अंडमान जेल में एक क्रांतिकारी, जिनको अंग्रेज बहुत ही कठोर यातना देते थे लेकिन उन महान क्रांतिकारी के मन में मातृभूमि का जुनून इतना कि हर एक यातना के बाद भी उनके मुँह से सिर्फ “वन्देमातरम्” शब्द निकलता था।
Forgotten Indian Freedom Fighters लेख श्रृंखला की उन्नीसवीं कड़ी में आज हम पढ़ेंगे उन्ही महान क्रांतिकरी बारीन घोष उर्फ बारीन्द्र कुमार घोष के बारे में।
बारीन्द्र जी का जन्म 05 जनवरी 1880 को यूनाइटेड किंगडम में हुआ था। इनके पिता एक प्रसिद्ध चिकित्सक एवं प्रतिष्ठित जिला सर्जन थे। महान क्रांतिकारी एवं आध्यात्मिक पुरूष श्री अरविंदो घोष इनके बड़े भाई थे।
अपने बड़े भाई की प्रेरणा से ही ये स्वतंत्रता संग्राम के प्रति आकर्षित हुए।
बारीन दा की प्रारंभिक शिक्षा देवगढ़ में हुई थी और वर्ष 1901 में उन्होंने पटना कॉलेज में दाखिला ले लिया।
इस समय कोलकाता क्रांतिकारी गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बना हुआ था। बारीन दा भी पटना से कोलकाता आ गए, जहाँ उनका सम्पर्क बाघा जतिन (जतिंद्रनाथ मुखर्जी) से हुआ और उन्होंने अनेक क्रांतिकारियों समूहों को संगठित करना शुरू कर दिया।
सबसे महत्वपूर्ण संगठन था – अनुशीलन समिति, जिसका गठन बारीन दा और भूपेंद्रनाथ दत्त (विवेकानंद जी के छोटे भाई) ने 1907 में कोलकाता में किया था। इस संगठन का निर्माण बंगाल विभाजन की तीव्र प्रतिक्रिया के कारण हुआ था।
बारीन दा ने इससे पूर्व 1905 में क्रांति से सम्बन्धित ‘भवानी मन्दिर’ नामक पुस्तक लिखी थी जिसमें क्रांतिकारियों से आह्वान किया गया था कि जब तक स्वाधीनता ना मिले तब तक संन्यासी का जीवन बिताएं।
बारींद्र घोष मानना था की सिर्फ राजनीतिक प्रचार ही काफी नहीं है अपितु नौजवानों को आध्यात्मिक शिक्षा भी दी जानी चाहिए।
स्वतंत्रता के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु वर्ष 1906 में बारीन दा ने भूपेन्द्रनाथ दत्त के साथ मिलकर “युगांतर” नामक साप्ताहिक पत्र बांग्ला भाषा में प्रकाशित करना शुरू किया और क्रांति के प्रचार में इस पत्र का सर्वाधिक योगदान रहा। इस पत्र ने लोगों में राजनीतिक व धार्मिक शिक्षा का क्रांतिकारी प्रचार किया।
जल्द ही इस पत्रिका के नाम से “युगांतर” नाम से एक और क्रांतिकारी संगठन का निर्माण हो गया। युगांतर का निर्माण अनुशीलन समिति से ही हुआ था और इसने शीघ्र ही बंगाल में अपनी क्रांतिकारी गतिविधियां शुरू कर दी।
बंगाल में “युगांतर” की बढ़ती लोकप्रियता से ब्रिटिश सरकार को शक होने लगा। 1907 में बारीन्द्र जी ने बाघा जतिन और कुछ युवा क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं के साथ माणिकतल्ला नामक स्थान पर बम बनाने और हथियारों और गोला-बारूद इकट्ठा करना शुरू कर दिया ताकि अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर सके।
बारीन दा के संगठन के सदस्यों खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने क्रूर मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड की हत्या का प्रयास किया लेकिन वे असफल हो गये। इसके बाद पुलिस ने उन पर छानबीन शुरू की और जांच के माध्यम से 2 मई 1908 को बारीन्द्र कुमार घोष और उनके कई साथियों को भी गिरफ्तार कर लिया गया।
इसके अलावा बारीन दा को अलीपुर बम कांड के सिलसिले में मौत की सजा सुनाई गई थी। बाद में यह सजा आजीवन कारावास में बदल दी गई और 1909 में बारीन दा को अंडमान जेल में भेज दिया गया, जहाँ पर सजा काटना मौत से भी ज्यादा भयानक था क्योंकि यह जेल अपनी क्रूरू और भयानक यातना के लिए जानी जाती थी।
इस जेल में बारीन दा पर कठोर अत्याचार किए गए लेकिन अंग्रेज सरकार उनके मुँह से एक भी शब्द नही निकला पाई अपितु उनके मुँह से तो हमेशा “वंदेमातरम्” शब्द ही सुनाई देता।
प्रथम विश्व युद्धोपरांत शाही घोषणा के बाद अन्य क्रांतिकारियों की तरह वर्ष 1920 में बारीन दा को भी रिहा कर दिया गया। इसके बाद वो कोलकाता आ गए और पत्रकारिता क्षेत्र से जुड़ गए लेकिन जल्द ही उन्होंने पत्रकारिता को छोड़कर अध्यात्म को अपना जीवन का लक्ष्य बना लिया।
इस सम्बन्ध में वो वर्ष 1923 में पुड्डुचेरी चले गए जहाँ उनके बड़े भाई श्री अरविंदो घोष ने “अरविंद आश्रम” बनाया था। श्री अरविंदो ने उन्हें अध्यात्म और साधना के लिए प्रेरित किया।
1929 में बारीन दा पुनः कोलकाता आ गए जहाँ उन्होंने शेष जीवन पत्रकारिता क्षेत्र में कार्य करते हुए बिताया।
अंततः स्वतंत्रता के लगभग 12 वर्षों बाद 18 अप्रैल 1959 बाद इस महान स्वतंत्रता नायक की गुमनामी में ही मृत्यु हो गयी।
आज़ादी के बाद भी इस देश में स्वार्थी राजनीतिक सोच के कारण बारीन दा को वो सम्मान नही मिल पाया जिसके कि वो वास्तव में हक़दार थे।
भारत के महान क्रांतिकारी श्री बारीन्द्र कुमार घोष जी को हमारा शत् शत् नमन।
जय हिंद
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