एक दिवायंग होते हुए भी ,साहस और जूनून के प्रतीक राजवीर के मन में देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा ही इतना प्रबल था की बचपन से एपिलेप्सी व अन्य गंभीर व्याधियों से ग्रस्त होने के बावजूद राजवीर ने वर्ष 2015 के विशेष ओलम्पिक खेलों में साइक्लिंग में भारत के लिए दो दो स्वर्ण पदक जीते।
तत्कालीन सरकार ने राजवीर की इस उपलब्धि के लिए 30 लाख रूपए के नकद पुरस्कार देने की घोषणा कर दी। और यहीं से राजवीर की बदकिस्मती की कहानी शुरू हुई।
पिता बलबीर सिंह बताते हैं की 30 लाख रूपए तो दूर आज तक राज्य सरकार ने कभी बीमार राजवीर की सुध नहीं ली। पहले बादल सरकार फिर कैप्टन अमरिंदर सरकार के हर दफ्तर के बार बार चक्कर लगाने के बावजूद भी ,सिर्फ आश्वासन और उपेक्षा की अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिला।
बड़े खिलाड़ियों ,अधिकारियों और नवजोत सिंह सिद्धू का नाम लेते हुए राजबीर के पिताजी ने कहा की खिलाड़ियों के प्रदेश में , अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश का मान सम्मान बढ़ाने वाले एक दिव्यांग खिलाड़ी का ओलम्पिक स्वर्ण पदक पाने के बावजूद भी न जीते जी न ही मृत्योपरांत , सुध लेना बहुत ही पीड़ादायक बात है।
वृद्ध बलबीर सिंह के दुःख की कल्पना सिर्फ इस बात से ही की जा सकती है की उनके बीमार पुत्र का इलाज अंतिम समय तक एक स्थानीय स्वयं सेवी संस्था “मनुखता दी सेवा ” और उसके प्रमुख श्री गुरप्रीत सिंह ही करवाया।
गुरप्रीत सिंह जिन्होंने न सिर्फ अपनी संस्था में राजवीर को काम दिया बल्कि अंतिम समय तक उसके इलाज पर खर्च हुए 5 लाख रूपए का भुगतान भी किया ,कहते हैं कि एंटी बड़ी उपलब्धि के बावजूद एक दिव्यांग खिलाड़ी को पेट पालने के लिए पिता के साथ चार सौ रूपए प्रति दिन के दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करते हुए देखना बहुत ही निराशाजनक बात थी।
बड़ी उपलब्धियों , देश का मान सम्मान बढ़ाने के बावजूद भी खिलाड़ियों की उपेक्षा और उनकी बदहाली की ख़बरें अक्सर समाचार माध्यमों में आती हैं जो किसी भी समाज।/देश के लिए लज्जा की बात है। आज आंदोलन के नाम पर करोड़ों अरबों रूपए बहाने वाले पंजाब द्वारा अपनी ही मिटटी से निकले एक खिलाडी के साथ इतना निष्ठुर व्यवहार निंदनीय और अफसोसनाक है।
DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text.