हिंदू धर्म में उल्लेखित ईश्वरप्राप्ति के मूलभूत सिद्धांतों में से एक सिद्धान्त ‘देवऋण, ऋषिऋण, पितृऋण और समाजऋण’ इन चार ऋणों को चुकाना है। इनमें से पितृऋण चुकाने के लिए ‘श्राद्ध’ करना आवश्यक है। माता-पिता और निकट के संबंधियों की मृत्यु के बाद की यात्रा सुखमय और क्लेशरहित हो तथा उन्हें सद्गति प्राप्त हो, इस उद्देश्य से किया जाने वाला संस्कार है ‘श्राद्ध’। श्राद्धविधि करने से अतृप्त पितरों को कष्ट से मुक्ति मिलती है एवं हमारा जीवन भी सुखमय होता है। परन्तु वैज्ञानिक युग की युवा पीढी के मन में ऐसी संभ्रांति उभरती है कि, ‘श्राद्ध’ अर्थात ‘अशास्त्रीय एवं अवास्तव कर्मकांड का आडंबर’ । धर्मशिक्षा का अभाव, अध्यात्म के विषय में अनास्था, पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव, धर्मद्रोही संगठनों द्वारा हिन्दू धर्म की प्रथा-परंपराओं पर सतत द्वेष पूर्ण प्रहार इत्यादि का यह परिणाम है। श्राद्धांतर्गत मंत्रोच्चारण में पितरों को गति प्रदान करने की सूक्ष्म शक्ति समाई हुई है; इसलिए श्राद्धविधि द्वारा पितरों को मुक्ति मिलना संभव होता है।
इस वर्ष पितृपक्ष 18 सितंबर से 02 अक्टूबर की अवधि में रहेगा। प्रत्येक वर्ष पितृपक्ष में ‘महालय श्राद्ध’ किया जाता है। श्राद्ध विधि हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण आचार है तथा वेद काल का भी आधार है । अवतारों ने भी श्राद्ध विधि की है, इसका उल्लेख भी मिलता है। श्राद्ध के मंत्रोंच्चारण में पितरों को गति देने वाली सूक्ष्म शक्ति समाविष्ट होती है ।
श्राद्ध शब्द की व्युत्पत्ति और अर्थ : श्राद्ध, शब्द से श्रद्धा यह शब्द निर्माण हुआ है । इस लोक को छोड़कर जाने वाले अपने स्वजनों ने हमारे लिए जो कुछ किया उसके लिए उनका ऋण चुकाना संभव नहीं है । उनके लिए पूर्ण श्रद्धा के साथ जो किया जाता है वह श्राद्ध है। ब्रह्म पुराण में श्राद्ध के संदर्भ में आगे दी हुई व्याख्या दी गई है ।
देश काले च पात्रे च श्रद्धया विधिना च यत् ।
पितृ नुदि्दश्य विप्रेभ्यो दत्तं श्राद्धमुदाहृतम् ।।
अर्थ : देशकाल और योग्य स्थल में श्रद्धा और विधि से युक्त पितरों को उद्देशित कर ब्राह्मणों को जो दिया जाता है उसको श्राद्ध कहते हैं।
श्राद्ध विधि का इतिहास : श्राद्ध विधि की मूल कल्पना ब्रह्म देव के पुत्र अत्रि ऋषि की है । अत्रिऋषि ने निमी नामक अपने एक पुरुष वंशज को ब्रह्मदेव द्वारा बताई गई श्राद्ध विधि सुनाई । वह परम्परा आज भी चालू है । मनु ने पहली बार श्राद्ध क्रिया की, इसीलिए मनु को श्राद्ध देव कहते हैं । लक्ष्मण और सीता जी के साथ राम जब वनवास में गए और भरत से उनकी वनवास में भेंट हुई और उनको पिता के निधन की जानकारी मिली उसके पश्चात राम जी ने पिता का श्राद्ध किया ऐसा उल्लेख रामायण में है। ऋग्वेद काल में समिधा और पिंड की अग्नि में आहुति देकर की हुई पितृ पूजा अर्थात् अग्नौकरण, पिंड की तिल से शास्त्रोक्त की हुई पूजा अर्थात् पिंड पूजा और ब्राह्मण भोज इस इतिहास क्रम से बनी हुई श्राद्ध की तीन अवस्थाएं हैं । सांप्रत काल में ‘पार्वण’ शब्द में यह तीनों अवस्थाएं एकत्रित हुई हैं । धर्मशास्त्र में यह श्राद्ध गृहस्थाश्रम के लोगों को कर्तव्य समझकर करना बताया गया है ।
श्राद्ध करने का उद्देश्य : पितृ लोक प्राप्त हुए पितरों को आगे के लोक में जाने के लिए गति मिले इसके लिए श्राद्ध विधि द्वारा उन्हें सहायता की जाती है । अपने कुल के जिन मृत व्यक्तियों को उनके अतृप्त वासना के कारण सद्गति प्राप्त नहीं होती अर्थात वे उच्च लोक में न जाकर निचले लोक में फंसे रहते हैं, उनकी इच्छा आकांक्षा इस श्राद्ध विधि के द्वारा पूर्ण करके उनको आगे की गति प्राप्त करवाना श्राद्ध का उद्देश्य है ।
पितृपक्ष में श्राद्ध करने का महत्व और पद्धति : हिंदू धर्म में बताया हुआ यह व्रत, भाद्रपद प्रतिपदा से अमावस्या तक प्रतिदिन महालय श्राद्ध करना चाहिए, ऐसा शास्त्र वचन है। पितरों के लिए श्राद्ध न करने से उनकी इच्छा अतृप्त रहने के कारण कुटुंबियों को कष्ट होने की संभावना रहती है । श्राद्ध के कारण पितरों का रक्षण होता है । उनको सद्गति मिलती है और हमारा जीवन भी सुसह्णीय होता है । पितृपक्ष में प्रतिदिन पितरों का श्राद्ध करने से वे वर्ष भर तृप्त रहते हैं । प्रतिदिन श्राद्ध करना संभव न होने पर जिस तिथि को हमारे पिता की मृत्यु हुई हो उसी दिन इस पक्ष में सर्व पितरों को उद्देश्य कर महालय श्राद्ध करने की परंपरा है। योग्य तिथि पर भी महालय श्राद्ध करना संभव न हो तो आगे ‘यावद्वृश्चिकदर्शनम् अर्थात सूर्य वृश्चिक राशि में जाने तक किसी भी योग्य तिथि को श्राद्ध किया जा सकता है।
पति से पहले मृत्यु को प्राप्त होनेवाली पत्नी का श्राद्ध पितृपक्ष की नवमी (अविधवा नवमी) तिथि पर करना चाहिए। नवमी के दिन ब्रह्मांड में रजोगुणी पृथ्वी-तत्त्व तथा आप-तत्त्व से संबंधित शिवतरंगों की अधिकता रहती है । ये शिव-तरंगें श्राद्ध में प्रक्षेपित होनेवाली मंत्र-तरंगों की सहायता से सुहागन की लिंगदेह को प्राप्त होकर, आवश्यक ऊर्जा प्रदान करता है। फलस्वरूप, उसके शरीर में स्थित सांसारिक आसक्ति के गहरे संस्कारों से युक्त बंधन टूटते हैं और पति-बंधन से मुक्त होने में सहायता मिलती है। इस प्रकार सुहागिन की लिंगदेह ऊपरी लोकों की ओर प्रस्थान करती है।
पितृपक्ष में दत्त का नाम स्मरण करने का महत्व : दत्त देवता का नामजप करने से पूर्वजों को गति मिलने में और उनके कष्ट से रक्षण होने में सहायता होने से पितृ पक्ष में प्रतिदिन दत्त देवता का ज्यादा से ज्यादा नाम स्मरण करना चाहिए। पितृपक्ष में प्रतिदिन कम से कम 72 माला नामजप करने का प्रयत्न करना चाहिए । हमारे महान ऋषि मुनियों द्वारा हमें प्राप्त श्रद्धा रूपी अनमोल सांस्कृतिक सम्पदा को सुरक्षित रखने की सद्बुद्धि हम सभी को प्राप्त हो, सभी श्राद्ध विधि श्रद्धा से कर सकें और इस प्रकार पूर्वजों की और स्वयं की उन्नति हो, यही ईश्वर के चरणों में प्रार्थना है ।
संदर्भ : सनातन संस्था का ग्रंथ – श्राद्ध और श्राद्ध की कृति के पीछे का शास्त्र
श्री. चेतन राजहंस, राष्ट्रीय प्रवक्ता, सनातन संस्था
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