पिछले काफी समय से महाराष्ट्र में एक तरह के अघोषित आपातकाल जैसे हालात बने हुए हैं. समस्या तब शुरू हुई जब महाराष्ट्र के पालघर में हिन्दू साधुओं को पालघर पुलिस के सहयोग और समर्थन से सरे आम मौत के घाट उतार दिया गया. किसी भी राज्य की पुलिस उस राज्य की सरकार के निर्देश पर ही काम करती है और पालघर पुलिस ने साधुओं की हत्या में जो सक्रिय भूमिका अदा की, उससे महाराष्ट्र सरकार की खुद की भूमिका भी सवालों के घेरे में आ जाती है.

इसके बाद फ़िल्मी दुनिया के दो लोगों की संदेहास्पद तरीके से मौत हो गयी. दिशा सालियान का पहले गैंग रेप किया गया और उसके बाद उनकी मौत हो गयी. इसके बाद फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की भी मौत हो गयी. राज्य सरकार और पुलिस इन मौतों को आत्महत्या बताकर दोषियों को बचाने में लगे रहे जबकि यह सारे मामले इतने उलझे हुए थे कि बिना किसी गहन जाँच के किसी भी नतीजे पर पहुंचना बेहद मुश्किल काम था लेकिन इन सभी मामलों में महाराष्ट्र सरकार और पुलिस का रवैया बेहद नकारात्मक रहा और देश की जनता को यह लग रहा था कि राज्य सरकार और पुलिस या तो किसी को बचाने का प्रयास कर रही है या फिर यह सब उसके इशारे पर ही अंजाम दिया जा रहा है. बिहार पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी भी जब इन मामलों में जांच के लिए मुंबई पहुंचे तो उन्हें भी महाराष्ट्र पुलिस ने सहयोग करने की बजाये “आइसोलेशन” के बहाने लगभग कैद कर लिया और उन्हें जांच नहीं करने दी. महाराष्ट्र सरकार अगर निष्पक्ष जांच करना चाहती तो वह इस सारे मामले की सी बी आई जांच की सिफारिश भी कर सकती थी लेकिन महाराष्ट्र सरकार जब सी बी आई जांच का विरोध करने लगी तो लोगों का शक और भी गहरा होने लगा कि महाराष्ट्र सरकार जरूर कुछ न कुछ छिपाने का प्रयास कर रही है. जब बिहार सरकार की सिफारिश पर इस सारे मामले की जाँच केंद्र सरकार ने सी बी आई को सौंप दी तो महाराष्ट्र सरकार एकदम सकपका गयी और उसने सी बी आई जांच से अपने राज्य को अलग कर लिया. महाराष्ट्र सरकार के हर कदम से यह बात शीशे की तरह साफ़ होती जा रही थी कि वहां की सरकार जरूर किसी न किसी को बचाना चाह रही है और उसके लिए वह किसी भी सीमा तक जा सकती है.

महाराष्ट्र सरकार और पुलिस के इस निकम्मेपन पर देश का “चौथा स्तम्भ” कहा जाने वाला मीडिया लगभग चुप्पी लगाए बैठा हुआ था लेकिन देश का एकमात्र निष्पक्ष मीडिया हाउस “रिपब्लिक” महाराष्ट्र सरकार को न सिर्फ सभी मामलों में बेनकाब कर रहा था, बल्कि मुश्किल सवाल भी कर रहा था. इसके बाद महाराष्ट्र सरकार ने अपने राज्य की पुलिस को इस मीडिया हाउस और इसके प्रधान संपादक अर्नब गोस्वामी के पीछे इस तरह छोड़ दिया मानों यह मीडिया हाउस कोई आतंकी संगठन हो और इसका प्रधान संपादक अर्नब गोस्वामी कोई आतंकी हो. इस बीच केंद्रीय जांच एजेंसियों ने मुंबई की फ़िल्मी दुनिया में “ड्रग माफिया” को भी बेनकाब करना शुरू कर दिया. यहां भी यही हुआ कि देश का ज्यादातर मीडिया इस अपराध की रिपोर्टिंग करने से बचता नज़र आया लेकिन रिपब्लिक मीडिया और अर्नब गोस्वामी ने इस मामले की भी जोर शोर से रिपोर्टिंग करके लोकतंत्र के चौथा स्तम्भ होने की अपनी जिम्मेदारी निभायी. लेकिन महाराष्ट्र सरकार को रिपब्लिक और उसके प्रधान संपादक की यह निष्पक्ष पत्रकारिता बिलकुल पसंद नहीं आ रही थी. लिहाज़ा महाराष्ट्र सरकार के इशारे पर रिपब्लिक मीडिया के हज़ारों पत्रकारों पर फ़र्ज़ी मामले दर्ज़ करके उन्हें जेल में डाला जाने लगा. मीडिया कंपनी के प्रधान संपादक,सी एफ ओ और वाईस प्रेजिडेंट को लम्बी पूछताछ के लिए पुलिस थाने में बुलाकर प्रताड़ित किया जाने लगा. आखिर में प्रधान संपादक अर्नब गोस्वामी को एक फ़र्ज़ी और बंद हो चुके मामले में उसके घर जाकर मार पीट करके गिरफ्तार कर लिया गया. मारपीट और धक्का मुक्की उस संपादक के नाबालिग बच्चे और घर की महिलाओं के साथ भी की गयी. अदालत ने इस गिरफ़्तारी को गैर कानूनी तो बताया लेकिन अर्नब गोस्वामी की गिरफ़्तारी पर रोक नहीं लगाई. इसके बाद हाई कोर्ट ने भी इस गैर कानूनी गिरफ़्तारी पर किसी भी तरह की राहत अर्नब गोस्वामी को देने से साफ़ इंकार कर दिया और फिलहाल रिपब्लिक मीडिया का प्रधान संपादक अपनी रिहाई के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटा रहा है। इस बीच इस मीडिया हाउस के वाईस प्रेजिडेंट को भी महाराष्ट्र पुलिस ने एक फ़र्ज़ी मामले में गिरफ्तार कर लिया है और उसके मुंह पर आतंकियों की तरह काला कपडा डालकर उसे कोर्ट में पेश किया है.

रिपब्लिक मीडिया के प्रधान संपादक अर्नब गोस्वामी को जब पुलिस वैन में जेल ले जाया जा रहा था तो उसने साफ़ शब्दों में कहा था कि पुलिस उसकी पिटाई कर रही है और उसकी जान को खतरा है- उसने पूरे देश से और खासकर सुप्रीम कोर्ट से यह गुहार भी लगाई थी कि उसे इन फ़र्ज़ी मामलों से बचाया जाए लेकिन लग यह रहा है कि महाराष्ट्र सरकार के इस अघोषित आपातकाल, प्रेस और लोकतंत्र की हत्या पर न सिर्फ केंद्र सरकार बल्कि देश की न्यायपालिका भी उदासीन होकर अपनी आँखें बंद किये हुए बैठी हुई हैं.

इस मामले में होना तो यह चाहिए था कि सुप्रीम कोर्ट इस सारे मामले का स्वत: संज्ञान लेकर महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करता और महाराष्ट्र सरकार ने अघोषित आपातकाल और प्रेस को कुचलने का जो अलोकतांत्रिक काम किया है, उस संगीन अपराध के लिए महाराष्ट्र सरकार के दोषी मंत्रियों और अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही का आदेश देता लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है और जहां सुशांत राजपूत और दिशा सालियान के बलात्कारी और हत्यारे और ड्रग माफिया के अपराधी खुले घूम रहे हैं, देश के एकमात्र निष्पक्ष मीडिया हाउस के प्रधान संपादक और उसके वाईस प्रेजिडेंट को गिरफ्तार करके जेल में उन्हें तबियत से प्रताड़ित किया जा रहा है. लोकतंत्र का एक स्तम्भ, लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को कुचलने का प्रयास कर रहा है और लोकतंत्र का एक तीसरा स्तम्भ इस सारे अन्याय को चुपचाप देख रहा है.

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