सभी अभिभावक ये चाहते हैं कि बच्चों को उनकी प्राथमिक कक्षाओं में अच्छे शिक्षक मिलें पर कोई अच्छा शिक्षक स्वेच्छा से प्राथमिक कक्षाओं में नहीं पढ़ाना चाहता है. उससे भी विचित्र बात ये कि कोई तीव्र मेधा वाला अभिभावक भी शिक्षक बनना कहीं चाहता… माँग और आपूर्ति का यह अंतर पूरे विश्व को बहुत भारी पड़ने वाला है… कैलकुलेटर ने गिनती भुला दी , गूगल जैसे सर्च इंजनों ने खोजने की कला भुला दी है और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस ने रचनात्मकता को समाप्त कर दिया है. शिक्षा दान के व्यवसायीकरण ने ज्ञान को इंटेलिजेंस में बदल दिया है और लोग प्रोफेसर के बदले प्रोफेशनल बन रहे हैं.
आइआइटी, आइआइएम, पीएमटी, चार्टर्ड अकाउंटेंसी, होटेल मैनेजमेंट और आइएएस, आइपीएस आदि ने श्रेष्ठ मस्तिष्क को ज्ञान का सेवक बनने के बदले पैसा और पावर का गुलाम बनना स्वीकार करवाना शुरू कर दिया है.
जब उच्च दरजे का मस्तिष्क भी विकल्प के अभाव में मजबूरन शिक्षक का दायित्व स्वीकार करेगा तो वह समाज को कैसा नागरिक प्रदान करेगा?
समाज को ये सोचना है कि उसे अपने भावी पीढ़ी के लिए शिक्षक चाहिए या नहीं. अगर हाँ, तो समाज के हर तबके को शिक्षक उत्पन्न करना पड़ेगा और उनका योगक्षेम भी देखना पड़ेगा.
अगर आर्थिक विपन्नता और बाल अधिकारवादियों से निराश होकर शिक्षक ने सेवा प्रदाता बनने का निर्णय ले लिया तो शिक्षक तो सीख लेगा सब्जी बेचना, अखबार बाँटना, पंचर निकालना या नालियाँ साफ करना, बस की ड्राइविंग या बागवानी पर बच्चों को सिखाएगा कौन?
अब भी चेत जाइए. अगर हम ने संज्ञान नहीं लिया सामाजिक संरचना का एक स्तंभ कभी भी भर-भराकर गिर सकता है।
शिक्षक की नस्ल लुप्तप्राय हो सकती हैं डायनासॉर और आर्किओप्टेरिक्स की तरह। यदि सरकारें बाघ और चीते नहीं बचा पा रही है तो शिक्षक को कैसे बचा पाएगी?
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