात्रि की कालावधि में ब्रह्मांड में कार्यरत शक्तितत्त्व का घट में आवाहन कर उसे कार्यरत करना । कार्यरत शक्तितत्त्व के कारण वास्तु में विद्यमान कष्टदायक तरंगें समूल नष्ट हो जाती हैं । कलश में जल, पुष्प, दूर्वा, अक्षत, सुपारी एवं सिक्के डालते हैं ।
घटस्थापना की विधि में देवी का षोडशोपचार पूजन किया जाता है । घटस्थापना की विधि के साथ कुछ विशेष उपचार भी किए जाते हैं । पूजाविधि के आरंभ में आचमन, प्राणायाम, देशकालकथन करते हैं । तदुपरांत व्रत का संकल्प करते हैं । संकल्प के उपरांत श्री महागणपतिपू्जन करते हैं । इस पूजन में महागणपति के प्रतीकस्वरूप नारियल रखते हैं । व्रतविधान में कोई बाधा न आए एवं पूजास्थलपर देवीतत्त्व अधिकाधिक मात्रा में आकृष्ट हो सकें इसलिए यह पूजन किया जाता है । श्री महागणपतिपूजन के उपरांत आसनशुद्धि करते समय भूमिपर जल से त्रिकोण बनाते हैं । तदुपरांत उसपर पीढा रखते हैं । आसनशुद्धि के उपरांत शरीरशुद्धि के लिए षडन्यास किया जाता है । तत्पश्चात पूजासामग्री की शुद्धि करते हैं ।
नवरात्रि महोत्सव में कुलाचारानुसार घटस्थापना एवं मालाबंधन करें – खेत की मिट्टी लाकर दो पोर चौडा चौकोर स्थान बनाकर, उसमें पांच अथवा सात प्रकार के धान बोए जाते हैं । इसमें (पांच अथवा) सप्तधान्य रखें । जौ, गेहूं, तिल, मूंग, चेना, सांवां, चने सप्तधान्य हैं । कुछ स्थानोंपर जौ की अपेक्षा अलसी का, चावल की अपेक्षा सांवां का एवं कंगनी की अपेक्षा चने का उपयोग भी करते हैं । मिट्टी पृथ्वी तत्त्व का प्रतीक है । मिट्टी में सप्तधान के रूप में आप एवं तेज का अंश बोया जाता है ।
सप्तधान एवं कलश (वरुण) स्थापना – जल, गंध (चंदनका लेप), पुष्प, दूर्वा, अक्षत, सुपारी, पंचपल्लव, पंचरत्न व स्वर्णमुद्रा अथवा सिक्के आदि वस्तुएं मिट्टी अथवा तांबे के कलश में रखी जाती हैं । सप्तधान एवं कलश (वरुण) स्थापना के वैदिक मंत्र यदि न आते हों, तो पुराणोक्त मंत्र का उच्चारण किया जा सकता है । यदि यह भी संभव न हो, तो उन वस्तुओं का नाम लेते हुए ‘समर्पयामि’ बोलते हुए नाममंत्र का विनियोग करें । माला इस प्रकार बांधें कि वह कलश में पहुंच सके ।
श्री दुर्गादेवी आवाहन विधि – कलशपर रखे पूर्णपात्र पर पीला वस्त्र बिछाते हैं । उसपर कुमकुम से नवार्णव यंत्र की आकृति बनाते हैं । सर्वप्रथम पूर्णपात्र में बनाए नवार्णव यंत्र की आकृति के मध्य में देवी की मूर्ति रखते हैं । मूर्ति की दाईं ओर श्री महाकाली के तथा बाईं ओर श्री महासरस्वती के प्रतीकस्वरूप एक-एक सुपारी रखते हैं । मूर्ति के सर्व ओर देवी के नौ रूपों के प्रतीकस्वरूप नौ सुपारियां रखते हैं । अब देवी की मूर्ति में श्री महालक्ष्मी का आवाहन करने के लिए मंत्रोच्चारण के साथ अक्षत अर्पित करते हैं । मूर्ति की दाईं ओर रखी सुपारीपर अक्षत अर्पण कर श्री महाकाली एवं बाईं ओर रखी सुपारीपर श्री महासरस्वती का आवाहन करते हैं । तत्पश्चात नौ सुपारियोंपर अक्षत अर्पण कर नवदुर्गा के नौ रूपों का आवाहन करते हैं तथा इनका वंदन करते हैं ।
संदर्भ – सनातनका ग्रंथ, ‘त्यौहार मनानेकी उचित पद्धतियां एवं अध्यात्मशास्त्र‘, ‘धार्मिक उत्सव एवं व्रतों का अध्यात्मशास्त्रीय आधार’ एवं ‘देवीपूजनसे संबंधित कृत्योंका शास्त्र‘ एवं अन्य ग्रंथ
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