अखंड भारत की ऐसी कई परम्पराएँ है जो सदियों से अपनी एक अनोखी पहचान बना चुकी है परंतु उनकी पहचान सीमित है| जैसे एक छोटी नाव एक अथाह सागर में अपना अस्तित्व खो देती हैं ठीक उसी प्रकार हमारी कई मान्यताए, पुरातन परम्पराएँ इस महासागर रूपी देश के किसी एक कोने में सदियों से धीरे धीरे साँस तो ले रहीं है लेकिन उन्हें लेने वाले बहुत कम है| धनुषयज्ञ मेला, एक ऐसी ही परम्परा है जो वर्षों से चली आ रही है, जीवित है परंतु सीमित है|

उत्तर प्रदेश के ज़िला बलिया और माँझी घाट के बीच बैरिया नामक एक जगह है। बैरिया से सटे रनिगंज कोटवा के पास हर वर्ष ऐतिहासिक धनुषयज्ञ मेला लगता है दिसम्बर पहले सप्ताह में। मेरा गाँव वहाँ से कुछ दूरी पर दोआबा ग्राम चरजपुरा है जो कि माँ गंगा के किनारे स्थित है। अनेको वर्षों के बाद पिछले साल मुझे धनुषयज्ञ मेला देखने का मौक़ा मिला। सिंगपॉर से दिल्ली ५ घंटे में और दिल्ली से सड़क के द्वारा आगरा कानपुर लखनऊ गोरखपुर होते हुए हम लगभग १४ घंटो में गाँव पहुँचे। गोरखपुर में बाबा गोरखनाथजी के दर्शन करने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ|

सबने कहा आसान रास्ता है। दिल्ली से लखनऊ आसान था लेकिन उसके बाद ऐसा प्रतीत हुआ जैसे किसी ने बहुत भद्दा मज़ाक़ किया हो हमारे साथ। ख़ैर, सुना है माननीया आदित्यनाथजी जी और नितिन गड्करी जी की देखरेख में सरकार पूरी क्षमता से पूर्वांचल एक्सप्रेसवे का निर्माण कर रही है, आशा है अगली बार पूरा रास्ता आसान होगा।

बहरहाल, धनुष्यज्ञ मेला संत सुदिष्ट बाबा के समाधि स्थल पसिर में ध्वजारोहण के साथ शुरू होता है। इस दौरान बड़ी संख्या में श्रद्धालु मौजूद रहते है। मान्यता है कि पंचमी के एक दिन पूर्व जो भी सच्चे मन से बाबा की शरण में पहुंच रात भर टिकान करता है उसकी मनोकामना बाबा पूर्ण करते हैं।

इस मेले में संत समागम, प्रवचन के साथ-साथ मीना बाजार का भी आयोजन होता है। इसमें जरूरत की सभी सामग्री आसानी से उपलब्ध होती है। सैकड़ों वर्ष पुराने इस मेले में आज भी मांस-मछली की दुकानें नहीं लगती है। बिहार के हाजीपुर से दर्जनों पौधों व फूलों की नर्सरियां यहां स्थापित की जाती है। वहीं मुरादाबाद से पीतल की बर्तन, बरेली से फर्नीचर,फेफना से खादी की दुकानें मेले की शोभा को बढ़ाती है।

वहीं इस मेले में अवस्थित सैकड़ों जलेबी व मिठाई की दुकानों से प्रतिदिन काफी मात्रा में जलेबी, मिठाई बेची जाती है। इस मेले में जो भी आता है, वह जलेबी के साथ सब्जी खाकर जाता है।

बड़े-बुजुर्ग बताते हैं कि सैकड़ों वर्ष पूर्व इस ऐतिहासिक धनुषयज्ञ में युवक-युवतियों की शादी होती थी। इस मेले के धार्मिक व आध्यात्मिक महत्व के साथ ही आर्थिक महत्व भी है। यहां लोगों को रोजगार के अवसर मिलते हैं।

मेरा बचपन इसी दोआबा स्थान के एक छोटे से गाँव चरजपुरा में बीता| दरसल सही नाम अचरजपुरा था लेकिन हमारे भारत के लगभग हर गाँव की यह विशेषता है की हम किसी भी वाक्य विशेषरूप से नामों को प्यार से एक अपभ्रंश रूप दे देते है और फिर वही सत्य हो जाता है| बिहार और उत्तर प्रदेश में यह विशेषता अपने चरम सीमा पर पहुँच जाती है और फिर अजय से अजयिया, मनोज से मनोजवा, गाय से गायिया, विरेंद्र से बीरेनदारा बनने में देर नहीं लगती| अचरजपुरा से चरजपुरा की यात्रा भी कुछ ऐसी ही थी|

बचपन में पिताजी इस मेले में मुझे अपनी हीरो साइकल पर बिठाकर ले जाते थे। जलेबी सब्ज़ी और चनाज़ोरगरम का सेवन हमेशा से मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण काम होता था मेले में जो मैंने इस बार भी किया।


कहते है की विकसित शहर का किनारा छोड़ते ही अविकसित और अनपढ़ देहात का महासागर शुरू हो जाता है। जिसने भी यह कहा होगा वो शायद कभी गाँव में रहा नहीं होगा। बेहतर शिक्षा और बेहतर ज़िंदगी की तलाश में मुझे भी गाँव छोड़ना पड़ा था। अगर मैं कर सकता तो वापस जाकर अपने उस निर्ड़य को बदल देता।

गाँव किसी का भी हो, कोई भी हो, अच्छा ही होता है और ख़ासकर हमारे पूर्वी बिहार और उत्तर प्रदेश के गाँवो की बात ही कुछ और है। अगर जाड़े का मौसम हो तो स्वर्ग की अनुभूति होती है बिना अनुप्रास अलंकार के। बैलगाड़ी, टायर गाड़ी, एक्का (टांगा), रिक्शा, चट्टी (सड़क का एक ख़ास किनारा) की चाय की दुकान, समोसा चाय, बगीचा, खलिहान, दुआर (घर के बाहर बड़ा खुला हिस्सा), गोशाला, दातुअन (नीम या बबूल की लकड़ी दांत माँजने के लिए), लोटा (जिसका उपयोग मोदीजी के आने की उपरांत बंद हो गया है) जैसे कुछ शब्द हमेशा मेरे मन को गाँव की तरफ़ खींचते है। सुबह शाम चट्टी पर ऊनी शाल लपेटकर एवं खड़े होकर चाय की चुसकियाँ लेते हुए बहसबाजी करना जिसका सम्बंध राजनीति, क्रिकेट, जीवन की क्षड़-भंगुरता, भोग और त्याग जैसे दार्शनिक विषयों से हो, इससे बेहतरीन भला क्या हो सकता है?

वही सुबह सुबह धूप सेंकते, स्थानीय ग्राम विद्यालय के मास्टर साहब लोगों की कृषिविज्ञान और अर्थशास्त्र की घंटो चलती गोष्ठी एक अलग ही बात होती है। स्कूल में बच्चे इस बीच निर्विकार रूप से ‘पंडिजी पंडोल डोल पैसा माँगे गोल गोल’ का नारा लगा रहे होते है।जब मैं स्थानीय ग्राम विद्यालय का छात्र था तब हमारे माहटर (master) साब अपनी चारपायी और चद्दर तक कक्षा में ले आते थे| विद्यार्थियों को कुछ काम देकर माहटर साब लम्बे हो लेते थे|

और इन सबके अलावा है गाँव की गलिया। कहते है की गाली का महत्व आवाज़ की ऊँचाई में है। इसलिए गालियों और जवाबी गालियों का एक दूसरे को ऊँचाई पर काटने की प्रथा को गाली गलौज कहते है। यह किसी पार्श्व संगीत से कम नहीं होता। गाँव में सब कुछ अलग है ।

इस वर्ष भी मन था धनुषयज्ञ मेला जाने का लेकिन चीन को कुछ और ही मंज़ूर था|सोचा था सब कुछ ठीक रहा तो दीपावली और छठ समेत मेले का भी दर्शन हो जाएगा| पता नहीं इस बार मेला लगेगा भी या नहीं|

पिताजी आज भी अपनी हेरो साइकल चलाते है, ९२ साल के होने के बावजूद।

गाँव में आजभी वही ख़ुशबू है वही हवा बहती है जो तब बहती थी जब मैं १० साल की उम्र में वहा से शहर की तरफ़ निकल आया था बेहतर शिक्षा और बेहतर ज़िंदगी की तलाश में। अब लगता है, देहात का किनारा छोड़ते ही जो शहर का महासागर शुरू हो जाता है वहाँ निराशा और हताशा के अलावा और कुछ भी नहीं है। सब कुछ है मगर सुख नहीं है यहाँ। गाँव ही जाना है, बस कुछ समय और।

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