भारत उत्सवप्रिय देश है। यहाँ प्रत्येक दिवस किसी न किसी उत्सव का सूचक है। प्रकृतिपूजक इस देश में प्रत्यक्ष देवता के वंदन एवं अर्चन की भी एक सुदीर्घ परम्परा रही है। छठ महोत्सव प्रत्यक्ष देवता भगवान् भास्कर का तो ज्येष्ठ शुक्ल दशमी गंगा दशहरा के रूप में प्रत्यक्ष देवी माँ भगवती गंगा के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता है। भारत के हर अंचल में स्थानीय स्तर पर मनाए जाने वाले पर्व भी प्रकृति के प्रति मानव की कृतज्ञता के सूचक हैं। इसी प्रकार आज प्रकृति के प्रति मानवीय कृतज्ञता का बोधक है योग दिवस जो कि वर्तमान भारत सरकार के सद्प्रयासों के कारण प्रत्येक वर्ष 21 जून को सम्पूर्ण विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाया जाता है।
योग वस्तुतः जीवन जीने की एक कला है। यह प्रकृति के रहस्यों को समझने का एक विशेष मार्ग है। योग स्वयं को जानने का प्रकृष्ट साधन है। योग शब्द की व्युत्पत्ति भी युज् समाधौ, युजिर् योगे एवं युज् संयमने से क्रमशः समाधि, योग एवं संयम के अर्थ में की गयी है। यह शब्द अपने में एक व्यापक गहराई समाहित किए हुए है। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि भारतीय ज्ञान परंपरा में योग शब्द प्रत्येक ज्ञानसरणि में एक विशिष्ट अर्थ का बोधक है। वेदांत में जहाँ यह शब्द आत्मा एवं परमात्मा के योग का बोधक है तो व्याकरणशास्त्र में शब्द-व्युत्पत्ति का बोधक है। गणित में जोड़ का बोधक है तो ज्योतिष में समय, सम्बंध का बोधक है। आयुर्वेद में भेषज अर्थ का बोधक है तो भागवत में प्रेम की पराकाष्ठा का बोधक है। यही कारण है कि भारतीय शास्त्र परम्परा में इतना सर्वग्राह्य शब्द आज सम्पूर्ण विश्व को एकत्व के सूत्र में बाँधने का कार्य कर रहा है।

योग आज सर्वथा प्रासंगिक है। आज जहाँ भौतिकता की चकाचौंध से मानव प्रकृति से विमुख होकर अनेक आधि-व्याधियों का शिकार बनकर असमय काल कवलित हो रहा है, वहीं अहंभाव, अहमन्यता परिवार के साथ-साथ समाज और देश में विभेद पैदा करने का भी कार्य कर रही है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि विकारों के वशीभूत होकर मानव बड़े से बड़े अपराध करने में भी पीछे नही हट रहा है। भ्रष्टाचार, बलात्कार, कालाबाज़ारी, हिंसा, दमन, चोरी, डाका आदि दुष्प्रवृत्तियों का मानव शिकार बनता जा रहा है। मानवता के ऊपर दानवता हावी है। छात्रों में चिड़चिड़ापन और अवसाद एक आम समस्या हो गयी है। शुगर, ब्लडप्रेशर, कैंसर जैसे असाध्य रोग आज आम जीवन का भाग बन गए हैं। छोटी सी उम्र में ही बच्चों में ब्लडप्रेशर और शुगर का प्रभाव देखा जा रहा है। अनियंत्रित जीवनचर्या से मानवीय जीवन संत्रस्त है। समन्वय के अभाव में पारिवारिक जीवन अस्त-व्यस्त हो रहा है। मानवीय मूल्यों में ह्रास एक चिंता का विषय है। आज कोरोना के दौरान ये विषय अधिक स्पष्टता से प्रकाश में आए हैं। दवाओं की कालाबाज़ारी, अनेक चिकित्सकों एवं आम जन का भ्रष्टाचार, घरेलू हिंसा, व्यवस्थित दिनचर्या के अभाव में कोरोना का घातक संक्रमण आदि बातों ने आज योग की प्रासंगिकता पर और अधिक बल दिया है। आज उपर्युक्त सभी समस्याओं के समाधान में अष्टांगिक योग एक विशेष साधन है। प्रायः सामान्य जीवन में योग से आशय केवल आसन अथवा अंग संचालन क्रियाओं एवं प्राणायाम तक ही स्वीकार किया जाता है किंतु योग इससे भी अधिक जीवन जीने का एक व्यवस्थित एवं आदर्श मार्ग है।

महर्षि पतंजलि ने योगसूत्रों में वर्णित अष्टांग योग में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार , धारणा, ध्यान, समाधि को समाहित किया है। इसमें प्रथम दो यम-नियम नैतिक अनुशासन से, आसन-प्राणयाम-प्रत्याहार शारीरिक अनुशासन से एवं धारणा-ध्यान-समाधि मानसिक अनुशासन से सम्बंधित हैं। इनमें प्रथम यम में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य पाँच अभ्यास हैं। आज वर्तमान जीवन की अधिकांश समस्याओं के निदान में अष्टांग योग का यह यम अभ्यास अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यम में पहला भाग है अहिंसा। अहिंसा से तात्पर्य है जड़-चेतन किसी को किसी भी प्रकार की हिंसा न पहुँचाना। यह अहिंसा कायिक, वाचिक, मानसिक तीनों प्रकार की है। इस अहिंसा सूत्र के पालन से ही आज की अनेक समस्याओं का समाधान स्वयमेव उपस्थित हो जाता है। दुनिया में साम्राज्यवादी देश एवं मज़हब यदि इस अहिंसा व्रत का अभ्यास करें तो सभ्यताओं के संघर्ष पर विराम निश्चित लग जाएगा। बौद्ध एवं जैन दर्शन में इस अहिंसा व्रत का अत्यंत महत्त्व है। यम में दूसरा अभ्यास है सत्य का। आज सत्यभाषण सर्वत्र दुर्लभ हो गया है। आपसी सम्बंध भी झूठ एवं मिथ्या की भित्तियों पर निर्मित होते हैं। जो आगे चलकर शीघ्र ही समाप्त भी हो जाते हैं। न्यायालय रूपी सत्य की चौखट तक में मिथ्याचरण हावी है। मीडिया जगत में कथित पत्रकारों द्वारा देश के साम्प्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने हेतु अनेक बार असत्य समाचारों को फैलाया जाता है। ऐसे में यम के इस द्वितीय अभ्यास सत्य का आचरण आज अत्यंत आवश्यक है। यम का तृतीय अभ्यास है अस्तेय अर्थात् दूसरे की वस्तु का अपहरण न करना। आज व्यक्ति स्वयं में प्राप्त वस्तु से ख़ुश न होकर दूसरे की सम्पत्ति पर डाका मारने की प्रवृत्ति से ग्रसित है। यह छोटी सी वस्तु के अपहरण से लेकर बड़ी से बड़ी सम्पत्ति के अपहरण तक देखा जाता है। यह अपहरण किसी के अधिकारों के अतिक्रमण से भी सम्बंधित है। प्रकृति में मानव द्वारा अन्य प्राणियों के अधिकारक्षेत्र में दख़ल भी डाका ही है। ऐसे में परद्रव्येषु लोष्ठवत् की उच्चतम भावना को अपनाकर अस्तेय का आचरण यदि मानव जीवन करने लगे तो अनेक समस्याओं का समाधान इस सूत्र में मिल जाएगा। यम का चतुर्थ अभ्यास है अपरिग्रह अर्थात् प्राण धारण करने के लिए जितना आवश्यक है केवल उतने का ही संग्रह। आज यह समस्या सर्वत्र देखी जा रही है। मानव अधिक से अधिक के संग्रह में अपना मानव जीवनयापन भी ढंग से नही कर पता। इसी भाव के कारण भौतिकता की चकाचौंध में वह अपने स्वत्व तक को खो देता है। अपने परिवारजनों से तक लड़ जाता है। दो भाईयों में सम्पत्ति का विवाद इसीका प्रतिफल है। संग्रह अधिक होने के बाद उसके रक्षण के उपाय के विषय में ही मानव सोचकर अनेक रोगों को आमंत्रित कर बैठता है। भ्रष्टाचार एवं कालाबाज़ारी आज इसी का परिणाम है। इस हेतु आज अस्तेय नामक अभ्यास मानवीय जीवन के लिए नितांत अपेक्षित है। अंतिम में यम का पंचम अभ्यास है ब्रह्मचर्य। इंद्रियों पर मानव के निग्रह न होने के कारण अनेक यौन दुष्प्रवृत्तियाँ समाज में देखने को मिल रही हैं। इन्द्रियनिग्रह के अभाव में प्रतिरक्षा प्रणाली भी कमज़ोर होती जा रही है। ऐसे में ब्रह्मचर्य के अभ्यास से हम इन शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों का निवारण कर सकते हैं। इसी प्रकार नियम अर्थात् शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान मानवीय जीवन की उन्नति में सहायक बनते हैं। आसन, प्राणयाम एवं प्रत्याहार जहाँ शारीरिक एवं मानसिक आरोग्य की प्राप्ति में सहायक हैं तो वहीं धारणा, ध्यान एवं समाधि मानसिक उन्नति एवं जीवन के परमलक्ष्य की प्राप्ति में सहायक सिद्ध होते हैं।

विगत सात वर्षों से सम्पूर्ण विश्व आज का दिन विश्व योग दिवस के रूप में भारत के साथ धूमधाम से मना रहा है। आज योग विश्व को एकत्व के सूत्र में बाँधने में सहायक सिद्ध हो रहा है। यह योग एवं भारतीय ज्ञान परंपरा की वैश्विक स्वीकार्यता ही थी कि संयुक्त राष्ट्र में 177 देशों नें इस दिवस को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाने की स्वीकार्यता दी थी। आख़िरकार योग का अर्थ ही तो है जोड़ना। मानव को मानव से, मानव को प्रकृति से, मानव को परमात्मा से।

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