एक गाँव के ग्राम प्रधान ने गाँव में प्रवेश करने के लिए एक गेट बनबा दिया और वहां एक सिक्योरिटी गार्ड को यह कहकर बिठा दिया कि कोई भी व्यक्ति अगर इस गेट से गाँव में घुसे तो उससे 10 रुपये की वसूली करो. बिना दस रुपये दिए कोई भी गाँव में घुसने न पाए. क्योंकि गाँव के अंदर जाने का कोई और रास्ता नहीं था, लिहाज़ा सभी लोग दस रुपये हर बार देकर गाँव में घुसने के लिए के लिए मजबूर थे. सिक्योरिटी गार्ड को वेतन देने के बाद भी ग्राम प्रधान को अच्छी खासी मोटी कमाई घर बैठे हो रही थी और उसकी जिंदगी बड़े मज़े से गुजर रही थी. अचानक ऐसा हुआ कि अगली बार ग्राम प्रधान के लिए गाँव में जो चुनाव हुए उनमे वह ग्राम प्रधान चुनाव हार गया और उसकी ग्राम प्रधानी भी जाती रही. नए ग्राम प्रधान ने गाँव में घुसने के लिए एक और गेट बनबा दिया जिसमे से कोई भी व्यक्ति बिना रोक टोक बिना पैसे दिए गाँव में आ सकता था. नए ग्राम प्रधान ने नया गेट तो बनबा दिया लेकिन पुराने गेट को बंद कराने का कोई फैसला यही सोचकर नहीं लिया कि अब जिसको मुफ्त में गाँव में घुसना होगा वह नए गेट से आएगा और जिसे 10 रूपये देने की इच्छा होगी वह पुराने गेट से आ सकेगा. लेकिन कुछ ही दिनों में पुराने गेट से लोगों ने आना बंद कर दिया. पुराने ग्राम प्रधान के पास अब सिक्योरिटी गार्ड को वेतन देने तक के पैसे नहीं थे-उसकी अपनी कमाई बंद हो गयी थी वह अलग.उसने बड़ी मुश्किल से यह कमाई करने का आसान साधन बनाया था जिसे नए ग्राम प्रधान ने आकार यकायक ही बंद करवा दिया था. पुराने ग्राम प्रधान ने अब भाड़े पर कुछ लोगों को इकठ्ठा किया और जोर शोर से शोर शराबा और हंगामा करना शुरू कर दिया कि नए वाले गेट को तुरंत बंद किया जाए ताकि लोगों को गाँव में घुसने के लिए जो मुफ्त वाला विकल्प मिला हुआ है, वह बंद हो जाए और लोग फिर से 10 रुपये देकर पुराने गेट से ही गाँव में घुसें. जब नए ग्राम प्रधान ने पुराने ग्राम प्रधान की इस अनुचित मांग पर कोई ध्यान नहीं दिया और उसे फटकार कर भगा दिया तो वह अपने भाड़े के लोगों को लेकर नए वाले गेट पर धरना देने बैठ गया और वहां से लोगों को घुसने से रोकने लगा.
देश में इस समय कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में विपक्षी राजनीतिक दलों द्वारा जो फ़र्ज़ी किसान आंदोलन चलाया जा रहा है, उसकी कहानी भी ऊपर लिखी गयी कहानी से पूरी तरह मेल खाती है. मोदी सरकार नए कृषि कानून लेकर आयी है. इन कानूनों के हिसाब से किसान अपनी फसल को बिना किसी “बिचौलिए” के खुले बाज़ार में भी बेच सकेंगे और उनके पास यह भी विकल्प रहेगा कि वह सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर भी अपनी फसल को बेच सकें. यह निर्णय किसानों का ही होगा कि वह अपनी फसल खुले बाज़ार में बेचना चाहते हैं या फिर सरकार द्वारा दिए गए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर सरकार को बेचना चाहते हैं. इसमें किसी भी बिचौलिए की भूमिका अब पूरी तरह समाप्त कर दी गयी है. लेकिन इस देश में किसानों को बिचौलियों के जरिये लूटने की जो व्यवस्था कांग्रेस सरकार ने बड़ी मुश्किल से बनायी थी, उसका पूरी तरह से खात्मा हो गया है. बिचौलियों की इस दखलंदाज़ी का ही यह परिणाम था कि जिस फसल की किसान को कीमत 10 रुपये मिलती थी उसकी कीमत आम जनता को कम से कम 100 रुपये चुकानी पड़ती थी. मतलब किसानों की पूरी कमाई का लगभग 90 प्रतिशत यह बिचौलिए ही उड़ा लेते थे. मोदी सरकार के नए कृषि कानूनों से इन बिचौलियों की मुफ्त की कमाई पर बड़ी चोट लगी है. बिचौलिए आखिर कौन हैं- इन्हे आढ़तिया भी कहा जाता है. फ़ूड कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया जैसी सरकारी एजेंसियां भी इन्ही आढ़तियों से माल खरीदती रही हैं. देश के जितने भी बड़े आढ़तिये हैं, वे या तो खुद कांग्रेस जैसी पार्टियों के नेता हैं, या उनके परिवार के सदस्य हैं. अन्य विपक्षी पार्टियों के नेता और उनके परिवार जन भी इसी तरह “आढ़तिया” बनकर किसानों को पिछले 70 सालों से लूट रहे थे. पंजाब की सबसे बड़ी आढ़तिया फर्म का नाम है -सुखबीर एग्रो और इस फर्म के मालिक हैं सुखबीर बादल. यह एक उदाहरण ही काफी है यह बताने के लिए कि किसानों को लूटने के लिए किस तरह का खेल चल रहा था और मोदी सरकार के नए कृषि कानून से किन लोगों की कमाई पर चोट पहुँची है.
क्योंकि नए कृषि कानून किसानों के हित में हैं और उन्हें समझना कोई मुश्किल भी नहीं है, इसलिए कोई असली किसान तो इनका विरोध करने से रहा. लिहाज़ा जिन राजनीतिक पार्टियों की मुफ्त की मोटी कमाई इन नए कृषि कानूनों की वजह से बंद होने वाली है, वे सब अराजक तत्वों की भाड़े पर खरीदी हुई भीड़ को “किसान” बताकर फ़र्ज़ी किसान आंदोलन चला रहे हैं. प्रदर्शन कारी कह रहे हैं -“मोदी तेरी कब्र खुदेगी”, “हमने इंदिरा को ठोंका था-हम मोदी को भी ठोंकेंगे” . क्या कोई किसान इस तरह के नारे लगा सकता है ? किसान आंदोलन में जो लोग शामिल हैं, उनके हाथ में खालिस्तान के समर्थन वाले पोस्टर हैं, धारा 370 और 35A को बहाल करने की मांग वाले पोस्टर हैं और नागरिकता कानून को वापस लेने की मांग करने वाले पोस्टर हैं. यह सब कैमरे के सामने ही हो रहा है-खालिस्तान जिंदाबाद और पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे भी लगाए जा रहे हैं और कांग्रेस पार्टी यह बताना चाहती है कि यह सब करने वाले लोग किसान है. किसानों का ऐसा अपमान कांग्रेस के अलावा शायद ही किसी ने किया हो. खालिस्तानी और कुछ कट्टरपंथी मुस्लिम आतंकवादियों के जमावड़े को किसान आंदोलन कहना कितना उचित है, इसका संज्ञान देश की अदालतों ने अगर नहीं लिया तो आने वाले चुनावों में देश की जनता कांग्रेस की इस बेशर्मी का जबाब जरूर देगी.
मुस्लिम कट्टरपंथी आतंकी संगठन पी एफ आई के कई ठिकानों पर डाले गए छापों से यह बात साबित हो चुकी है कि इस फ़र्ज़ी किसान आंदोलन के लिए दुश्मन देशों से फंडिंग की जा रही है ताकि मोदी सरकार को अस्थिर करके कांग्रेस अपनी जमीन तैयार कर सके. किसान आंदोलन के नाम पर चलाया जा रहा यह फर्जीवाड़ा इतना बड़ा है कि शाहीन बाग़ के प्रर्शनकारी भी रातों रात किसान बन बैठे और पेशे से डॉक्टर और कांग्रेस नेता जो हाथरस में नकली भाभी की भूमिका में थी, अब वह किसान की भूमिका निभा रही है कुल मिलाकर इस फर्ज़ीवाड़े का हाल यही है कि जिस तरह आमलेट से आम का कोई लेना देना नहीं होता है और दालचीनी से दाल और चीनी दोनों का ही कोई वास्ता नहीं होता है, उसी तरह से इस किसान आंदोलन से किसानों का भी कोई लेना देना नहीं है.
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