? अकाल ?
Our festivals getting hijacked and Western formalities becoming a household event
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हो जाए बंजर जब धरती, उपजे नहीं अनाज। खाना ही पड़ता आयातित, काम न आती लाज॥
वैसा ही कुछ हुआ लगे है, त्यौहारों के साथ। सूखे हो गए अपने सारे, नए हुए आयात॥
फलां दिवस पर बधाई दे कर, फलां को करो पुष्ट। अर्थ प्रयोजन बिना विषय के, हुए अन्यथा रुष्ट॥
‘वेलेन्टाइन’ हुआ अग्रणी, स्टेटस की छाप। नहीं कोई संकोच, धड़ल्ला हुआ प्रेम आलाप॥
मात-पिता को यदा-कदा, बतलाने वाला पश्चिम। सिखा रहा है नवधा विधियाँ, बधाई दे दो अग्रिम॥
बहन-भाई जो भावहीन हैं, मुँह तक ना दिखलाते। उन्हें क्या पता रक्षाबन्धन, भाई-दूज के नाते॥
भौतिकता की यही पद्धति, ‘वुमन्स’ डे को घेरे। वो क्या जानें सात जनम के, कैसे लेते फेरे॥
अपनी ही बेटी को एक दिन, दर्शन देने वाले। पैर धो कर नौ कन्या को, देंगे कहाँ निवाले॥
पति के हेतु प्रेम व निष्ठा, एक दिन हो तो विकसित। व्रत-उपवास करे जो नारी, उनको लगती शोषित॥
वट-पीपल-तुलसी पूजें हम, हर उत्सव त्यौहार। ‘अर्थ’ ‘नेचर’ दिवस मना कर, वो करते उपकार॥
गुरु का वन्दन करते हैं हम, पुस्तक मस्तक लाते। एक डे ‘बुक’ का एक ‘टीचर’ का, वो हम को सिखलाते॥
उन की ये ही चतुराई जो, पूरे जग पर थोपी। अपनी जो भी रही समस्या, हर समाज को सौंपी॥
अब भी जो पहचानें उनके, उत्सव हैं व्यापार। अपनी जड़ से जुड़ जाएँ, तो संस्कार साकार॥
~ प्रतीक ‘भारत’ पलोड़ (दर्पण) ?✒?
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