आर्मीनिया से जाने माने पत्रकार अभिषेक उपाध्याय लगातार लिख रहे है , युध्ह का आँखों देखा हाल
काराबाख डायरी- तीसरा हिस्सा
काराबाख में आज तीसरा दिन है। तीन दिनों में एक शहर अपना सा हो जाता है। महान रूसी उपन्यासकार एंतोन चेखव का विश्व प्रसिद्ध उपन्यास तीन साल याद आ गया। इस उपन्यास के नायक की तीन साल में दुनिया ही बदल जाती है। पर मुझे जाने क्यूं लगा कि मेरी दुनिया तीन दिन में ही बदल चुकी है।
नागार्नो काराबाख की राजधानी स्टेपनाकर्ट का ये स्कूल भीतर तक सहमा गया। स्कूल की दीवारों पर लिखा था, एवेतिक इसाहकयान स्कूल नंबर 10। एवेतिक बीसवीं सदी के मशहूर आर्मीनियाई कवि थे। उनके नाम पर ही इस स्कूल का नाम था। मगर मेरी नजरें स्कूल के प्रांगड़ में टिक गई थी्ं। यहां 12 फीट का बेहद गहरा गड्ढा बन चुका था। इसमें 400 किलोमीटर तक मार करने वाली इजरायल की घातक लोरा मिसाइल आकर गिरी थी। स्कूल के खिड़की, दरवाजे उड़ चुके थे। दीवारें छतों का साथ छोड़कर जमीन की ओर झुक आईं थीं। पत्थर की फर्श कांच में बदल चुकी थी। चारों तरफ कांच बिखरा था। उस पर मासूम बच्चों की किताबों के अधजले पन्ने गिरे हुए थे। मैं बच्चों की किताबें बचाता गया और कांच पर पैर टिकाता गया। इन मासूमों के लिए इससे अधिक और मैं कुछ नही कर सकता था।
ये लड़ाई दिनो दिन और भी भयावह होती जा रही है। आज अपनी आंखों के आगे कलस्टर बमों के ढ़ेर देखे। हम एक बंकर में वहां रह रहे लोगों की जिंदगी देखने के लिए घुसे ही थे कि मोबाइल की स्क्रीन पर काराबाख के विदेश मंत्रालय का नंबर फ्लैश हुआ। “Please come immediately. Very urgent.” हमे तुरंत एक लोकेशन पर आने के लिए कहा गया। वहां से काराबाख मिलेट्री की गाड़ी हमें एस्कार्ट करके दूसरी लोकेशन पर ले गई। यहां हमारे अलावा दूसरी विदेशी मीडिया भी पहुंच रही थी।
सामने जगह जगह पर कलस्टर बमों के ढ़ेर थे। ये क्लस्टर बम छूते ही फट जाते हैं। मैने ध्यान से देखा। छोटे छोटे क्लस्टर बमों पर रंग बिरंगा रिबन बंधा हुुआ था। हमें बताया गया कि यहां भी टारगेट पर बच्चे थे। रंग बिरंगे रिबन जिसके लालच में वे इन्हें उठाएंगे और रिबन खोलते ही बम फट जाएगा और फिर…..। इससे आगे मुझसे सोचा न गया। अजरबैजान और आर्मीनिया की इस लड़ाई में मासूम बच्चों से कैसी दुश्मनी? मैं इस सवाल के बारे में सोचता हूं, फिर इसे भीतर ही भीतर घोलकर पी लेता हूं। कुछ सवालों के जवाब नही होते। वे सवालों की शक्ल में ही पैदा होते हैं और सवाल बनकर ही मर जाते हैं।
जिस वक्त क्लस्टर बमों की ये खबर आई, मैं एक बंकर में जा रहा था। वहां फिर से लौटा तो अदभुत तस्वीर दिखाई दी। पांच साल का एक मासूम बच्चा बंकर के दरवाजे पर दो राइफलें लिए खड़ा था। एक नकली थी और एक खालिस असली। बगल में खड़ा उसका बाप उसे जाने क्या समझाए जा रहा था। मैने अपने गाइड के जरिए पूछा कि ये माजरा क्या है। उसने बताया कि बाप कह रहा है कि इसे भी बड़ा होकर अजरबैजान से जंग लड़ने जाना है तो अभी से राइफल पकड़ना जरूरी है। नागार्नो काराबाख की ये लड़ाई रूसी तानाशाह स्टालिन के जमाने से शुरू हुई थी। अब तक जारी है। मुझे पांच साल के इस बच्चे के बाप की बातें सुनकर लगा कि जैसे अभी कई पुश्तों तक ये युद्ध ऐसे ही चलना है। मैं अभी वापस लौटने को मुड़ा ही था कि पांच साल का वही छोटा सा बच्चा जोर से चिल्लाया- “हखतेलुएंग. हखतेलुएंग।” मैने पलटकर देखा। वह मेरी ओर देखकर चीखे जा रहा था “हखतेलुएंग। हखतेलुएंग।” मेरा टूरिस्ट गाइड मुस्कुराया। उसने बताया कि ये आर्मीनियाई भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है “जीतेंगे हम”। काराबाख की लड़ाई में आर्मीनिया की ओर से यही जीत का नारा भी है “हखतेलुएंग” यानि जीतेंगे हम। गजब जिजीविषा है इस देश की रगों में भी।
मुझे धीरे धीरे इस मुल्क के राष्ट्रवाद से इश्क होता जा रहा है। जिस बच्चे से बात करो, वही जीतने की बात बोलता है। जिस व्यक्ति से मिलो, वही सीमा पर जाने को आमादा है। जिस सांसद को देखो, वही कामकाज छोड़कर बार्डर की ओर निकल आया है। मुझे आज काराबाख की राजधानी स्टेपनाकार्ट के एक रेस्टोरेंट में अचानक ही आर्मिनाई पार्लियामेंट की महिला एमपी गयाने अब्राहमयान मिल गईं। ये वही महिला एमपी हैं जिनसे मैने आर्मीनिया की राजधानी येरेवान में इंटरव्यू लेना तय किया था मगर उससे पहले ही मुझसे यह कहकर काराबाख निकल गईं, कि इस समय देश को मेरी जरूरत है। आप वहीं आइए। हम वही मिलेंगे। मुझे देखा तो सामने से चलकर आईं। हाथ मिलाया और मुस्कुराकर बोलीं, लीजिए हमारा वादा पूरा हुआ। वे अपना सारा काम छोड़कर MPs का एक डेलीगेशन लेकर युद्ध से प्रभावित हुए लोगो तक मदद का सामान पहुंचा रही हैं। आर्मीनिया के प्रधानमंत्री का बेटा काराबाख की फ्रंटलाइन में सेना के साथ डटा हुआ है। स्वैच्छिक सेवा दे रहा है। मेरे जेहन में विचारों का बारूद फट चुका था।
जिस देश के राष्ट्रवाद की परिभाषा ही देश की खातिर मर मिटने की भावना से शुरू होती हो, उस देश को भला कौन हरा सकता है?
दिन भर का थका हुआ हूं। अब आंख लग रही है। आज शायद मेरी नींद में भी राष्ट्रवाद ही जागेगा!
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