संसद से लेकर सड़क तक विपक्षी दलों के व्यवहार से ऐसा प्रतीत होता है कि उसका उद्देश्य देश में अशांति, आशंका और अव्यवस्था फैलाना ही है। पिछले छह वर्षों में ऐसे कई अवसर आये जब विपक्ष बड़े कायदे से सरकार की घेराबंदी कर सकता था, लेकिन अफसोस वो इसमें नाकामयाब रहा। कमजोर, बंटा हुआ और अपने राजनीतिक नफे-नुकसान के हिसाब से चिल्लाने और चुप्पी साधने वाला विपक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपनी भूमिका निभाने में असफल साबित हुआ। ये वो कड़वी हकीकत है जिससे विपक्ष में बैठे राजनीतिक दल मुंह छुपा नहीं सकते हैं। संसद से लेेकर सड़क तक विपक्ष ने केवल विरोध इस नीयत से किया कि देश की जनता को ऐसा एहसास हो कि हमने तो दिल से विरोध किया लेकिन सरकार मनमानी पर उतारू है। जीएसटी, नोटबंदी, तीन तलाक, सीएए और एनआरसी की तरह कृषि बिलों पर विपक्ष का नाटकीय विरोध राजनीतिक स्टंट भर ही है।

पिछले छह वर्षों से विपक्ष केवल दिखावटी विरोध का नाटक ही सड़क से संसद तक कर रहा है। इस अवधि में आपको एक भी मुद्दा ऐसा याद नहीं आएगा जब विपक्ष प्रभावी तरीके सरकार को पीछे हटने के लिए मजबूर कर पाया हो। ताजा मामला मोदी सरकार द्वारा लाये गये तीन कृषि बिलों का है। इन बिलों का विरोध विपक्ष कर रहा है। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ किसान संगठन और किसान ही आंदोलन कर रहे हैं। लेकिन विपक्ष संसद से सड़क तक ऐसा दृश्य पेश कर रहा है मानो देश के सारे किसान आंदोलन में शामिल हैं। राज्यसभा में जब ये बिल पास हो रहे थे तो विपक्ष ने विरोध की सारी हदें पार करते हुये संसदीय मर्यादा को तार-तार करने का काम किया। विपक्षी सांसदों का अमर्यादित आचरण टीवी पर सारे देश ने देखा। कृषि से जुड़े दो विधेयक संसद से पास हो चुके हैं। अब ये कानून का रूप लेंगे।

कांग्रेस समेत विपक्ष के कई दल इस बिल के विरोध में हैं। राजनीतिक दलों ने देशभर में इन बिलों के विरोध का निर्णय भी किया है। 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र मेें मौजूदा कृषि बिल से मिलते-जुलते वादों को यथायोग्य स्थान दिया था। वो अलग बात है कि देश की जनता ने कांग्रेस को सरकार चलाने का अवसर ही नहीं दिया। इन बिलों को कैबिनेट की मंजूरी बीते जून में ही मिल गयी थी। जून से लेकर संसद सत्र चलने से पहले तक विपक्ष ने इस मुद्दे पर चुप्पी साधे रखी। विपक्ष ने इस बाबत किसान संगठनों, किसानों की राय और सरकार पर दबाव बनाने के लिए किसी रणनीति पर काम नहीं किया। ये कहा जा सकता है कि कोरोना के चलते ये संभव न हो पाया हो। सच्चाई यह भी है कि राजनीतिक दल अपने मतलब के काम तो कर ही रहे हैं। वहीं आज कल तो सोशल मीडिया मुद्दों का तय करने, विमर्श करने और जनराय बनाने में बड़ी भूमिका निभाता है। सोशल मीडिया से इस मुद्दे पर विपक्ष को किसानों, बुद्धिजीवियों, विशेषज्ञों और आम आदमी की राय बटोरनी चाहिये थी। लेकिन विपक्षी दल तो अपनी अपनी राजनीति चमकाने में व्यस्त थे।

ऐसा प्रतीत हो रहा है कि विपक्ष के पास कृषि बिलों के मुद्दे पर सरकार पर हमला करने का एक ही हथियार है। और वो हथियार है एनडीए के सहयोगी अकाली दल की मंत्री हरसिमरत कौर को इस्तीफा। विपक्ष कह रहा है कि इन बिलों को लेकर एनडीए में ही मतभेद हैं। शिरोमणि अकाली दल और शिवसेना उसके साथ नहीं हैं। अकाली दल और शिवसेना की नाराजगी की वजह कृषि बिल न होकर राजनीतिक है, जिसके बारे में काफी हद तक देशवासी जानते हैं। सवान दर सवाल बहुत हैं। क्या यूपीए के शासन काल में देश के सारे किसान खुशहाल थे? यूपीए के शासन काल में क्या एक भी किसान ने आत्महत्या नहीं की थी? क्या पंजाब में जब अकालियों की सरकार थी तो किसानों की सारी समस्याएं खत्म हो चुकी थी? क्या हुड्डा के शासन में हरियाणा के किसान करोड़पति हो चुके थे? क्या किसानों की सारी समस्याएं मोदी के शासन काल की ही पैदावार हैं? पिछली सरकारों से मोदी सकरारी की तुलना का सीधा अर्थ यह है कि जमीनी हकीकत किसी से छिपी नहीं है। अव्यवस्था, कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार और प्रशासनिक हीला हवाली बरसों बरस पुराना रोग है। ऐसे में जब विपक्ष सरकार का विरोध बिना तथ्यों, इतिहास की जानकारी और आंकड़ों की बजाय केवल इसलिये करता है कि, विरोध तो विपक्ष का धर्म है तो सच मानिये वो धर्म की बजाय अधर्म के रास्ते पर चल रहा होता है।

देशवासियों ने टीवी पर संसद की कार्यवाही देखी। और यह भी देखा कि कृषि बिलों पर चर्चा के दौरान विपक्ष का एक भी नेता ठोस तरीके से अपनी बात किसानों के पक्ष में नहीं रख पाया। और न ही ऐसा कोई लाभकारी और गुणवत्तायुक्त सुझाव दे पाया जिसे बिल में शामिल करने के लिये सरकार को मजबूर हो जाती। विपक्ष ने तो अपनी सारी ऊर्जा सरकार की छवि को दागदार करने, उसे किसान विरोधी साबित करने और राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप में खर्च कर दी। हमारे देश में भले ही अधिकतर नेता अपने बायोडाटा में किसानी को अपना पेशा बताते हों, लेकिन देश में ऐसे नेताओं की भी एक बड़ी जमात है, जिन्हें रबी और खरीफ की फसलों में फर्क मालूम नहीं है।

2019 के आम चुनाव में सम्पूर्ण विपक्ष ने अपने अपने तरीके से मोदी सरकार को सत्ता से बेदखल करने के सारे उपाय कर डाले। लेकिन देश की जनता ने विपक्ष को आइना दिखाते हुये ज्यादा सीटों के साथ दोबारा मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी बिठाया। विपक्ष के दर्दे का असली कारण यही है। सीएए और एनआरसी पर विपक्ष ने सरकार विरोधी माहौल बनाकर देश में अव्यवस्था फैलाने का काम किया। जीएसटी, नोटबंदी, तीन तलाक, धारा 370 जैसे बड़े और कठोर निर्णयों के बाद भी जनता मोदी के साथ खड़ी है। यही बिंदु विपक्ष की चिंता का सबसे बड़ा कारण है।

इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि देश की तमाम समस्याएं पिछले छह सालों की पैदाइश तो नहीं हैं। अधिकांश समस्याएं आजादी के बाद से ही चली आ रही हैं। हर सरकार ने अपने-अपने तरीके से उनका हल निकालने की कोशिश की। हां ये अलग बात है कि पहले की सरकारें मीठी गोलियों से इलाज कर रही थी, मोदी सरकार पिछले छह वर्षों में सर्जरी कर समस्याओं के फोड़े खत्म कर रही है। ऐसे में हर बार जैसे ही मोदी सरकार कोई सर्जरी करती है विपक्ष का और पुरानी व्यवस्था से फल फूल रहे वर्ग का दर्दे सुनाई देने लगता है।

भारतीय लोकतंत्र का यह दुर्भाग्य है कि यहां का विपक्ष केवल सरकार की आलोचना, निंदा और उसे बदनाम करके सत्ता हासिल करना चाहता है, जमीन पर संघर्ष करना उसे रास नहीं आता है। मुद्दाहीन और उद्देश्यहीन विपक्ष एक ही फार्मूले पर काम कर रहा है, और वो फार्मूला है मोदी सरकार को हर तरीके से हर तबके में हर मोर्चे पर बदनाम करो। विपक्ष को लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपनी भूमिका, जनता की बीच गिरती साख पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। एक बात विपक्ष का समझनी चाहिए कि सोशल मीडिया पर किसान, मजदूर, बेरोजगार, नौजवान, गरीब, दलित का दुःख दर्दे का बयान करके लाइक तो बटोरे जा सकते हैं, लेकिन उसका समर्थन पाने के लिये जमीन पर उसके साथ खड़ा होना पड़ता है। कृषि बिलों पर चर्चा के लिये विपक्ष की आधी अधूरी तैयारी, तथ्यहीनता और निजी राजनीतिक स्वार्थ मोदी सरकार के लिये संजीवनी साबित हुए। विपक्ष की इस नकारा, नकारात्मक और स्वार्थ में डूबी भूमिका को देशवासी बखूबी देख रहे हैं। भले ही विपक्ष अपनी भूमिका निभाने में असफल रहा हो, लेकिन सरकार को किसानों की बात सुननी चाहिए और उनकी शंकाओं और परेशानियों का समाधान जरूर करना चाहिए। आखिरकार हमारी समृद्धि और विकास में धरतीपुत्रों की भूमिका सबसे अहम है।

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