दुनिया के इतिहास में 8 अगस्त कई कारणों से महत्वपूर्ण है, लेकिन भारत के लिए अभी तक इसका महत्व केवल  इसलिए रहा है क्योंकि 8 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की थी लेकिन भारत में पहली बार 8 अगस्त 2021  को एक सकारात्मक पहल की  शुरूआत हुई  और वह है  200 से भी अधिक ऐसे पुराने बेकार और वेवस  कानूनों को बदलना जिन्हें  अंग्रेजों ने  अपनी सत्ता संचालन हेतु भारतीयों का दमन करने के लिए बनाए थे.  इससे  कोई  इनकार नहीं कर सकता कि इन कानूनों  से   बदलते वैश्विक परिवेश में  आतंकवादी और देश विरोधी  घटनाओं को देखते हुए  समुचित बदलाव की तुरंत  आवश्यकता है.

इस आंदोलन का आवाहन  सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता  अश्विनी उपाध्याय ने किया था और कई राष्ट्रवादियों ने इसे समर्थन  दिया था. उपाध्याय को पीआईएल मैन के रूप में जाना जाता है. उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण जनहित याचिकाएं दायर की जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार किया. उन्होंने  6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए स्कूलों में योग  अनिवार्य बनाने और धोखे से  धर्मांतरण  पर प्रतिबंध लगाने की जनहित याचिकाएं  भी  शामिल हैं। उनकी याचिकाओं में स्कूलों में राष्ट्रगान  अनिवार्य बनाना और हिंदी को देश भर के स्कूलों में अनिवार्य भाषा बनाना भी शामिल है। अगस्त 2019 में  मोदी सरकार द्वारा जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा देने  वाले अनुच्छेद 370 को निरस्त करने से पहले उपाध्याय ने सितंबर 2018 में इस धारा की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए एक जनहित याचिका दायर की थी। पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय  में दायर पांच याचिकाओं के माध्यम से, उपाध्याय ने देश में समान नागरिक संहिता के लिए पहल की  है। मार्च 2021 में, सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को  उन याचिकाओं पर जवाब दाखिल करने का आदेश दिया  जो शादी की उम्र, तलाक, उत्तराधिकार, रखरखाव और गोद लेने से संबंधित हैं।  2015 में उपाध्याय द्वारा दायर एक जनहित याचिका के  आधार पर एक अहम फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अपराधियों को राजनीति से बाहर निकालने पर फैसला दिया था.

वैसे तो अश्विनी उपाध्याय अतीत में भाजपा से जुड़े रहे हैं और संभवत आज भी उनका जुड़ाव  भाजपा से हो लेकिन इस आंदोलन को राजनैतिक तरह से आयोजित नहीं किया गया था अन्यथा इस आन्दोलन का स्वरुप और बृहद हो सकता था. इस आंदोलन का उद्देश्य  सांकेतिक रूप से दिल्ली में जंतर मंतर पर प्रदर्शन करना और सरकार से मांग करना और नागरिकों को जागरूक करना था.   यह विषय राष्ट्रवादियों के हृदय के बहुत करीब था इसलिए सोशल मीडिया के इस युग में इसने  स्वाभाविक रूप से बहुत बड़े  जनमानस  को झकझोर दिया  और  व्यापक समर्थन भी  हासिल किया. चूंकि पूरा कार्यक्रम बहुत व्यवस्थित रूप से तैयार नहीं किया गया था और कई प्रखर राष्ट्रवादियों ने इस आंदोलन से  कुछ दिन पहले से ही दूरी बनाना शुरू कर दिया था, इसलिए आयोजन के अच्छे इंतजाम नहीं किए जा सके थे.  यहां तक कि वक्ताओं के लिए न तो  समुचित मंच था  और न ही भीड़ को नियंत्रित करने का कोई उपाय. फिर भी  इस प्रदर्शन में पूरे भारत से लो पहुंचे और जंतर मंतर पर  हजारों की भीड़ जमा हो गई.  एक अनुमान के अनुसार लगभग  40 से  50 हजार  लोगों ने इस प्रदर्शन में हिस्सा लिया जो  किसी भी प्रदर्शन के हिसाब से काफी ठीक-ठाक भीड़ थी.

लगभग 10  बजे  शुरू हुए इस आयोजन को दिल्ली पुलिस ने  १२ बजे  इस आधार पर रुकवा दिया  कि उन्होंने दिल्ली पुलिस से अनुमति नहीं ली है.  अगर दिल्ली पुलिस की यह बात सही है तो यह आयोजन कर्ताओं की  बड़ी चूक थी लेकिन चूंकि  यह आयोजन बहुत  अनुभवी लोगों द्वारा नहीं किया गया था इसलिए ऐसा हो जाना संभव है. सवाल यह  उठता है कि  यदि पुलिस ने इस आयोजन की अनुमति नहीं दी थी  तो वहां इतनी बड़ी संख्या में लोग कैसे एकत्रित होने दिए गए और बड़ी संख्या में पुलिस और रैपिड एक्शन फोर्स के जवान कैसे तैनात हो गए?   प्रश्न तो यह भी है कि जिन्होंने  पहले इस आयोजन में शामिल होने के लिए स्वीकृति दी  थी वे  ऐन वक्त पर क्यों  नहीं पहुंचे?  लोगों में धारणा पनप रही है कि शायद ऐसा  केंद्र सरकार के  दबाव में हुआ होगा और इसी कारण दिल्ली पुलिस ने भी इस आयोजन को  बीच में ही रुकवा दिया. लेकिन ऐसा होने से उस तथाकथित धर्मनिरपेक्ष और उदारपंथी समूह  के हौसले बुलंद हो गए जो इस तरह की मुहिम को रोकने और बदनाम करने के लिए हमेशा सक्रिय  रहते हैं और इसके लिए कुछ भी कर सकते हैं.       

आयोजन की शाम एक संदिग्ध वीडियो सामने आया  जिसमें  मुस्लिम विरोधी भड़काऊ नारे लगाए जा रहे थे.  यह वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल जरूर हुआ लेकिन इस वीडियो की जानकारी  लोगों को तब हुई  जब असदुद्दीन ओवैसी ने इस पर बेहद कड़ी प्रतिक्रिया दी और इसके बाद तो भारत के  तथाकथित  धर्मनिरपेक्ष उदारपंथी   लोगों ने  इस पर बेहद जहरीली  और स्तरहीन  बातें शुरू कर दी.  मजे की बात यह है कि सोशल मीडिया में काफी  पहले से गहन चर्चा के बावजूद इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया ने इसे कोई खास महत्व नहीं दिया था  और इस कारण उनका  कोई भी  रिपोर्टर  इस आयोजन में शामिल नहीं था.   इस विवादित संदिग्ध  वीडियो के वायरल होने के  तुरंत बाद लगभग सभी ने इसे लपक लिया और एक खास किस्म के मीडिया,  जिन्हें भारत और मोदी विरोध  के लिए जाना जाता है, में  इस आयोजन के विरुद्ध आक्रामक दुष्प्रचार शुरू हो गया   और  आयोजकों को गिरफ्तार करने की मांग होने  लगी.  जैसा हमेशा होता है इस मौके का फायदा उठाकर  कुछ राजनीतिक दलों ने,  सरकार को घेरने के उद्देश्य से  मुस्लिमों की सुरक्षा की दुहाई  देने  शुरू कर दी.  हद तो तब  हो गई जब  लोगों ने कहा कि यह दिल्ली में दंगा भड़काने और मुस्लिमों का नरसंहार करने की सोची समझी साजिश का हिस्सा है.  

अश्विनी उपाध्याय ने दिल्ली पुलिस से अनुरोध किया कि इस वीडियो की जांच की जाए और अगर यह वीडियो असली है तो उसमें शामिल लोगों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई हो और यदि  वीडियो फर्जी पाया जाता है तो उन लोगों को तलाशा जाए जिन्होंने इसे बनाया और माहौल बिगड़ने के लिए वायरल किया  है और उनके विरुद्ध सख्त कार्यवाही की जाए. इस बीच असदुद्दीन ओवैसी के अलावा आप के विधायक अमानतुल्लाह खान ने लिखित रूप में पुलिस से शिकायत की  और अश्वनी उपाध्याय को गिरफ्तार करने की मांग की.  हमेशा की तरह  दिल्ली में एक  विशेष वर्ग तुरंत सक्रिय हो गया,  और जिस   विशिष्ट मीडिया ने इस आयोजन को नजरअंदाज किया  था उसने इस वायरल वीडियो  पर  डिबेट की झड़ी लगा दी.  संभवत: चहुतरफा  दबाव के कारण दिल्ली पुलिस ने  10 अगस्त को  तड़के सुबह 3:00 बजे  अश्विनी उपाध्याय को  थाने  बुलाया और उनके अन्य पांच   सहभागियों सहित कई घंटे पूछताछ की और बाद में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया.  ऐसा सोचना  सही नहीं होगा कि बिना केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय की जानकारी के  दिल्ली पुलिस इतना बड़ा कदम उठा सकती है. 

अश्विनी उपाध्याय  द्वारा शुरू की गई  पुराने   निरर्थक कानूनों को बदलने  की मुहिम  का विरोध करने का कोई कारण नहीं है. आज भी  ऐसे कानून है जिनमें अन्य समुदायों को तो धार्मिक  स्वतंत्रता है  लेकिन बहुसंख्यक हिंदुओं पर तरह तरह के प्रतिबंध लगे हुए हैं, हिन्दुओं के  मंदिर आज भी सरकारी नियंत्रण में हैं . इससे धार्मिक विद्वेष के साथ साथ सामाजिक विषमता भी  पैदा हो रही  है.  मंदिरों की स्वतंत्रता एक अहम मुद्दा है, शिक्षा  व्यवस्था  में भी   समानता की आवश्यकता है क्योंकि इस  समय   विभिन्न राज्यों, बोर्डों और विश्वविद्यालयों में अलग-अलग प्रकार के पाठ्यक्रम है जिससे नौकरियों हेतु होने वाली प्रतियोगिताओं में  गरीब और वंचित वर्ग के लोगों को खासी असुविधा होती है और धीरे-धीरे इन का प्रतिनिधित्व भी खत्म होता जा रहा है. अलग-अलग शिक्षा व्यवस्था धार्मिक संकीर्णता और क्षेत्रीयता को भी बढ़ावा दे रही  है. 

समय आ गया है कि देश की  जरूरत के अनुसार नए कानून बनाए जाएं. आज पूरे विश्व में प्रचलित संविधान और कानून हमारे सामने हैं और उनकी सारी अच्छी बातें लेकर हम एक अच्छी व्यवस्था बना सकते हैं, एक  अच्छे और मजबूत देश का  निर्माण कर सकते हैं. इससे दिन प्रतिदिन  बढ़ रही अराजकता  और अस्थिरता  को रोक कर  देश की संप्रभुता की रक्षा की जा सकती है.

ऐसे बहुत से कानून आज भी प्रचलित हैं जिन्हें अंग्रेजों ने अपनी सुविधा और सत्ता कायम रखने के लिए बनाए थे, कुछ कानून तो औरंगजेब के शासनकाल के समय के भी हैं.  स्वाभाविक है कि इन सब का  भारतीय हितों से कोई लेना-देना नहीं था. इंडियन पैनल कोड में ऐसे बहुत सी धाराएं हैं जिनका अब कोई औचित्य नहीं रह गया है या ऐसे बहुत सी  धाराएं जो इसमें होनी चाहिए, जो  नहीं है. इस कारण पुलिस जो मुख्यतया इंडियन पेनल कोड के हिसाब से ही आगे बढ़ती है उसके हाथ भी बंध जाते हैं . जब कभी पुलिस ऐसे अपराधियों के विरुद्ध मुकदमे कायम  करती है तो वे इन अप्रभावी  कानूनों की आड़ में न्यायालय से साफ बच निकलते हैं. जब कानून ही सक्षम नहीं होगा तो कानून का शासन भी सक्षम नहीं हो सकता और जब मुकदमे निपटने में ही दसियों साल  लग जाएं तो भला कौन ऐसे कानूनों की  परवाह  करेगा?

दिल्ली पुलिस द्वारा  जंतर-मंतर पर हुए विरोध प्रदर्शनों  और  तथाकथित रूप से उस में लगाए गए भड़काऊ नारों  के आधार पर अश्विनी उपाध्याय को गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन इस प्रदर्शन में शामिल बिहार के साधु स्वामी  नरेशानंद,  जो  गाजियाबाद के डासना स्थित शिव-शक्ति मंदिर में  ठहरे हुए थे   पर  चाकुओं से जानलेवा हमला किया गया। दुर्भाग्य से पुलिस इन हमलावरों को अभी तक गिरफ्तार नहीं कर सकी है. इस  मंदिर  के  महंत यति नरसिंहानंद को पहले भी जान से मारने की साजिश हो चुकी है.  इस मंदिर पर पुलिस की सुरक्षा व्यवस्था रहती है और इसके बाद भी इस तरह की वारदात बेहद  चिंतित करने  वाली है. इन दोनों घटनाओं  का आपस में सम्बन्ध है.  

अश्विनी उपाध्याय की गिरफ्तारी  पर मिश्रित प्रतिक्रियाएं आई हैं जहां मुस्लिम संगठनों ने इसकी प्रशंसा की वहीं हिंदू संगठनों और आम जनमानस ने  केंद्र सरकार के प्रति अपनी नाराजगी जाहिर की है.  प्रथम दृष्टया अश्वनी उपाध्याय और उनकी टीम द्वारा  किए गए आयोजन  से सरकार या किसी को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए लेकिन समान कानूनों  और अन्य मांगों से  भारत का एक वर्ग विशेष  चिंतित था  जो शुरू से ही इस आयोजन को विफल करने की  कोशिश में लगा था.   इसलिए वायरल वीडियो की सच्चाई संदिग्ध है.  दिल्ली पुलिस द्वारा उपाध्याय की गिरफ्तारी से  इस वर्ग विशेष के  प्रयासों को  सफलता मिल गई है, लेकिन देश के  बहुसंख्यक  वर्ग में सरकार के प्रति   यह संदेह  उत्पन्न  हो गया है   कि भाजपा  हिंदू वोटों के  लिए  हिंदूवादी होने का ढोंग करती  है पर असल में वह  उसी तरह धर्मनिरपेक्ष  है जैसी  कांग्रेस.  शाहीन बाग,  जेएनयू और जामिया मिलिया में जिस तरह के  राष्ट्र विरोधी  और भड़काऊ भाषण हुए,  15 मिनट के लिए पुलिस हटाने की मांग,  100 करोड़ लोगों पर 20 करोड़ के भारी पड़ने  के दावे,  और  हाल में पश्चिम बंगाल तथा केरल में हुई वीभत्स घटनाओं पर केंद्र सरकार का रुख बहुत  निराश करने वाला  रहा.  दिल्ली के तबलीगी मौलाना साद को तो जैसे दिल्ली पुलिस भूल ही  गई है.  लाल किले पर मजहबी  ध्वजा फहराने,  किसानों के आंदोलन में खालिस्तानी नारे लगाने, और दिल्ली को बंधक बनाने वालों के विरुद्ध सरकार और दिल्ली पुलिस ने कुछ खास  नहीं किया.

सरकार को सांप्रदायिक और भड़काऊ नारे लगाने वाले  असामाजिक और राष्ट्र विरोधी तत्वों के खिलाफ सख्त कार्यवाही अवश्य  करना चाहिए  पर  उसे यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि उसके अनावश्यक रूप से  प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष  दिखाई पड़ने और “सबका विश्वास”  के   प्रयास देश हित में नहीं है. उसे बहुसंख्यक वर्ग की नाराजगी का सामना करना पड़ सकता है  जिससे   आगामी विधानसभा  और लोकसभा चुनाव में  भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है.   ऐसे में जब देश को मोदी सरकार की आवश्यकता है तो उसे भी देश की आवश्यकताओं का ध्यान अवश्य रखना चाहिए.

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–    शिव मिश्रा

( लेखक स्टेट बैंक के  सेवानिवृत्त टॉप-एग्जीक्यूटिव और समसामयिक विषयों के लेखक हैं)

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