अभी अभी मैंने श्री रामकृष्ण परमहंस जी एक चित्र देखा जिसमे वो अछूत द्वोरनीक इत्यादि जातियों के मल मूत्र का अपमार्जन (सफाई) कर रहे थे। एक नित्य सन्यासी द्वारा जात्याभिमान को भंग करने की इतनी बड़ी साधना किसी भी तुच्छ जीव में ज्वलंत दर्शनिकता प्रज्वलित कर सकती हैं। परिणाम स्वरूप मेरे भीतर भी कुछ विचार प्रस्फुटित हो गया, अत: उसको मै अभिव्यक्त करता हूं:
लगभग सभी प्रोक्त दर्शनिक सिद्धान्तो की जब प्रत्यक्ष प्रायोगिकता पर प्रश्न उठता है तो दर्शनिक, तथाकथित धर्माचार्यादि लोग अपने सिद्धांत में विच्छेद करके उसको सामान्यतया दो स्तर पर बांट कर पलायन कर लेते हैं। ये विभाजन व्यवहारिकता(१) और गंतव्य अवस्था (चरम लक्ष्य)(२) के रूप में होता है। जैसे अगर दर्शनिक सिद्धांत ये कहता है की सब कुछ ब्रह्म है तो सिद्धान्ती इसको दो हिस्सो मे बांट देते हैं। व्यवहारादि में उनकी ऐसी दृष्टि कभी नहीं होती, और अपने दर्शन को बस अंतिम लक्ष्यावस्था तक सीमित रख देते हैं। और अगर व्यवहार में भी उनके दर्शन निहित है तो भी बिना प्रत्यक्ष के उसकी प्रामाणिकता सिद्ध नही की जा सकती, ऐसे में कोई ये कैसे तय करे की दर्शनिक स्वयं अपना “दर्शन” दर्शन कर रहा है (जी रहा है) ?
एक अन्य उदाहरण “विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि;शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः” हर किसी में समरूप परमात्मा का दर्शन का संदेश देता यह भगवान श्रीकृष्ण का वचन भी उपरोक्त वर्णित पलायनवाद का शिकार हो जाता है, और इसकी टिप्पणी में नीचे टीकाकार ये लिख देता है इसका मतलब ये नही है की व्यवहारादि में परिवर्तन कर दिया जाय; और शारीरिक अंगो में आपसी व्यवहार का तर्क दे कर अपने दर्शन को फिर से दो स्तर पर बांट देता है : व्यवहार का अलग और चरम लक्ष्य का अलग! व्यावहारिक स्तर पर अगर ‘दर्शन’ का दर्शन नही हो पा रहा है तो – या तो दर्शन मिथ्या है, या तो दर्शन का पालनकर्ता खोखला है!
यहां पर जो व्यवहारिकता से चरम लक्ष्य की यात्रा है वो सांतत्य वृद्धि(क्वान्टिनीवस ग्रोथ) नही प्रतीत होती अपितु असतत लेखाचित्र (डिस्क्रीट) तरह है, जो अकस्मक रूप से चरम लक्ष तक पहुंचने का दावा करता है! अर्थात् जब तक जीवित है तब तक व्यवहारादि में दर्शन नही दिखता और प्राण पखेरू उड़ने के बाद अचानक नाम के बाद ‘ब्रह्मलीन’ लग जाता है!! ऐसे में उनकी प्रामाणिकता खोखली प्रतीत होती है।
नाथ योगियों के यहां के कथा मिलती है जहा कापालिक शंकरचार्य से पूछता है ” भो! तुम तो सन्यासी हो, मित्र और शत्रु को समान भाव से देखते हो , सुख और दुख आदि के द्वन्द्वों से रहित हो, मेरा ये अभिप्राय है की मै यदि मैं तुम्हारा शिर काट कर भैरव को चढ़ा दू तो मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण होगी, अत: मुझे अपना शिर दीजिए”? यहां भी व्यवहार में दर्शन पालन की प्राथमिकता का मूल्य है! व्यवहार में दर्शन का लोप होने से स्वयं दर्शन पर प्रश्नचिन्ह लग सकता है !
साधना में प्रगाढ़ता के बाद , दर्शनारूढ़ अवस्था के बाद व्यवहारादि में भी धीरे धीरे दर्शन चरितार्थ होते दिखना ही चाहिए, स्मरण रहे यहां आगम और अनुमान परिसर से बाहर है; प्रत्यक्ष ही निर्णायक है। अगर “सर्वत्र संबुद्धय:” का दर्शन है तो व्यवहार में भी परिलीक्षित होना चाहिए! अगर “समलोष्ट्राश्मकञ्चन:” कहा गया है तो एक अवस्था के बाद ये बात चरितार्थ भी होनी चाहिए!”नित्यं च समचित्त” की बात भी दिखनी चाहिए!
तभी तो “यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ” का दर्शन आत्मसात् किए हुए आदि शंकराचार्य अद्वैतवाद को व्यवहार में भी लाते हुए पिघला लोह पी जाते हैं और कुछ नही होता ! तभी तो “सर्वत्र समदर्शन” का भाव लिए आदि शंकराचार्य चण्डाल का स्पर्श कर लेते हैं! और तभी तो “आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति” का भाव लिए, “साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते” का भाव लिए, जात्याभिमान की तिलांजलि देते हुए श्री रामकृष्ण परमहंस चण्डाल आदि निम्नाति निम्न जातियों के मल मूत्र स्थल की सफाई करते हैं ! अद्भुत! निर्मम निरहङ्कार परमहंस!
अत: स्पष्ट है जो दर्शन का दर्शन नही करते हैं, और जिनके व्यवहार में दर्शन कही भी, किसी भी कालखंड में; परिलक्षित नही होता उनको खोखले ही जानना चाहिए ; ध्यान ये भी रखना चाहिए की ये संसिद्धि साधनोपरान्त साधक में प्रत्यक्ष होनी चाहिए; हर कोई मिथ्या रूप में ये करेगा तो स्वयं का विनाश कर लेगा और अव्यवस्था जन्म ले लेगी। अत: दर्शनिक , गुरु , की प्रामाणिकता ज्ञात करने के लिए उपरोक्त खप्पर प्रयोग में लाया जा सकता है जिससे खोखले पलायनवादी काट छांट कर अलग किए जा सके !
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