काकोरी कांड के चार नायकों में से आज बारी है अंतिम नायक – अशफ़ाक़ उल्ला खाँ की। Forgotten Indian Freedom Fighters लेख श्रृंखला की सोलहवीं कड़ी में आज हम उन्हीं अशफ़ाक़ के बारे में पढ़ेंगे जिन्होंने ब्रिटिश सत्ता का सरकारी गवाह बनने की बजाय मातृभूमि के लिए बलिदान का रास्ता चुना और 27 वर्ष की आयु में अपना जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया।
अशफ़ाक़ का जन्म 22 अक्टूबर 1900 को उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर जिले में हुआ था। अशफ़ाक़ अपने चारों भाइयों में सबसे छोटे थे। उनके एक बड़े भाई के सहपाठी थे रामप्रसाद बिस्मिल जी, इसलिए जब भी उनकी देशभक्ति के बारे में घर में बात होती थी तो अशफ़ाक़ की हमेशा उनसे मिलने की इच्छा होती।
अशफ़ाक़ एक अच्छे शायर भी थे और ‘हसरत’ उपनाम से शायरी रचना किया करते थे।
बीसवीं सदी का दौर शुरू होने के साथ जहां देश में आजादी की आवाज हर ओर से उठने लगी थी, वही गांधी की मान्यता भी बड़ी तेजी से फैल रही थी। सारा देश उनके पीछे चल पड़ा था, सबसे अधिक प्रभावी उनके सत्य-अहिंसा वाले विचार थे और असहयोग आंदोलन ने तो तूफान मचा रखा था। हर कोई स्वतंत्रता के इस महायज्ञ में अपनी आहुति देना चाहता था इसलिए हर कोई किसी ना किसी माध्यम से इस आंदोलन से जुड़े हुए थे।
अशफाक भी इस विचारधारा को काफी पसंद करते थे, उन्होंने गांधीवादी विचारधारा के समर्थन में एक प्रसिद्ध नज्म भी लिखी थी, जो आज के स्वतंत्रता दिवस की दिन खूब गाई जाती है…..
“कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखा देंगे,
आजाद ही हो लेंगे या सर ही कटा देंगे”
सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि चौरा चौरी जनाक्रोश के कारण गांधी ने आंदोलन वापिस ले लिया। गांधी के इस फैसले ने अनेक क्रांतिकारियों के साथ साथ अशफ़ाक़ के मन में भी निराशा उत्पन्न कर दी। आंदोलन में भाग ले रहे सभी युवाओं को लग रहा था कि जैसे उनके साथ बहुत बड़ा धोखा हो गया है।
इसी बीच अशफ़ाक़ अनेक क्रांतिकारियों रामप्रसाद बिस्मिल जी, चंद्रशेखर आज़ाद जी के संपर्क में आ गए थे।
गांधी से मोहभंग होने के बाद वे क्रांतिकारी पार्टी में शामिल हो गए। इनका मानना था कि मांगने से स्वतंत्रता मिलने वाली नहीं है, इसके लिए हमें लड़ना होगा।
इन सब घटनाक्रम में अशफाक और बिस्मिल जी की दोस्ती इतनी गहरी हो चली थी कि दोनों शाहजहांपुर में साथ-साथ ही सुने और देखे जाते, यहाँ तक कि अशफाक भी चाहते थे कि हर मामले में उनका और बिस्मिल का नाम साथ हो।
क्रांतिकारी पार्टी का गठन हो चुका था लेकिन लड़ने के लिए बम, बंदूकों और हथियारों की जरूरत थी, जिनके सहारे अंग्रेजों से आजादी छीनी जाती। इनका मानना था कि अंग्रेज इतने कम होने के बावजूद करोड़ों भारतीयों पर इसलिए शासन कर पा रहे हैं क्योंकि उनके पास अच्छे हथियार और टेक्नोलॉजी है, ऐसी स्थिति में हमें उनसे भिड़ने के लिए ऐसे ही हथियारों की जरूरत होगी।
इसी उद्देश्य के तहत बिस्मिल और चंद्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में क्रांतिकारियों की 08 अगस्त 1925 को शाहजहांपुर में एक बैठक हुई और हथियारों के लिए धन जुटाने के उद्देश्य से उन्होंने “सहारनपुर-लखनऊ 8 डाउन पैसेंजर ट्रेन” में जाने वाले सरकारी ख़ज़ाने को लूटने की योजना बनाई। क्रांतिकारी जिस ख़ज़ाने को हासिल करना चाहते थे, दरअसल वह अंग्रेजों ने भारतीयों से ही लूटा था।
9 अगस्त 1925 को रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खान, राजेंद्र लाहिडी, ठाकुर रोशन सिंह सहित कुल 10 वीर क्रांतिकारियों ने लखनऊ के नजदीक काकोरी में ट्रेन में ले जाए जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया। इस घटना से ब्रिटिश हुकूमत तिलमिला उठी। क्रांतिकारियों की तलाश में जगह−जगह छापे मारे जाने लगे। एक−एक कर काकोरी कांड में शामिल सभी क्रांतिकारी पकड़े गए लेकिन चंद्रशेखर आज़ाद और अशफाक उल्ला खान हाथ नहीं आए। इतिहास में यह घटना “काकोरी कांड” के रूप में दर्ज हुई।
अशफाक बनारस भाग निकले, जहाँ से वो बिहार चले गए। वहां एक इंजीनियरिंग कंपनी में दस महीनों तक काम करते रहे। वो गदर क्रांति के लाला हरदयाल से मिलने विदेश जाना चाहते थे, अपने क्रांतिकारी संघर्ष के लिए अशफाक उनकी मदद चाहते थे। अशफाक इसके लिए दिल्ली गए पर एक अफगान दोस्त ने अशफाक को धोखा दे दिया और अशफाक गिरफ्तार कर लिए गए।
अशफाक को फैजाबाद जेल भेज दिया गया। जेल में रखकर अशफ़ाक़ को कड़ी यातनाएं दी गईं। अशफ़ाक़ के वकील भाई ने बड़ी मज़बूती से अशफ़ाक़ का मुक़द्दमा लड़ा लेकिन अंग्रेज उन्हें फांसी पर चढ़ाने पर आमादा थे और आखिरकार अंग्रेज़ जज ने डकैती जैसे मामले में काकोरी कांड में कुल चार क्रांतिकारियों बिस्मिल जी, अशफाक जी, राजेंद्र जी और रोशन जी को फाँसी की सजा दी गई।
19 दिसंबर 1927 को एक ही दिन एक ही समय लेकिन अलग-अलग जेलों (फैजाबाद और गोरखपुर) में दोनों दोस्तों, राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक उल्ला खान को फांसी दे दी गई। मरते दम तक दोनों ने अपनी दोस्ती की एक बेहतरीन मिसाल कायम की और एक साथ इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
अशफाक जी ने कहा था,
“बहुत ही जल्द टूटेंगी गुलामी की ये जंजीरें,
किसी दिन देखना आजाद ये हिन्दोस्ताँ होगा।”
मातृभूमि को हमेशा जीवन से ऊपर रखने वाले भारत माँ के इस वीर सपूत महान क्रांतिकारी को हमारा शत् शत् नमन।
जय हिंद
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