भागलपुर में आज विधानसभा चुनाव के लिए वोट पड़ रहे हैं। पिछले एक महीने से इसकी तयारी चल रही थी और सबसे विशेष बात जो थी वो ये कि इस बार बागी विधायकों की संख्या बहुत अधिक है। विशेषकर बीजेपी के ऐसे कई सदस्य हैं जिन्हे विभिन्न कारणों से पार्टी से निष्काषित कर दिया गया और वे घूम-घूम कर अपने ऊपर हुए अत्याचार की कहानी सबको सुना रहे हैं। कोरोना ना होता तो शायद वे वोटरों के गले लग कर रो भी देते। सभी निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में मैदान में हैं और सभी का ये दावा है कि वे ही जीतेंगे। इन निर्दलीय उम्मीदवारों के पास जनता को लुभाने का कोई साधन नहीं है तो ये सभी अपने-अपने जात के ऊपर ही वोट मांग रहे हैं।

किन्तु बड़े नेताओं की बात कुछ और है। इसकी एक झलक कुछ दिन पहले भागलपुर में देखने को मिली जब वर्तमान विधायक अजीत शर्मा की बेटी अभिनेत्री नेहा शर्मा अपने पिता की ओर से वोट मांगती दिखी। वैसे ही भागलपुर की सड़कें तंग है, उसपर से राजनितिक दलों का हुजूम और उस के ऊपर एक अभिनेत्री का भागलपुर में दिख जाना जनता की अपार भीड़ जुटाने के लिए काफी था। वैसे जिस नेहा शर्मा की मैं बात कर रहा हूँ उसे आप क्रूक, यंगिस्तान, मुबारकां और तन्हाजी जैसी कुछ फ़िल्में में देख चुके होंगे। पर सबसे मजेदार बात ये है कि इन मोहतरमा का भागलपुर आना केवल ५ वर्षों में एक बार ही होता है। जब चुनाव आते हैं और इनके पिता को भीड़ खींचने के लिए इनकी आवश्यकता होती है तभी इनके दर्शन भागलपुर में होते हैं। वैसे किसी को कब कहा आना-जाना है इसपर हम कोई टिपण्णी तो नहीं कर सकते हैं किन्तु इनकी इस पंचवर्षीय नौटंकी देख कर थोड़ा अजीब तो लगता है। उससे भी मजेदार बात ये है कि इनके पिता अजीत शर्मा, जो स्वयं भागलपुर के कई होटलों और पेट्रोल पम्पों के मालिक हैं, और कदाचित ही कभी सड़क पर चलते दीखते हैं, हर चुनाव की भांति इस बार भी गरीबों के दर्द पर रो पड़े हैं।

वैसे वो अकेले नहीं हैं। आप भागलपुर के किसी भी बूथ पर चले जाएँ, सभी प्रत्याशी आपको अपने दोनों हाथों में क्रिमिनल केसों का गुलदस्ता लिए दिख जाएंगे। आज कल नेताओं की भीड़ में ईमानदार नेता खोजना बिलकुल ऐसा ही हो गया है जैसे भूंसे के ढेर में सुई खोजना। अगर कोई ईमानदारी की मशाल थामें सत्ता में आ भी जाता है तो निकलता वो केजरीवाल ही है। ये एक ऐसा मंच है जहाँ भ्रष्टों में सबसे कम भ्रष्ट को खोजकर आपको वोट देना होता है। वैसे ये काम कुछ चुनिंदा लोग ही करते हैं, अन्यथा बिहार में तो “मुस्लिम का वोट मुस्लिम को और दलित का वोट दलित को” वाला हिसाब किताब है।

पिछले विधान सभा चुनाव ने बिहार की जनता ने आरजेडी जैसी भ्रष्ट पार्टी को सबसे अधिक वोट देकर यही तो साबित किया था। ये इस बात का प्रतीक था कि लोगों की यादाश्त बहुत कम होती है जो ये तक भूल गए कि श्रीमान चाराचोर लालू यादव ने ९० के दशक में बिहार में किस प्रकार का जंगलराज स्थापित कर दिया था। हमें तो आज भी वो दिन याद है और इसी लिए जनता को फिर से आरजेडी की ओर झुकते हुए देख कर बहुत दुःख होता है।

वैसे बिहार में दूध का धुला कोई नहीं है। आज जो नितीश कुमार मोदी जी के हाथ में हाथ डाले घूम रहे हैं, यही पिछले चुनाव में एन वक्त पर बीजेपी से पत्ता काट कर उस आरजेडी से मिल गए थे जिसे गरियाने में वे चुनाव से पहले कोई कसर बांकी नहीं रखते थे। परिणाम ये हुआ कि लालू यादव के दोनों अनपढ़ बेटे मंत्री बनकर बिहार की जनता के सर पर बैठ गए और आने वाले कई दशकों तक वे वैसे ही बैठे रहेंगे। उसपर से हमारी मीडिया भी तेजस्वी यादव जैसे अनपढ़ नेता की रैलियों में आने वाली भीड़ को देख कर अभिभूत है। ये कितना दुखद है कि एक ऐसा व्यक्ति जिसे अपनी शिक्षा के बल पर किसी सरकारी या निजी कंपनी में चपरासी की भी नौकरी नहीं मिल सकती, आज बिहार के मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शामिल है। भारतीय लोकतंत्र के इस पतन को देख कर ही कई व्यक्तियों का विश्वास ही इससे उठ गया है।

यही कारण था कि एक बरगी मैंने सोचा कि इस बार चुनाव में वोट नहीं डालूंगा किन्तु फिर मन नहीं माना। अपना योगदान देकर तो आ गया हूँ किन्तु मन अभी भी अनिश्चित है कि कोई भी जीते, क्या वो वास्तव में बिहार को पुनः उसी ऊंचाई पर ले जाने में सक्षम होगा? खैर, मैंने तो अपनी जिम्मेदारी निभा ली अब आगे ईश्वर मालिक। किस पार्टी को वोट दिया है वो तो नहीं बताऊंगा लेकिन इस बार के विधान सभा के नतीजे ही ये निश्चित करेंगे कि बिहार आगे जाएगा, वहीँ रहेगा अथवा पुनः उसी अँधेरे में समा जाएगा जिसमें वो २ दशक पूर्व था।

जय भारत। जय बिहार।

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