राम मंदिर आंदोलन आज़ाद भारत के इसिहास का सबसे बड़ा आंदोलन रहा, लेकिन ये लड़ाई तो आज़ादी के बहुत पहले से चली आ रही है। इस आंदोलन को भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा आंदोलन कहना गलत नही होगा।
पहली बार हिन्दू मुसलमान झड़प 1853 में हुई, फिर कभी दोनो को पूजा के अधिकार दिए गए तो कभी संघर्ष चलता गया, 1986 में जिला न्यायालय ने हिन्दुओ को पूजा के अधिकार दे दिए। इसी समय बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी बनाई गई।
1949 से 1986 यानी 37 साल तक जो मामला जस का तस रहा वो अगले 3 साल में शिलान्यास तक पहुंच गया।
1989 में विश्व हिंदू परिषद ने राम जन्म भूमि आंदोलन की शुरुआत की पैरोकारी करी और दिवंगत अशोक सिंघल जी ने राम मंदिर आन्दोलन को जान आंदोलन बनाने का निश्चय किया।
राम जन्मभूमि मुद्दे पर पूछे गए एक सवाल कि अयोध्या में अगर एक मंदिर नहीं बनेगा, तो क्या हो जाएगा? – पर अशोक सिंहल का स्पष्ट जवाब था- अगर अयोध्या में जन्मभूमि पर राम का मंदिर नहीं बनेगा, तो इस देश में हिंदू समाज और उसकी पहचान भी नहीं बचेगी। भारत की पहचान राम से और हिंदू की पहचान भी राम से है और अयोध्या इन्हीं राम की जन्मस्थली है। सवाल एक मंदिर का नहीं है, बल्कि राम की जन्मभूमि का है।
इधर मंदिर निर्माण के लिए संघ और उसके दूसरे संगठन जमीनी स्तर पर काम कर रहे थे। उधर सरकार में शामिल भाजपा राजनीतिक रणक्षेत्र में इस मुद्दे को धार दे रही थी। उस दौर के लगातार बदलते राजनीतिक घटनाक्रमों के बीच लालकृष्ण आडवाणी सबसे अहम राजनीतिक शख्सीयत बन चुके थे। 7 अगस्त, 1990 को प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने मंडल कमीशन को लागू करने की घोषणा कर दी। पूरे देश में इसके समर्थन और विरोध में आंदोलन होने लगे। इन सबके बीच भाजपा और संघ परिवार राम मंदिर निर्माण के लिए जनमत बनाने के प्रयासों में जुटे रहे। मंडल की काट और राम मंदिर निर्माण को लेकर समर्थन जुटाने के लिए आडवाणी ने 25 सितंबर, 1990 को गुजरात के सोमनाथ से रथयात्रा शुरू की, जिसे विभिन्न राज्यों से होते हुए 30 अक्तूबर को अयोध्या पहुंचना था। आडवाणी वहां कारसेवा में शामिल होने वाले थे।
यह रथयात्रा अयोध्या तक नहीं पहुंच पाई। बिहार में पहुंचने के बाद आडवाणी को तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के आदेश पर 23 अक्तूबर को समस्तीपुर में गिरफ्तार कर लिया गया। इस बीच अयोध्या में 21 अक्तूबर से कारसेवक इकट्ठा होने लगे। 30 तारीख को आचार्य वामदेव, महंत नृत्य गोपालदास और अशोक सिंहल की अगुवाई में कारसेवक विवादित स्थल की ओर कूच करने लगे। उन्हें बाबरी मस्जिद के पास पहुंचने से रोकने के लिए मुख्यमंत्री ने गोली चलाने की आज्ञा दे दी। कई कारसेवक मारे गये। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, कोठारी बंधुओं ने बाबरी मस्जिद पर भगवा झंडा फहरा दिया था। 2 नवंबर 1990 को कारसेवकों ने फिर विवादित स्थल की ओर पहुंचने की कोशिश की। इस बार फिर सरकार ने गोली चलवाई और कई कारसेवक मारे गए।
आडवाणी जी की गिरफ्तारी के कारण बीजेपी ने केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया और उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव में कल्याण सिंह जी मुख्यमंत्री बने।
आन्दोलन समर्पित सरकार आने से माहौल और बदलने लगा और लोगो को उम्मीद जाग गयी कि अब मंदिर बन जायेगा।
उसके बाद 6 दिसंबर 1992 का दिन आया, कल्याण सिंह जी का पुलिस महानिदेशक को इंतेज़ार कराना , गुम्बद गिराया जाना, कल्याण सिंह जी का इस्तीफा देना, भाजपा की 4 सरकारें बर्खास्त होना।
बहुत कुछ समय के साथ लोग भूल गए। वही कल्याण सिंह 1993 में ” मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए….” नारे से चुनाव हार गए। जिस मुख्यमंत्री की कुर्सी को मंदिर आंदोलन के लिए लात मार थी। जनता ने जातिवाद में आगे उनको चुनाव हरवा दिया।
विनय कटियार, लल्लू सिंह जैसे चेहरे जो मंदिर आंदोलन की पहचान और घर घर में लोकप्रिय थे, अपने अपने इलेक्शन हारते गए और हाशिये पे चले गए।
आडवाणी जी और जोशी जी जैसे अग्रिम पंक्ति के लोग तो जीवनकाल में मंदिर बनता देख लेंगे, अशोक सिंघल जी , महंत रामचंद्र परमहंस जी ,बाला साहेब ठाकरे, योगी अवैधनाथ जी, अटल जी आदि मंदिर के इंतजार में ईश्वर को प्यारे हो गए। कोठारी बंधुओं का बलिदान याद रहेगा।
कल्याण सिंह जी हमेशा ही आदरणीय रहेंगे। मोदी जी को रथ का गुजरात का सारथी वाले दृश्य में देखना आज भी बहुत अच्छा लगता है।
सुषमा जी, अरुण जी और प्रमोद महाजन जी ( देश भर में रथयात्रा के रणनीतिकार ) हमेशा याद आएंगे।
अगले पोस्ट में एक एक व्यक्ति के योगदान पे बात करेंगे
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