कुछ वर्षों पूर्व ,लखनऊ की एक बच्ची ने सूचना का अधिकार के तहत सरकार से जानना चाहा था कि , आधिकारिक रूप से मोहन दास करमचंद गाँधी को राष्ट्रपिता की उपाधि कब दी गई थी | सरकार की तरफ से जो उत्तर आया उसने सबको हैरान किया -जिसमें बताया गया था कि भारत सरकार के किसी भी दस्तावेज , किसी भी फ़ाइल में कभी भी गाँधी जी को राष्ट्रपिता का दर्ज़ा देने जैसी किसी बात का कोई उल्लेख नहीं है। यानि पचास सालों से जो इस देश के बच्चों से बड़ों तक को जबरन पढ़ाना सिखाया जा रहा था वो तथ्यहीन आधारहीन बात थी।
ठीक ऐसा ही कुछ भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के बारे में भी भ्रम फैलाया गया कि नेहरू को बच्चों से अगाध स्नेह था और इतना अधिक था कि बाकायदा नेहरू जी के जन्मदिवस यानि 14 नवम्बर को बाल दिवस के रूप में मनाए जाने की प्रथा भी स्थापित हो गई। लेकिन क्या सच में ही नेहरू को भारत के बच्चों से इतना प्रेम , इतना स्नेह था ?? यदि ऐसा था तो फिर वो महसूस क्यों नहीं हुआ कभी , दिखा क्यों नहीं ??
जवाहर लाल नेहरू जी का वास्तविक बाल प्रेम सिर्फ अपने वंश बेल के लिए ही था। जवाहर लाल नेहरू की एक मात्र संतान इंदिरा का अल्पायु में ही राजनीति में प्रवेश , न सिर्फ प्रवेश बल्कि इसी कारण कांग्रेस और देश तक के अपने उत्तराधकारी के रूप में उनका स्थापन , जबकि वहीँ नेहरू के समकक्ष गाँधी के पाँच पुत्रों का राजनीति में लगभग गुमनाम रह जाना , यहां तक कि गाँधी जी एक पुत्र ने तो खिन्न होकर स्वयं गाँधी जी के विरूद्ध ही बिगुल फूंक दिया था ?
नेहरू जी का बाल प्रेम , बच्चों के प्रति अगाध स्नेह की बातें कोरी लफ्फाजी से अधिक कुछ नहीं जान पड़ती। बच्चों के लिए कौन सी दूरदर्शी योजना , उनकी सुरक्षा, संरक्षण के लिए कौन का कानून , शिक्षा स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के लिए कौन सा खजाना लुटाया था आखिर नेहरू जी ने , जिसका कोई साक्ष्य आज देखने जानने को नहीं मिलता।
गाँधी उपनाम के सहारे नेहरू जी की खुद की संतानों ने आज तक देश को अपनी बपौती समझ कर स्वयं को उस पर राज करने वाला ही समझा है। आज भी उसी वंश का एक प्रौढ़ , युवा राजनीतिज्ञ होने का दावा करने के बावजूद बालक बना हुआ , अपनी पार्टी और देश के लिए एक गैर जरूरी जिम्मेदारी भर बना हुआ है।
जवाहर लाल नेहरू के नाम पर चल रहा एक केंद्रीय विश्व विद्यालय , अपने विषाक्त शैक्षणिक माहौल के लिए इतना ज्यादा कुख्यात हो गया है कि कभी देश तोड़ने की साजिशों में शामिल होता है तो कभी विवेकानंद की मूर्ति तोड़ कर और प्रधानमंत्री तक के अपमान में अभी प्रबुद्धता साबित करता है।
असल में उन दिनों , न तो संचार और सूचना के प्रसार माध्यमों की उपलबध्ता थी और न ही लोगों में शिक्षा जनित सचेतता तो अवसर का लाभ उठा कर कोई इस देश का बाप (राष्ट्रपिता ) बन बैठा और किसी ने खुद को चाचा घोषित कर दिया। अब लोग जागरूक हो गए हैं , सच झूठ अच्छी तरह से समझ लेते हैं सो धीरे धीरे सारी कलई खुलती चली जा रही है और सारा सच लोगों के सामने आ रहा है।
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