प्रधानमंत्री ने किसानों के नाम अपने उद्बोधन में जिस विषैली विचारधारा की ओर संकेत किया उस पर समाज में खुलकर बात होनी चाहिए। प्रधानमंत्री अपने पद की गरिमा और मर्यादा से बंधे हैं, पर हम-आप तो नहीं। कम-से-कम हमें तो वामपंथियों की वास्तविकता और कुकृत्यों से जनसामान्य को परिचित कराना चाहिए। वामपंथ अपने मूल चरित्र में जिहादी मानसिकता और विचारधारा से भी अधिक घातक प्रतीत होता है। ये कुतर्क और अनर्गल प्रलाप के स्वयंभू ठेकेदार हैं। रक्तरंजित क्रांति के नाम पर इसने जितना खून बहाया है, मानवता का जितना गला घोंटा है, उतना शायद ही किसी अन्य विचारधारा ने किया हो। जिन-जिन देशों में वामपंथी शासन है, वहाँ गरीबों-मज़लूमों, सत्यान्वेषियों-विरोधियों आदि की आवाज़ को किस क़दर दबाया-कुचला गया है, उसके स्मरण मात्र से ही सिहरन पैदा होती है। यह भी शोध का विषय है कि रूस और चीन पोषित इस विचारधारा ने अपनी विस्तारवादी नीति के तहत इसके प्रचार-प्रसार के लिए कितने घिनौने हथकंडे अपनाए? वामपंथी शासन वाले देशों में न्यूनतम लोकतांत्रिक अधिकार भी जनसामान्य को नहीं दिए गए, परंतु दूसरे देशों में इनके पिछलग्गू लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई देकर जनता को भ्रमित करने की कुचेष्टा करते रहते हैं।


भारत में तो वामपंथियों का इतिहास इसके उद्भव-काल से ही देश और संस्कृति विरोधी रहा है, क्योंकि भारत की सनातन समन्वयवादी जीवन-दृष्टि और दर्शन इनके फलने-फूलने के लिए अनुकूल नहीं है। भारतीय संस्कृति और जीवन-दर्शन में परस्पर विरोधी विचारों में समन्वय और संतुलन साधने की अद्भुत शक्ति रही है।इसलिए इन्हें लगा कि भारतीय संस्कृति और जीवन-दर्शन के प्रभावी चलन के बीच इनकी दाल नहीं गलने वाली, इसलिए इन्होंने बड़ी योजनापूर्वक भारतीय संस्कृति और सनातन जीवन-मूल्यों पर हमले शुरू किए। जब तक राष्ट्रीय राजनीति में, नेतृत्व गाँधी-सुभाष जैसे राष्ट्रवादियों के हाथ रहा, इनकी एक न चली, न ही जनसामान्य ने इन्हें समर्थन दिया। गाँधी धर्म से प्रेरणा ग्रहण करते रहे और ये कहने को तो धर्म को अफीम की गोली मानते रहे, पर छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण में कभी पीछे नहीं रहे, यहाँ तक कि राष्ट्र की इनकी अवधारणा और जिन्ना व मुस्लिम लीग की अवधारणा में कोई ख़ास फ़र्क नहीं रहा, ये न केवल द्विराष्ट्रवाद अपितु बहुराष्ट्रवाद का समर्थन करते रहे और कालांतर में तो इन्होंने एक क़दम और बढ़ाते हुए इस सोच एवं प्रोपेगैंडा को बल दिया कि भारत अनेक संस्कृतियों और राष्ट्रों का अस्वाभाविक गठजोड़ है। इनकी राष्ट्र-विरोधी सोच के कारण ही नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जैसे प्रखर देशभक्त राष्ट्रनेताओं ने इन्हें कभी कोई खास महत्त्व नहीं दिया , इनकी कुत्सित मानसिकता का सबसे बड़ा उदाहरण तो उनका वह घृणित वक्तव्य है जिसमें इन्होंने नेताजी जैसे देशभक्त को ‘तोजो का कुत्ता’ कहकर संबोधित किया था। जब यह मुल्क आज़ाद हुआ, तब देश में इनका प्रभाव नाम-मात्र था। इन्होंने कभी शहीदे आज़म भगत सिंह को अपना आइकन बताने का अभियान चलाया तो कभी अन्य क्रांतिकारियों की राष्ट्रीय चेतना को वामपंथी प्रेरणा बताने का।

सच तो यह है कि इन्हें भारत में अपना पाँव जमाने का मौका नेहरू के शासन-काल में मिला।  नेहरू जी का वामपंथी झुकाव किसी से छुपा नहीं है। वे दुर्घटनावश स्वयं को हिंदू यानी भारतीय मानते थे। नेहरू की जड़ें भारत से कम और विदेशों से अधिक जुड़ी रहीं, उनकी परवरिश और शिक्षा-दीक्षा भी पश्चिमी परिवेश में अधिक हुई। भारत की जड़ों और संस्कारों से कटा-छँटा व्यक्ति, जो कि दुर्भाग्य से ताकतवर भी था, इन्हें अपने विचारों के वाहक के रूप में सर्वाधिक उपयुक्त लगा। और नेहरू की इन्हीं कमज़ोरी का फ़ायदा उठाकर इन्होंने सभी अकादमिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक या अन्य प्रमुख संस्थाओं के शीर्ष पदों पर अपने लोगों को बिठाना शुरू कर दिया जो उनकी बेटी ‘इंदिरा’ के कार्यकाल तक बदस्तूर ज़ारी रहा। यह अकारण नहीं है कि ज़्यादातर वामपंथी नेहरू जी और इंदिरा गाँधी की तारीफ़ में क़सीदे पढ़ते नज़र आते हैं। और तो और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने तो इंदिरा जी द्वारा देश पर आपातकाल थोपे जाने तक का समर्थन किया था, वे तत्कालीन आपातकालीन सरकार के साझीदार थे। यह भी शोध का विषय है कि दो प्रखर राष्ट्रवादी नेताओं सुभाषचन्द्र बोस और लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु इनकी विचारधारा को पोषण देने वाले शासन व राष्ट्र रूस में ही क्यों हुई?


भारत के विकास की गाथा जब भी लिखी जाएगी उसमें सबसे बड़े अवरोधक के रूप में वामपंथी आंदोलनकारियों का नाम सुस्पष्ट अक्षरों में लिखा जाएगा। बंगाल को इन्होंने एक विकसित राज्य से बीमारू राज्य में तब्दील कर दिया, केरल को अपने राजनीतिक विरोधियों की हत्या का अखाड़ा बनाकर रख दिया, त्रिपुरा को धर्मांतरण की प्रयोगशाला बनाने में इन्होंने कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी थी। आप सर्वेक्षण और शोध करके देख लीजिए इन्होंने कभी पर्यावरण तो कभी मानवाधिकार के नाम पर विकास के कार्यक्रम में केवल अड़ंगे  लगाए हैं और आम करदाताओं के पैसे से चलने वाली समयबद्ध योजनाओं को अधर में लटकाया है या उसकी प्रस्तावित लागत में वृद्धि करवाई है। इनके मजदूर संगठनों ने तमाम फैक्ट्रियों पर ताले जड़वा दिए,  रातों-रात लोगों को पलायन करने पर मजबूर कर दिया। भोले-भाले मासूम आदिवासियों, वनवासियों और वंचितों को बरगलाकर इन्होंने उनके हाथों में बंदूकें थमा उगाही और फ़िरौती की दुकानें खोल लीं। अपने प्रभाव-क्षेत्र के इलाकों को स्कूल, शिक्षा, चिकित्सा, सेवा के विभिन्न योजनाओं और प्रकल्पों के लाभ से वंचित कर दिया। और  ज़रा देखिए कि ये अपनी घृणा का शिकार किसे बनाते हैं, साधारण पुलिसवाले को, सेना में नौकरी कर अपनी आजीविका चला रहे कर्तव्यपरायण जवानों को, शिक्षकों को, निरीह साधु-संतों को…..।शिक्षा और पाठ्यक्रम में इन्होंने ऐसे-ऐसे वैचारिक प्रयोग किए कि आज वह कचरे के ढेर में तब्दील हो गया है। आधुनिक शिक्षित व्यक्ति अपनी ही परंपराओं, जीवन-मूल्यों, आदर्शों और मान-बिंदुओं से बुरी तरह कटा है, उदासीन है, कुंठित है। वह अपने ही देश और मान्य मान्यताओं के प्रति विद्रोही हो चुका है। इन्होंने उन्हें ऐसे विदेशी रंग में रंग दिया है कि वे आक्रमणकारियों के प्रति गौरव-बोध और अपने प्रति हीनता-ग्रन्थि से भर उठे हैं।

भारत माता की जय बोलने पर इन्हें आपत्ति है, वंदे मातरम् बोलने से इनकी धर्मनिरपेक्षता ख़तरे में पड़ जाती है, गेरुआ तो इन्हें ढोंगी-बलात्कारी ही नज़र आता है, सनातन संस्कृति इन्हें मिथ्याडंबरों और अंधविश्वासों का पर्याय जान पड़ता है,  शिष्टाचार और विनम्रता इनके लिए ओढ़ा हुआ व्यवहार है, छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरु गोविंद सिंह, वीर सावरकर जैसे महापुरुष इनके लिए अस्पृश्य हैं, राम-कृष्ण मिथक हैं, पूजा-प्रार्थना बाह्याडंबर हैं, देशभक्ति क्षणिक आवेग या उन्माद है, सांस्कृतिक अखण्डता कपोल-कल्पना है, वेद गड़ेरियों द्वारा गाया जाने वाला गीत है, पुराण गल्प हैं, उपनिषद जटिल दर्शन भर हैं, परंपराएँ रूढ़ियाँ हैं, परिवार शोषण का अड्डा है, सभी धनी अपराधी हैं,भारतीय शौर्य गाथाएँ चारणों और भाटों की गायीं विरुदावलियाँ हैं, सदियों से रचा-बसा बहुसंख्यक समाज इनकी दृष्टि में असली आक्रांता है, देश भिन्न-भिन्न अस्मिताओं का गठजोड़ है, गरीबी भी इनके यहाँ जातियों के साँचे में ढली है, हिंदू दर्शन, कला, स्थापत्य इनके लिए कोई महत्त्व नहीं रखता, उन्हें ये पिछड़ेपन का प्रतीक मानते हैं, जबकि इस्लाम अमन और भाईचारे का पैगाम। हिंदू स्त्रियाँ इन्हें भयानक शोषण की शिकार नज़र आती हैं, पर मुस्लिम स्त्रियाँ स्वतंत्रता की देवियाँ। इनके लिए प्रगतिशीलता मतलब अपने शास्त्रों-पुरखों को गरियाना है….वगैरह-वग़ैरह। यानी जो-जो चिंतन और मान्यताएँ देश को बाँटती और कमज़ोर करती हैं, ये उसे ही प्रचारित-प्रसारित करते हैं।

प्रोपेगेंडा और झूठ फ़ैलाने में इन्हें महारत हासिल है। निजी जीवन में आकंठ भोग में डूबे इनके नीति-नियंता सार्वजनिक जीवन में शुचिता और त्याग की लफ़्फ़ाज़ी करते नज़र आते हैं।पंचसितारा सुविधाओं से लैस वातानुकूलित कक्षों में बर्फ और सोडे के साथ रंगीन पेय से गला तर करते हुए देश-विदेश का तख्ता-पलट करने का दंभ भरने वाले इन नकली क्रांतिकारियों की वास्तविकता सुई चुभे गुब्बारे जैसी है। ये सामान्य-सा वैचारिक प्रतिरोध नहीं झेल सकते, हिंसा इनका सुरक्षा-कवच है। मेहनतकश लोगों के पसीने से इन्हें बू आती है, उनके साथ खड़े होकर उनकी भाषा में बात करना इन्हें पिछड़ापन लगता है, येन-केन-प्रकारेण सत्ता से चिपककर सुविधाएँ लपक लेने की लोलुप मनोवृत्ति ने इनकी रही-सही धार भी कुंद कर दी है। वर्ग-विहीन समाज की स्थापना एक यूटोपिया है, जिसके आसान शिकार भोले-भाले युवा बनते हैं, जो जीवन की वास्तविकताओं से अनभिज्ञ होते हैं।इतना ही नहीं, अर्थशास्त्र के तमाम विद्वान एक स्वर से साम्यवादी अर्थव्यवस्था की आत्मघाती विसंगतियों और कमजोरियों के बारे में लिख चुके हैं, यह व्यवस्था अप्राकृतिक और अस्थिर होती है। जड़ से ही खोखली इन आर्थिक नीतियों के कारण तमाम साम्यवादी देशों और राज्यों की अर्थव्यवस्था का बुरा हाल रहता है और इसकी सबसे ज्यादा कीमत निम्न और मध्यम वर्ग के लोग चुकाते हैं। और फिर अगर इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था के खिलाफ लोगों में असंतोष उभरता है तो उसकी अभिव्यक्ति तक होने से पहले ही उनका क्रूरता से दमन कर दिया जाता है।

जिस माओ के नाम पर बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ और बिहार-झारखंड में वहाँ के प्रगतिवादी वामपंथी खूनी खेल खेल रहे हैं, चीन में उसी माओ के शासनकाल में दो करोड़ से भी ज्यादा लोग सरकारी नीतियों से उपजे अकाल में मारे गए और लगभग पच्चीस लाख लोगों को वहाँ की इकलौती पार्टी के गुर्गों ने मार डाला। सोवियत रूस में स्तालिन ने भी सर्वहारा हित के नाम पर लगभग 30 लाख लोगों को साइबेरिया के गुलाग आर्किपेलागो में बने लेबर कैंपों में भेजकर अमानवीय स्थितियों में कठोर श्रम करवाकर मार डाला, ऊपर से लगभग साढ़े सात लाख लोगों को, विशेषकर यहूदियों को, बिना कोई मुकदमा चलाए मार डाला गया। इनमें से अधिकांश के  परिजनों को 1990 तक पता भी नहीं चला कि वे कहाँ गायब हो गए। पूर्वी जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया, हंगरी आदि ईस्टर्न ब्लाॅक के यूरोपीय देश जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद रूस की रेड आर्मी के कब्जे में थे और जहाँ रूस ने अपने टट्टू शासन में बिठा रखे थे, वहाँ भी कमोबेश यही स्थिति थी। पूर्वी जर्मनी में तो स्टासी ने हर नागरिक की पूरी जिंदगी की ही जासूसी कर रखी थी। इन सब देशों में कुल मिलाकर इन  ‘साम्यवादी’ सरकारों ने भय और प्रोपागैंडा के बल पर नागरिकों के मुँह खोलने पर पूरी पाबंदी लगा रखी थी और पूरा iron curtain बना रखा था- बिना पोलितब्यूरो की हरी झंडी के लोगों का देश के बाहर जाना-आना भी मुश्किल था, डर था कि कहीं सच्चाई बाहर न चली जाए। इन सब जगहों पर कहने को चुनाव होते थे, पर उनमें एक ही पार्टी खड़ी होती थी- कम्युनिस्ट पार्टी। अखबार, पत्रिकाएँ, टीवी, सिनेमा, साहित्य, विज्ञान, कला और यहाँ तक कि संगीत में भी जो भी कुछ होता था वो पोलितब्यूरो तय करती थी। Eisenstein और Tarkovsky जैसे अद्भुत फिल्मकारों से लेकर  Solzhenitsyn और Pasternak जैसे लेखक हों या Mosolov, Shostakovich और Rostropovich जैसे महान संगीत कलाकार, सबको अधपढ़े और असभ्य कम्युनिस्टों ने यातनाएँ दीं- कुछ मारे गए, कुछ मानसिक रूप से विक्षिप्त हो गए, कुछ ने डर से पोलितब्यूरो का एजेंडा अपना लिया और कुछ, जो नसीब वाले थे, अमेरिका और पश्चिमी यूरोप भाग गए। वैज्ञानिक और खिलाड़ी भी इस दमनकारी व्यवस्था से बचे नहीं, कितने ही लोग अंतरिक्ष में और चाँद पर जाने की सोवियत मुहिम में मारे गए जिनके अस्तित्व के सारे सुबूत केजीबी ने मिटा दिए, हारनेवाले ऐथलीट भी कठोर सजा के हकदार बनते थे।

इनके आदर्श ‘सर्वहारा सेवकों’ की सत्तालोलुपता और ऐय्याशी का वर्णन करते शब्द कम पड़ जाएँगे। जैसे ही कोई नेता कमजोर पड़ा कि गुटबंदी करके एक उसको मरवाकर खुद शासक बन जाता था। फिर उसके कल तक बाकियों से कैसे भी संबंध हो, निरंकुश शासन करने में जिस किसी के भी बाधक बन सकने का जरा सा शक भी होता था, उसपर ‘सर्वहारा का दुश्मन’ होने का आरोप लगाकर उसकी दिखावटी सुनवाई करके (अक्सर वो भी नहीं) उसे फायरिंग स्क्वाड के हवाले कर दिया जाता था। खुद स्तालिन ने 139 केंद्रीय समिति सदस्यों में से 93 और 103 जेनरलों में से 81 को मरवा दिया था, कई को सिर्फ शक के आधार पर। बाद में पुरानी तस्वीरों और फिल्मों में से भी उन्हें मिटा दिया जाता था। ऊपर से स्तालिन हो या अपने ज्योति बसु या आज के सीताराम येचुरी जैसे वामी नेता- इनके अपने व्यक्तिगत जीवन में भव्य महल जैसे निवास, महँगी विदेशी गाड़ियाँ, क्यूबन सिगार, महँगी शराब और औरतों की बहुतायत मिलेगी, भले ही दावा ये मजदूरों की लड़ाई लड़ने का करते हों। जब ऐसी घृणास्पद विरासत के उत्तराधिकारी ये कम्युनिस्ट मानवाधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जनहित जैसे शब्द अपनी जबान पर बेशर्मी से लाते हैं, तो इनकी असलियत जाननेवालों को तो कोफ्त होगी ही।परिवर्तन प्रकृति का नियम है। वामपंथ अपनी आख़िरी साँसें गिन रहा है। समय इसे छोड़कर आगे बढ़ चला है। अब तय आपको करना है कि आप बदलते दौर में विकास की राह पर आगे बढ़ना चाहते हैं या पतन की अंधी सुरंग की ओर।

प्रणय कुमार

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