कभी-कभी आप और हम सोचते होंगे कि आखिर क्यों इस देश की जनता ने नरेंद्र मोदी नाम के शख्स को 2014 और 2019 में विशाल बहुमत देकर देश की सत्ता सौंपी…दरअसल कांग्रेस और UPA सरकार ने संविधान की मूल भावना की धज्जियां उड़ाते हुए ऐसे कानून को लागू करने की ठानी थी जो पूरी तरह हिंदुओं का दमन करता। यदि यह कानून देश में लागू हो जाता तो देश की बहुसंख्यक जनता के साथ प्रताड़ना और उत्पीड़न का युग शुरू होता जिसकी क्षतिपूर्ति करना आने वाली नस्लों के लिए बहुत मुश्किल हो जाता।
ऐसा ही एक बिल 2011 में तैयार किया गया था। इसका मसौदा राष्ट्रीय सलाहकार समिति ने बनाया था। इसका नाम था- सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा रोकथाम (न्याय एवं क्षतिपूर्ति) विधेयक। अगर ये क़ानून बन गया होता तो बहुसंख्यक हिन्दू पीड़ित होकर भी अपराधी की श्रेणी में आते और कथित अल्पसंख्यक दंगे कर के भी पीड़ित कहे जाते। हिन्दुओं को बिना कुछ किए ही सज़ा मिलती। इस क़ानून के 2 मुख्य उद्देश्य थे। पहला उद्देश्य था, हिंदूवादी संगठनों का दमन करना और दूसरा लक्ष्य था अल्पसंख्यक वोटरों को रिझाना। संघीय ढाँचे को ध्वस्त करने की पूरी तैयारी थी, क्योंकि क़ानून-व्यवस्था का मसला राज्य के जिम्मे आता है।
आपको बताते हैं कि इस क़ानून के ड्राफ्ट को तैयार करने वालों में कौन लोग शामिल थे। हर्ष मंदर, जो सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर भी विश्वास नहीं करता है और कहता है कि फैसला सड़कों पर होगा। इसके अलावा जॉन दयाल और तीस्ता सीतलवाड़ जैसे नक्सली भी इस कमिटी में शामिल थे। तीस्ता आज विदेशी फंडिंग के मामले में कार्रवाई का सामना कर रही हैं। जॉन दयाल ‘ऑल इंडिया कैथोलिक यूनियन’ का अध्यक्ष रहा है। सैयद शहाबुद्दीन भी इस कमिटी में शामिल था। नियाज फारुखी, शबनम हाश्मी और फराह नकवी जैसे हिन्दू-विरोधी तो थे ही। आप सोचिए, उस कमिटी ने दंगों के मामले में कैसा क़ानून बनाया होगा?
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