सम्प्रदायों का अगर मानवीकरण किया जाये तो इस्लाम सम्प्रदायों के परिवार का पड़पोता जैसा है जबकि ईसाइयत पोता, यहूदी और पारसी बेटे सरीखे नज़र आयेंगे पर पिता , पितामह , प्रपितामह , वृद्धप्रपितामह से लेकर जहाँ तक आपकी कल्पना के घोड़े दौड़ सकते हैं सिर्फ़ एक हीं सत्ता है और वह है धर्म का । चूँकि वह आदि काल से अबतक अस्तित्व में है इस लिये सनातन कहलाता है। अगर सनातन के लिये कोई एक उपमा तलाश की जाये तो वह होगी समुद्र से तुलना। बाकी सम्प्रदाय नदी , झील , तालाब , नहर , कुएँ , हैण्ड पम्प से होते हुए मिनरल वाटर के बोतल तक अपना वज़ूद तलाशते मिलेंगे। धर्म के इतिहास को खंगालें तो इस्लाम वह नवजात बच्चा है जिसका मुण्डन तक नहीं हो पाया है। मूसा, ईसा या हज़रत मुहम्मद ये सब अद्वितीय मनुष्य थे जिन्होंने पीड़ित मानवता को रक्षण दिया ठीक कुछ वैसा हीं जैसा कभी कृष्ण ने पाण्डवों के लिये प्रयास किया। कृष्ण ने यह प्रयास सत्य की विजय के लिये किया और पाण्डवों का सत्य के पक्ष में रहना कृष्ण को उनकी ओर दिखा गया बर्ना उनके लिये तो बर्बरीक , घटोत्कच , और पूरा यदुवंश भी अपनी आसुरी झुकाव के कारण नाश योग्य हीं थे फिर भी कृष्ण के नाम पर कोई सम्प्रदाय प्रारम्भ नहीं हो पाया कारण उस सनातन धर्म के नीले वितान के नीचे ये कृष्ण ,राम, परशुराम , विष्णु , शिव या ब्रह्मा आदि भी एक धूलि कण से ज्यादा नहीं दिखाई देते हैं। कृष्ण का तिरस्कार भरी सभा में शिशुपाल कर देता है तो राम के विराट व्यक्तित्व पर एक धोबी कालिख पोत जाता है। परशुराम को उनका शिष्य भीष्म पराजित कर देता है तो लक्ष्मण जैसा एक किशोर खिल्ली उड़ाने से नहीं चूकता। विष्णु को एक ब्राह्मण सीने पर लात मार कर चला जाता है तो शिव को उनका ससुर प्रजापति दक्ष हीं यज्ञ में नहीं बुलाता है | ब्रह्मा के लिये तो आज भी एक सनातनी पूजा के उपरान्त बचे खुचे फूल हीं अर्पित करता है और ब्रह्मा की पूजा कभी भी विधिपूर्वक पुष्कर के अतिरिक्त कहीं नहीं की जाती। पर ये सब के सब सनातन धर्म के अति सम्मान्य व्यक्तित्व हैं। इनके किसी भी निन्दक पर ईशनिन्दा कानून नहीं लगाया गया । कारण इन देवताओं का अस्तित्व धर्म की स्थापना की वज़ह से है न कि इनकी वज़ह से सनातन धर्म है। पर मुख्य बात पर अब लौटा जाये कि इस्लाम की दुविधा भारत में क्यों बढ़ जाती है जबकि इस्लाम , ईसाइयत और यहूदी ये तीनों सम्प्रदाय आपस में लड़ते हुए और अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाते या गैरों की संख्या घटाते हुए दिखेंगे। यहूदी इस मामले में थोड़े अलग है कारण यहूदी बनाये नहीं जाते पर इस्लाम और ईसाइयत के थपेड़े इसकी नींव हिलाने में कभी कसर नहीं छोड़ते, किसी को ईराकष कुवैत प्रकरण याद हो तो याद कर सकते हैं कि बेवज़ह इज़रायल पर हमला ताकि लड़ाई का यहूदी आयाम भी जोड़ा जा सके।
चूँकि ईसाइयत और इस्लाम सिर्फ़ ६०० साल बड़े छोटे हैं तो एक दूसरे को परस्पर बदलने की कोशिश में लीन रहते हैं और सफलता भी प्राप्त करते रहते हैं । मोहम्मद अली या माइकल जैक्शन के कपड़े बदलने की तरह सम्प्रदाय परिवर्तन आप को शायद याद हो पर भारत में सनातनियों से सामना करते वक्त इस्लाम थोड़ा गबड़ाया हुआ दिखाई देता है।
जब तक बाप या मालिक ज़िन्दा हो सनातन धर्म में बेटे या उसके गुमाश्ते को ज़्यादा भाव नहीं मिलता । ईसा और हज़रत मुहम्मद तो उस अविनाशी परम तत्व के पुत्र या पैगाम देने वाले के तौर पर ही जाने गये और धार्मिक आधार पर इनका वर्चश्व सनातनियों की दुनियाँ में जम नहीं पाया।
कुछ आदिवासी या निर्धन सनातनियों को तात्कालिक प्रलोभन या मौके पर सहानुभूति और सहायता के द्वारा सनातन के विशाल वितान में कुछ छेद करने की कोशिश हुई पर कभी भी कोई जाग्रत और शिक्षित सनातनी इस आध्यात्मिक प्रलोभन का शिकार नहीं हुआ। उदाहरण के लिये अम्बेदकर ने असंतुष्ट होकर बौद्ध धर्म अपनाया ईसाइयत या इस्लाम नहीं। बापू जो आजकल कांग्रेसियों और सेक्यूलरों की जागीर बनकर रह गये हैं ,ने भी ईसाइयत या इस्लाम को सनातन के सम्मुख बौना हीं पाया । उन्होंने अपने प्यारे भजन में ईश्वर अल्ला तेरो नाम तो कहा पर वे भी ईसा मुहम्मद तेरो नाम कहने की श्रद्धा नहीं दिखा पाये।
बापू को अपने सनातन परंपरा की अक्षुण्णता और व्यापकता का पूर्ण ज्ञान था। इस्लाम ने सनातन को ईसाइयत जैसा हीं माना और तलवार का डर या सामाजिक समता का प्रलोभन देकर अपने रंग में रंगना चाहा पर आज भी इण्डोनेशिया , मलेशिया , कम्बोडिया, बाँग्लादेश से सनातन की छाप नहीं मिटा पाया है। सनातन की उदात्त चेतना ने तो रहीम , रसखान जैसे मुसलमान ऋषि बना दिये पर क्या आप ने एक भी कन्वर्टेड हिन्दू , सिख या ईसाई देखा है जो आस्था की डोर पकड़ कर अन्य सम्प्रदाय में ऐसी आध्यात्मिक उड़ान हासिल कर पाया हों।
एक आश्चर्य की बात ज़रूर है कि भारत के स्वर्ग कश्मीर में हज़रत मुहम्मद के बाल सुरक्षित आज भी रखे हैं पर मदीने में उनकी कब्र का भविष्य क्या होगा कोई नहीं जानता !
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भारत में इस्लाम ने तोड़ फ़ोड़ कर के सनातन की चूलें हिलाने की सोची। आस्था के केन्द्र राम , कृष्ण और शिव से जुडें मन्दिरों को तोड़ कर मस्जिदें तामील हुईं जबकि कुरान कहता है कि विवादास्पद जगहों पर मस्जिद नहीं बननी चाहिये। नालन्दा विश्वविद्यालय का खंडित अवशेष यह बताने के लिये काफ़ी है कि आस्था और ज्ञान केन्द्रों पर आघात करके इस्लाम ने सनातनियों को इस्लाम से जोड़ने की कोशिश की। हो सकता हो कि हमारे कुछ बुद्धिजीवी मित्रों को इस बात पर विश्वास ना हो तो तालिबान के द्वारा बामियान में बुद्ध की मूर्तियों का ध्वंस उनके ज्ञान चक्षु खोल सकता है। हालिया दशकों में मन्दिरों के आसपास हुए आतंकी धमाके शायद मेरे कथनों की पुष्टि एक बार फिर कर देंगे ये आशा है।
इस्लाम सचमुच शान्ति का सम्प्रदाय है और शान्ति की स्थापना युद्ध के वगैर नहीं हो सकती है।” इस्लाम ज़िन्दा होता है हर करबला के बाद” का नारा इस्लाम के युद्ध प्रेम को बताने के लिये पर्याप्त है।
दरअसल सनातन को मछली समझ कर सामाजिक समरसता , लोभ , भर और आतंक का चारा लगा कर धर्म परिवर्तन का मछली पकड़ाऊ काँटा भारत रूपी समुद्र में उसे तालाब समझ कर डाला पर सनातन तो ह्वेल निकला।
इस्लाम जो ईसाइयत प्रजाति का झींगा पकड़ने का अभ्यस्त है इस भारतीय आध्यात्मिक समुद्र में ह्वेल कैसे संभालता। यदि विदेशी तस्करों की कुटिलता , मैकाले की शिक्षा पद्धति और ईसाइयों व साम्यवादियों की शह इस्लाम को ना मिली होती तो हज़रत मुहम्मद भी विष्णु का एक अवतार मान लिये जाते और इस्लाम को पूरा का पूरा सनातन धर्म निगल जाता ।
अब आपका सवाल यह हो सकता है कि ईसाइयत ने इस्लाम को सपोर्ट क्यों किया तो बस एक थ्योरी है कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त। और इन दोनों ने अलग अलग सनातनी तबकों को अपना शिकार बनाया । इस्लाम ने खौफ़ और धर्म नाश को माध्यम बना कर सनातन वर्ण व्यवस्था के चौथे स्तंभ पर प्रहार किया और उन्हें अन्य तीन वर्णों की उपेक्षा का एहसास दिला कर, धोखे से अभक्ष्य खिला कर या अपने सम्प्रदाय की सामाजिक समरसता का प्रलोबन दिखा कर और खास कर धर्मच्युत सनातनी के पुनः सनातनी बनने की कोई धर्मसंगत व्यवस्था नहीं होने के स्वर्णिम अवसर को भुना कर इस्लाम कबूल करवाया गया तो ईसाइयत ने आदिवासियों और समाज के अछूतों को चिकित्सा, शिक्षा और संवेदना का चारा फ़ेंक कर ईसाइयत की ओर आकर्षित किया। वैसे मेरे विचार से अछूत कभी भी सामाजिक रूप से परित्यक्त नहीं थे । यह अस्पृश्यता उनके रोजगार से संवंधित थी जो आज भी है चाहे हम कितना भी समानता और स्वतन्त्रता के अधिकार का डंका पीट लें।
अब आपका दूसरा सवाल हो सकता है कि साम्यवादियों की शह क्यों तो यह जान लीजिये कि साम्यवादी विचारधारा तो सारे धर्मों से नफ़रत करती है । उसके प्रणेता ने तो धर्म को जनता के लिये अफ़ीम माना है पर सनातन के शामियाने की बखिया उधेड़ने के लिये इन वामपन्थियों को इस्लाम की सुई बड़ी मुफ़ीद लगी। वैसे आपको शायद यह पता होगा कि ना तो इस्लामी मुल्कों में साम्यवादी हैं और ना साम्यवादी मुल्कों में इस्लाम ( बस उईगर बधुओं नें हीं अपनी ऐसी तैसी करबा कर मेरी थ्योरी की ऐसी तैसी कर रखी है।)
पाकिस्तान का बनना अंगेज़ों की कूटनीति थी पर इस्लाम को अपनी जीत दिखाई देने लगी इसमें जबकि सच ये था कि भारत को मुसलमान विहीन करना तो ना परब्रह्म के बूते की बात है और ना अल्ला मियाँ के।
पर हर मुसलमान के दिल में जिन्ना की बोई हुई गलतफ़हमी भरी उम्मीद ने इस्लाम को भारत के सनातन समूह के रूप में एक गुड़ लगा हँसिया मुँह में थमा दिया है । अब हँसिये की धार निगलने नहीं देती और गुड़ की मिठास उगलने नहीं देती है।
और यही है इस्लाम की दुविधा अपने इस आर्यावर्त में।
आमीन।
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