भारतीय में संविधान के निर्माण के समय से ही धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा निहित थी जो संविधान के भाग-3 में वर्णित मौलिक अधिकारों में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद-25 से 28) से स्पष्ट होती है।

परन्तु संविधान की आड़ में ही संविधान की इस मूल भावना को धूमिल करने का कुत्सित प्रयास कुछ दशकों से चला आ रहा है जबकि धर्मनिरपेक्षता की भावना एक उदार एवं व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है जो ‘सर्वधर्म समभाव’ की भावना से परिचालित है। धर्मनिरपेक्षता सभी को एकता के सूत्र में बाँधने का कार्य करती है। यह लोकतांत्रिक व्यवस्था को मज़बूती प्रदान करती है साथ ही इसका लक्ष्य नैतिकता तथा मानव कल्याण को बढ़ावा देना है जो सनातन धर्म का मूल उद्देश्य भी है।

बीते कुछ दशकों में भारत की धर्मनिरपेक्ष भावना पर आरोप लगाया जाता रहा है कि राज्य बहुसंख्यकों से प्रभावित होकर अल्पसंख्यकों के मामले में हस्तक्षेप कर रहे हैं जो अल्पसंख्यकोंं के मन में यह शंका उत्पन्न करता है कि राज्य तुष्टीकरण की नीति को बढ़ावा दे रहा है। जबकि वास्तविकता यही है कि अल्पसंख्यक समुदाय में जान बूझ कर धर्मनिरपेक्षता की गलत व्याख्या की जाती रही जोकि देश में साप्रदाय दंगों को बढ़ावा देती रही हैं।

भारत में हमेशा से धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा सार्वजानिक वाद-विवाद और परिचर्चाओं में मौजूद रहा है। एक तरफ जहाँ हर राजनीतिक दल धर्मनिरपेक्ष होने की घोषणा करता है वही धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में कुछ पेचीदा मामले हमेशा चर्चाओं में बने रहते हैं जो समय-समय पर अनेक प्रकार की चिंताओं के साथ धर्मनिरपेक्षता के समक्ष चुनौतियाँ उत्पन्न करते रहे जैसे-

  • वर्ष 1984 के दंगों में दिल्ली तथा देश के अन्य हिस्सों में लगभग 2700 से अधिक लोगों का मारा जाना।
  • वर्ष 1990 में हजारों कश्मीरी पंडितों को घाटी से अपना घर छोड़ने के लिये विवश करना।
  • वर्ष 1992-1993 के मुम्बई दंगे।
  • वर्ष 2003 में गुजरात के दंगे जिसमे मुस्लिम समुदाय के लगभग 1000 से अधिक लोग मारे गए।
  • नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) तथा नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़न बिल (NRC) के खिलाफ देश भर में उत्पन्न विरोध एवं हिंसा इत्यादि।

उपरोक्त सभी उदाहरणों में किसी-न-किसी रूप में नागरिकों के एक समूह को बुनियादी ज़रूरतों से दूर रखा गया। परिणामस्वरूप भारत में धर्मनिरपेक्षता समय-समय पर धार्मिक कट्टरवाद, उग्रराष्ट्रवाद तथा तुष्टीकरण की नीति के कारण शंकाओं एवं विवादों में घिरी रही ।

चूँकि धर्मनिरपेक्षता सविधान के मूल ढाँचे का अभिन्न अंग है अत: सरकारों को चाहिये कि वे इसका संरक्षण सुनिश्चित करें। इसके अलावा यूनिफार्म सिविल कोड यानी एक समान नागरिक संहिता जो धर्मनिरपेक्षता के समक्ष चुनौती प्रस्तुत करती है, को मज़बूती से लागू करने की आवश्यकता है।

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