आज फन्ने मियां की साइकिल कुछ ज्यादा ही आवाज़ कर रही थी, मोहल्ले के लौंडो ने मियां साहेब की साइकिल रोक ली और लगे चिढ़ाने।
“अरे चाचा तुम्हारी आयशा आज कुछ ज्यादा आवाज़ कर रही है, रात को कुछ खटपट हुई क्या तुम्हारे बीच “, कासिम ने चिढ़ाते हुए कहा। अब फन्ने मियां तो फन्ने मिया ठहरे वो भला चुप कैसे रहे, तपाक से जबाब दिया “अपनी अम्मी से पूछ लियो , जब भी मैंने आयशा की सवारी की है उसने ‘या अली’ के सिवाय किसी का नाम नहीं लिया”, बाद भी सही थी उनकी , साइकिल की चू चू कुछ इस प्रकार निकलती थी मानो हर चाल में ‘या अली’ का नाम ले रही हो, शायद इसीलिए उन्हें अपने दादा जी की दी गयी साइकिल इतनी पसंद थी। अली का नाम भी सुनाई दे जाता था और सफर भी कट जाता था।
फन्ने चाचा का पलटवार सुन एक बार को कासिम सकपकाया, पर ये आज के लौंडे थे इतनी आसानी से हार कहाँ मानने वाले थे, जाते जाते फन्ने मियां को आवाज लगाते हुए कहा “ओ चाचा तुम्हारी आयशा ‘या अली’ नहीं ‘बजरंगबली’ का नाम लेती है। ये सुनने के बाद फन्ने मिया को ऐसा लगा जैसे कयामत आ गयी हो, साइकिल रोक लगे भद्दी भद्दी गालियां देने पर लौंडे कहाँ रुकने वाले, खीसें निपोरते हुए कब का उड़नछू हो चुके थे। खैर मन तो खट्टा हो ही गया था, पर फिर भी जाना तो था ही, आखिर बचपन का मित्र शुक्ला कई साल बाद गांव आया था, सुबह ही संदेशा भिजवाया था, पर दाढ़ी बाल कटवाते, कुर्ते पैजामे में नील टीनोपाल डाल, स्त्री करवाने और अब लौंडो की बकवास की वजह से सूरज डूबने का समय होने लगा।
भारी मन से थोड़ा आगे बढे ही की उन्हें कासिम की बात याद आ गयी, “चाचा आपकी आयशा अली नहीं बजरंगबली का नाम लेती है”, ये याद आते ही कलेजा मुँह को आ गया, लगे कान लगा के साइकिल की आवाज फिर से सुनने। ‘वहम’ काफी बेरहम बीमारी होती है, और उसके शिकार फन्ने मियां भी हो चुके थे , अब उन्हें वाकई ऐसा लग रहा था की उनकी आयशा बजरंगबली का नाम ले रही है। एक एक पेडल दिल पे हथोड़े की तरह चोट कर रहा था, उनकी आयशा अब बेवफा हो चुकी थी, गुस्सा भी आ रहा था की कैसे वह एक बेवफा पे अपनी जान छिड़कते थे, खुद को ठगा हुआ महसूस करते, भारी मन से शुक्ला के घर पहुंचे। शुक्ला जी ने अत्यंत प्रेम भाव से उन्हें गले लगाया, भोजन के बाद दोनों मित्र बात करने बैठे, तो बातों बातों में फन्ने मियां को ये बात पता चली की शुक्ला के घर काम करने वाले नौकर को एक साइकिल की आवश्यकता है , ये सुनते ही फन्ने ख़ान की आँखे चमक उठी, मानो उन्हें आयशा से इंतकाम लेने का मौका मिल गया, तपाक से बोल उठे ‘मित्र तुम तो जानते हो मेरी आयशा मुझे कितनी प्यारी है, आज तक इसे जिगर से लगा के रखा पर अब मेरी उम्र हो गयी है, अब इसकी जिम्मेदारियां उठाये नहीं उठती, बच्चों के पाव तो मोटर गाड़ी से नीचे उतरते नहीं और मेरा भी आना जाना अब ना के बराबर है तो मित्र मेरी आयशा आज से तुम्हारी हुई, इंकार न करना, मुझे विश्वास है मेरी आयशा का ख्याल तुम अच्छे से रखोगे और इसकी सवारी आज भी बोहोत लजीज है, कभी तुम भी कर सकते हो, सेहतमंद रहोगे’। शुक्ला जी गदगद हो आनंद विभोर हो अपने मित्र को देख रहे थे, फन्ने ने दोस्त के लिए आयशा क़ुर्बान कर दी, हाय इसका ये त्याग तो दधीचि सामान है, कृतज्ञता से दोनों हाथ जोड़ शुक्ला जी ने चाभी ले ली और मित्र को मोटर गाड़ी से घर तक छोड़ने का आदेश दिया।
फन्ने ख़ान ने शुक्ला के घर पर खड़ी आयशा को आखरी बार देखा और पान थूकते हुए मन ही मन कहा ‘तेरी बेवफाई की सजा यही है, तू आज से एक काफिर के घर इस्तेमाल की जायेगी। ये कहते हुए वह गाड़ी में बैठ घर को चले गए| अगली सुबह नौकर उसी साइकिल से बाजार दूध ब्रेड लेने गया और वापसी में शुक्ला जी के सामने आयशा की तारीफ में पुल बाँध दिए, ‘अरे साहेब ये साइकिल तो एकदम मक्खन की तरह चलती है , और इसकी ईश्वर पे निष्ठा तो देखिये इतने दिन मुसलमान के घर रहते हुए भी बजरंगबली का नाम लेती है।
शुक्ला जी एकदम भौचक्के रह गए, अपने मित्र के त्याग का कारण उन्हें समझ आ गया, एक पल में उनका दिल आयशा की वफादारी से भर उठा, और बरसो की मित्रता पे छल ने अपना काल साया डाल दिया था, वह प्रेम से आयशा के पास गए और पुचकारते हुए कहा, “क्यों री इतने दिन उस मुसलमान के साथ रह कर भी भगवान् को तू नहीं भूली और एक मैं ही मुर्ख था जो दोस्ती के लिए अपना धर्म भ्रष्ट करने चला था, आज के बाद तू सिर्फ मेरी अमानत है, अब तुझे कोई दुःख नहीं देगा”। शाम को पान खाने शुक्ला जी उसी साइकिल से बाजार गए, वहां पनवारी ने उन्हें साइकिल पे सवार देख यूँ ही पूछ लिया की साइकिल कहाँ से ली, शुक्ला जी बोहोत पुराने ग्राहक थे उसके सो, सारी बात बता दी। पनवारी ने गंभीर मुद्रा में शुक्ला जी से कहा, ‘आप बोहोत भोले हो शुक्ला जी, आज तक जो उनके साथ रहा वह मजहबी उन्माद से कब बच पाया जो ये साइकिल बच पाएगी, उसपे से इसका नाम भी आयशा है, जरा देना चाभी, मैं सवारी कर के देखूँ, उस मुसलमान ने कैसे बेवक़ूफ़ बनाया आपको’। धड़कते दिल से चाभी उस पनवारी को दे दी, यूँ तो पान मुहँ में था पर हलक सूख रहा था, पनवारी थोड़ी देर बाद लौट के आया और हँसते हुए कहा ‘पंडित जी आपकी आयशा ‘बजरंगबली’ नहीं ‘या अली’ का नाम ले रही है’, उस मुल्ले ने आपको अच्छे से ठग लिया। इतना सुनते ही शुक्ला जी गुस्से में आयशा को घसीटते हुए घर ले आये और कोने पे पटक दिया और अपने ड्राइवर से फन्ने ख़ान को बुलावा भेजा, और खुद बरामदे में बैठ उनका इंतज़ार करने लग। कुछ देर बाद उनकी गाड़ी फन्ने मियां को ले घर के अंदर आये ही थे की शुक्ला जी ने तपाक से गुस्से में उनका कालर पकड़ लिया, और लगे गड़ियाने। फन्ने मियां भी कहाँ पीछे हटने वाले थे, थोड़ी देर गुत्थम गुत्था करने के बाद, बाकी लोगों ने बीच बचाओ किया, शुक्ला ने साइकिल ला फन्ने ख़ान के आगे पटक दी, और कहा ‘ले जा इसे ये अली का नाम लेती है, और तूने इसीलिए इसे मुझे दे दी’। फन्ने मियां ने कहा ‘नहीं देखना इस बेवफा की शक्ल जो पांच वक़्ती नमाजी के घर रहते हुए बजरंगबली का नाम लेती है’, और ये कह फिर वह शुक्ला जी से चिपट गए। एक नौकर जो समझदार था , वह तुरंत घर के अंदर गया और मिट्टी का तेल ला के साइकिल पे डाल आग लगा दी। साइकिल धू धू कर जलने लगी और तो मित्रों के हाथ भी रुक गए।
शुक्ला जी अपने नौकर को शाबाशी देते, ये कहते हुए अंदर चले गए की ‘गद्दारों के साथ यही करना चाहिए’, फन्ने मियां भी लंगड़ाते हुए मस्जिद की और मुँह किया और बड़बड़ाते हुए ये कहते हुए नमाज पढ़ने को चल दिए की ‘आयशा की बेवफाई का सिला अल्लाह मियां ने क्या खूब दी है’, और बिचारी आयशा जरा सी तेल की कमी की वजह ने नफरत और शक की आग में जलते हुए बदरंग हुए जाती थी।
लेखक उज्जवल पाठक।
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